पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर भाग ५.pdf/५०५

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मूठना २७२६ एक प्रकार का जुआ जिसमें मुट्ठी में कौषियों बंद करके; ऐसी मूहता या मन की। परिहदि राममक्कि सुरसरिता बुझाते है। (५) मंत्र तंत्र का प्रयोग । जादू । टोना। पास करत ओस कमकी। -तुलसी। मुहा०--मूह चलाना या मारना जादू करना । टोना मारना। मृदयात-संज्ञा पुं० [सं०] किसी कोश में रूकी वा धी हुई तंत्र मंत्र का प्रयोग करना । उ०—(क) काहू देवननि मिलि मोटी मूठ मार दी।-तुलसी। (ख) पीठि दिए ही नेकु! मूढारमा-वि० [सं० मूदात्मन् ] मिर्दोष । मूर्ख । अहमक। मुरि कर चूंबट-पट टारि । भरि गुलाल की मूठि सों गई | मूत-संका पुं० [सं० मूत्र ] (1) वह जल जो शरीर के विषैले मूठि सी मारि।-बिहारी । (ग) कोउ पै कोड मार मूठ पदार्थों को लेकर प्राणियों के उपस्थ मार्ग से निकलता है। यथा।-गोपाल । (ब) अविर उदा मूठि मुठि सी चलावै, पेशाब । वि० दे० "मन"। सखी देखिए लुनाई नटनागर गोपाल की।-दीनदयाल । मुहा०-मत निकल पड़ना डर के मारे बुरी दशा हो जाना । मुठ लाना-जादू का असर होना । टोना लगना । मंत्र तंत्र का जैसे,--उसे देखोगे तो मूत निकल पड़ेगा। मूत से निकल प्रभाव पड़ना । उ.-ठि सी रीठि लगी उनको, इनको कर गू में पड़ना और भी बुरी दशा में जा पड़ना। लगी मूठि सी मूठि गुलाल की।-पमाकर। (२) पुत्र । संतान । ( तिरस्कार ) मठना-कि०म० [सं० मुष्ट, प्रा० मुह ] नष्ट होना । मर मिटना। मुखमा-क्रि० अ० [ मूत+ना (प्रत्य॰)] शरीर के गंदे जल को न रह जाना । उ०-दुइ तुरंग दुइ नाघ पाँव धरि ते कहि उपत्य मार्ग से निकालना । पेशाब करना। कवन न मूठे।-सूर। संयो॰ क्रि—देना । —लेना। मुठा-संज्ञा पुं० [हिं० मूठ ] पास फूस को रस्सी से बाँध बाँध मुहा०-मृत मारमा मूत देना । मूत देना-दर से घबरा जाना । कर बनाए हुए लट्ठे के आकार केलवे लंबे पूले जो खपरैल मृतरी-संशा पुं॰ [देश॰] एक प्रकार का अंगली कौवा । मह- की छाजन में लगाए जाते हैं। मुट्ठा। ताब । महालत। मुठाली-संशा स्त्री० [हि. मूठ +आली (प्रत्य॰)] तलवार (वि.) मूत्र-संज्ञा पुं० [सं०] शरीर के विषैले पदार्थ को लेकर प्राणियों मुठि-संज्ञा स्त्री० (१) दे. "मूठ" । (२) दे. "मुट्ठी"। के उपस्थ मार्ग से निकलनेवाला जल । पेशाब। मूत । मुठी-संज्ञा स्त्री० दे० "मुट्ठी"। विशेष-मूत्र के द्वारा शरीर के अनावश्यक और हानिकारक मूड-संशा पुं० दे० "ब"। क्षार, अम्ल या और विषैली वस्तुएँ निकलती रहती है। मुद-वि० [सं०] (1) अज्ञान । मूर्ख। जबबुद्धि । बेवकूफ । इससे मूत्र का वेग रोकना बहुत हानिकर होता है। अहमक । (२) उक । स्तब्ध । निश्चेष्ट । (३) जिसे आगा- प्रकार के प्रमेहों में मूत्र के मार्ग से विषसी वस्तुओं के पीछा न सूझता हो । ठगमारा। अतिरिक्त शर्करा तथा शरीर की कुछ धातुएँ भी गल गल- मूढगर्भ-संज्ञा पुं० सं०] गर्भ का बिगबना जिससे गर्भ-स्राव कर गिरने लाती है। अत: मूत्र-परीक्षा चिकित्साशास्त्र आदि होता है। बिगदा हुमा गर्भ। का एक प्रधान अंग पहले भी था और अब भी है। भारत- विशेष-सुश्रुत में लिखा है कि रास्ता चलने, सवारी पर वर्ष में गोमूत्र पवित्र माना गया है और पंचगव्य के अप्ति- घदने, गिरने-पड़ने, चोट लगने, उलटा लेटने, मलमूत्र का रिक्त धातुओं और ओषधियों के शोधने में भी उसका वेग रोकने, रूस्खा, कबुआ या तीखा भोजन करने, वमन, ! व्यवहार होता है। वैचफ में गोमूत्र, महिषमूत्र, छागमूत्र, विरेचन, हिलनेनबोलने आदि से गर्भ का बंधन ढीला हो मेषमूत्र, अश्वमूत्र आदि सब के गुणों का विवेचन किया जाता है और उसकी स्थिति बिगड़ जाती है। इससे पेट, गया है और विविध रोगों में उमका प्रमोग भी कहा पाश्र्व, वस्ति भादि में पीड़ा होती है तथा और भी अनेक गया है । मन्त्र-दोष से अमरो, मूत्रकृष्ण आदि मवेक रोग उपद्रव होते हैं। मूगर्भ चार प्रकार का होता है-कील, हो जाते हैं। प्रतिखुर, वीजक और परिष। यदि गर्भ कील की तरह मूत्रकृच्छ-संज्ञा पुं॰ [सं० ] एक रोग जिसमें पेशाब बहुत कष्ट आकर योनि-मुख बंद कर दे, तो उसे कील कहते हैं। से या सरकार धोका थोता होता है। यदि एक हाथ, एक पैर और माया भर बाहर निकले और | विशेष-आयुर्वेद के अनुसार यह रोग अधिक व्यापाम करने, बाकी देह रूकी रहे, तो उसे प्रतिपुर कहते हैं। यदि एक तीव औषध सेवन करने, बहुत तेज बोरे पर बढ़ने, हाथ और माथा निकले, सो पीजक कहलाता है और यदि बहुत ससा अझ खाने, अधिक मथ सेक्स करने तथा भ्रूण डे की तरह आकर अदे, तो वह गर्भ परिच कालासा अजीर्ण रहने से होता है। मूल्छु भाल प्रकार का कहा है। इसमें प्राय: शल्य चिकित्सा की जाती है। गया है-वातज, पित्तज, कान, सासिपातिक, शल्यज, मूढ़ता-संशा स्री० [सं० } मर्खता । अज्ञान । देवकी। उ० पुरीषज, एका और अगरीजावास में सि.और वस्ति गोमूत्र पोधियों महिषमूत्रकिया