पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर भाग ५.pdf/४९२

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मुरकी २७८३ मुरदार ! मुरकी-संज्ञा स्त्री० [हिं० मुरकना=घूमना ] कान में पहनने की मुरछित*-वि० दे० "मूर्छित"। उ० ---जोगी अकंटक भए छोटी बाली। पति-गति सुनत रति मुरछित भई ।-तुलसी। मरकुल-संज्ञा स्त्री० [ देश० ] एक प्रकार की लता जो हिमालय में मरज-संज्ञा पुं० [सं०] मृदंगा परवावज । उ.--(क) कोउ मंजु होती है और शिकिम तक पाई जाती है। इसकी शाखाओं मुरज अमोल ढोलन तबल अमल अपार हैं।-घुराज । में से एक प्रकार का रेशा निकलता है जिससे रस्सियों आदि (ख) रुज मुरज एफ ताल बाँसुरी झालर को झंकार ।-सूर । बनाई जाती हैं। इसे 'बेरी' भी कहते हैं। मुग्जफल-सा पुं० [सं०] कटहल का वृक्ष । मरखा -संज्ञा स्त्री० [सं० मूर्ख+आई (प्रत्य॰)] मूर्खता। बेव- मरजित्-संज्ञा पुं॰ [सं०] मुर नामक राक्षप को जीतनेवाले, कूफी। अज्ञता । उ-तपु करति हर-हित सुनि बिहँ सि बटु श्रीकृष्ण । मुरारि । कहत मुरग्वाई महा।-तुलसी।। मुरझाना-कि० अ० [सं० मून्छन ] (1) फूल या पत्ती आदि मुग्गा-संज्ञा पुं० [फा० मुर्ग ] [ श्री मुरगी ] (1) एक प्रसि पक्षी का कुम्हलाना । सूम्बने पर होना । (२) मुस्त हो जाना। जो सफेद, पीले आदि कई रंगों का और खदा होने पर उदास होना । उ०—(क) गिरि मुरझाइ दया आइ कडू प्राय: एक हाथ मे कुछ कम ऊँचा होता है। इसके नर के भाय भरे तर प्रभु ओर मनि आनंद में भीनी है।-प्रिया- रि पर एक कलगी होती है। यह अपनी शानदार चाल और । दास । (ग्व) परवी कुरंगिके, ग्रह हिम-उपचार तो मुझ कमल प्रभात के समय "कुकहूँ " बोलने के लिए प्रसिद्ध है। की लता को और भी मुरमा देगा।-हरिश्चंद्र । (ग) देव यह प्रायः घरों में पाला जाता है। लोग इसे लड़ाते और मुरमाइ उरमाल को दीजै सुरमाइ बात पूछी है छेम इसका मांस भी खाते है । इसके अच्चे को चूजा कहते है। की।-देव। (२) पक्षी । चिदिया। संयो॰ क्रि०-जाना। संशा श्री० दे० "मूर्वा"। मरह-संज्ञा पुं० [डिं. ] गर्व । अभिमान । दर्प । अहंकार । मरगावी-संशा स्त्री० [फा०] मुरगे की जाति का एक पक्षी जो मरड़की-संशा स्त्री० दे. "सरोद"। जल में तैरता और मछलियाँ पकड़कर खाता है। यह पानी मरतंगा-मंशा पुं० देश.] एक प्रकार का ऊँचा पेड़ जिसके हीर के भीतर अहुत देर तक गोता मारकर रह सकता है। की लकड़ी लाल और कड़ी होती है और जिसमे सजावट इपके पर कोमल होते हैं और नर मादा दोनों प्राय: एक से के सामान बनाए जाते हैं। यह पेड़ आयाम, बंगाल और ही होते हैं । जल-कुक्कुट । जल-मुरगा। घटगाँव में अधिकता में पाया जाता है। मरगाली-संज्ञा स्त्री० [ #० मुरंगिका ] मूर्वा । मरतहिन-संशा पुं० [अ० ] वह जिसके पाप कोई वस्तु रोहन मरचंग-संज्ञा पुं० [हिं० महनंग ] लोहे का बना हुआ मुंह से बजाने या गिरों रखी जाय। जिसके पास बंधक रखा जाय । का एक प्रकार का बाजा जिसमे ताल देते हैं। मुंहचंग। रेहनदार । मुहा०-मुरचंग बाड़ना=आनंद करना । चन करना। (व्यंग्य) मुरता-संशा पुं० [ देश ] एक प्रकार का जंगली झाद जो पूर्वी मुग्चा --संशश पुं० दे० "मोरचा"। धंगाल और आसाम में होता है। इससे प्रायः चटाई वा मरची-संज्ञा पुं० [सं०] पश्चिम दिशा के एक देश का नाम । सीतलपाटी बनाई जाती है। मरछना-कि० अ० [सं० मूर्छन ] (1) शिथिल होना । (२) मुरदर-संज्ञा पुं० [सं०मुरारि । श्रीकृष्ण । 30-जिमि मुरदर अचेत होना। बेसुध होना। बेहोश होना । उ.---अधर तकि अर कंध धरि धुनकर परतुर ।-गोपाल। दयनन भरे कठिन कुच उर लरे परे सुख सेज मन मुरछि 'मग्दा -संज्ञा पुं० [फा०मि. म. मृतक । वह जो मर गया हो। दाऊ।-सूर। मरा हुआ प्राणी । मृतक। मुरछल-संज्ञा पुं० दे० "मोरछल"। मुहा०-मुरदा उठना--मर जाना । (गाली) जैसे,—उसका भरछा-संज्ञा स्त्री० दे० "मूछो"। मुरदा उठे। मुरदा उठाना-मृतक को उठाकर जलाने या गाड़ने मरछाना-क्रि० अ० [सं० मूच्छ] अचेत होना । मूर्छित आदि के लिए ले जाना । अत्यष्टि क्रिया के लिए जाना । मुरदे होना । बेहोश होना । उ०—तात मरन सुधि श्रवण कृपा से शर्त बाँधकर सोना-बहुत अधिक माना। मुरदे का माल-- निधि धरणि परे मुरछाई । मोह मगन लोचन बल धारा वर माल जिसका कोई वारिस न है।। विपति हृदय न समाई।-सूर। वि० (1) मरा हुआ। मृत्यु को प्राप्त । मृत । (२) जो मरछावंत* -- ० [सं० मूर्छा+वंत (प्रत्य॰)] मूर्छित । बेहोश । बहुत ही दुर्बल हो। जिसमें कुछ भी दम न हो। (३) अचेत । उ०-धरम धुरंधर श्री रघुराई। मुरछाचत भए। मुरझाया हुआ। कुम्हलाया हुआ । जैसे, मुरदा पान । मुनिराई।--मधुसूदन। मुरदार-वि० [फा०] (1) अपनी मौत से मरा हुआ। मृत । ।