पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर भाग ५.pdf/५०६

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भूक्षय मूरलताई में बहुत पीड़ा होती है और मूत्र थोबा पोषा भाता है। वायु वस्ति का मुख रोक देती है। (४) मूत्रातीत, जिसमें पित्तज में पीला या लाल पेशाब पीडा और जलन के साथ बार बार पेशाब लगता और थोड़ा योषा होता है। (५) मूत्र- उतरता है । कफज में वस्ति और शिभ में सूजन होती है अठर, जिसमें मूत्र का प्रवाह रुकने से अधोवायु कुपित और पेशाब कुछ साग लिए होता है। सामिपातिक में वायु होकर नाभि के नीचे पीया उत्पन्न करती है। (६) मूत्रोसंग, के सब उपद्रव दिखाई देते हैं और यह बहुत कसाध्य जिसमें उतरा हुआ पेशाब वायु की अधिकता से मूत्रनाल होता है। शल्यज मूत्र-गली में कोटे आदि के द्वारा घाव हो या वस्ति में एक बार रुक जाता है और फिर बड़े वेग के जाने से होता है और इसमें वातज के से लक्षण देखे जाते साथ कभी कभी रक्त लिए हुए निकलता है। (७) मूत्रक्षय, हैं। पुरीषज में मल-रोध होता है और बात की पीड़ा के जिसमें खुश्की के कारण वायु-पित्त के योग से दाह होता है साथ पेशाप भी एक रुककर आता है। शुक्रज शुक-दोष से और मूष सूख सा जाता है। (6) मूत्रप्रथि, जिसमें वस्ति- होता है और इसके पेशाब में धीर्म मिला आता है और पीका मुख के भीतर पयरी की तरह गाँठ सी हो जाती है और भी बहुत होती है। अश्मरीज, अश्मरी या पथरी होने से पेशाब करने में बहुत कष्ट होता है। (९) मूत्रशुक्र, जिसमें इस होता है और मूत्र बहुत कष्ट से उत्तरता है । सुश्रुत के मत से मूत्र के साथ अथवा आगे पीछे शुक्र भी निकलता है। (10) शर्कराजन्य मूत्रकृष्छ भी कई प्रकार का होता है। शर्करा उच्णयात, जिसमें व्यायाम या अधिक परिश्रम करने, और भी एक प्रकार की अश्मरी ही है। गरमी या धूप सहने से पित्त कुपित होकर वस्तिदेश में वायु मुत्रक्षय-संज्ञा पुं० [सं०] मूत्राघात रोग का एक भेद । से भावृत हो जाता है। इसमें दाह होता है और मूत्र हलदी मुत्रप्रथि-संज्ञा पुं० [सं०] मूत्राघात रोग का एक भेद । की तरह पीला और कभी कभी रक्त मिला आता है। इसे मूत्रग्रह-संशा पुं० [सं०] घोड़ों का मूत्रसंग रोग जिसमें झाग 'कडक' कहते हैं। (११) पिसज मूत्रोकसाद, जिसमें पेशाब लिए थोड़ा थोड़ा पेशाब आता है। कुछ जलन के साथ गादा गाढ़ा होकर निकलता है और मूत्रजठर-संज्ञा पुं० [सं०] मूत्राघात से उत्पन्न एक दोष। सूखने पर गोरोचन के चूर्ण की तरह हो जाता है। और मूत्रदशक-संज्ञा पुं० [सं०] हाथी, मेड़ा, ऊँट, गाय, बकरा, धोका, (१२) कफज मूत्रौकसाद जिसमें सफेद और लुआबदार भैंसा, गदहा, मनुष्य और वी इन दश के मूत्रों का समूह ।। पेशाब कष्ट से निकलता है। मूत्रपतन-संज्ञा पुं॰ [सं०] (1) मूब गिरना । (२) गंध मार्जार। मत्राशय-संज्ञा पुं० [सं०] नाभि के नीचे का वह स्थान जिसमें गंधविलाव। मूत्र संचित रहता है। ममाना । फुकना । मूत्रप्रसेक-संज्ञा पुं० [सं०] मूत्रनाली । मूत्रासाद-संवा पुं० [सं०] मूत्रौकसाद नामक मूत्रापात रोग। मुत्रफला-संज्ञा स्त्री० [सं०] ककड़ी। मुत्रिका-संशा स्त्री० [सं०] सालको वृक्ष । सलई का पेर। मुत्ररोध-संज्ञा पुं॰ [सं०] एकबारगी पेशाब रुक जाने का रोग। मूना-संज्ञा पुं० [देश॰] (१) पीतल वा लोहे की अफुसी जो टेकुए मूत्रला-वि० [सं०] पेशाथ लानेवाली । (ओषधि) के सिरे पर जड़ी रहती है और जिसमें रस्सी या डोरा फैसा ___संज्ञा स्त्री० ककड़ी। रहता है। (२) एक झाड़ी जिसके फल बेर के समान मूत्रविज्ञाम-संशा पुं० [सं०] मूत्र-परीक्षा पर आयुर्वेद का एक सुदर सुंदर होते हैं। ग्रंथ जो जानुकर्ण ऋषि का बनाया हुआ कहा जाता है। +क्रि० अ० [सं० मृत, प्रा० मुअ+ना (प्रत्य॰)] मरना । इसमें मूत्र-परीक्षा करने की अनेक प्रणालियों का सविस्तर वि० ० "मुवमा"। वर्णन है। चरक, सुभुत आदि में इस विषय का विशेष मुर*-संा पुं० [सं० मूल ] (७) मूल । अब। (२) जदी। विवेचन नहीं है। इससे नहीं कहा जा सकता कि यह ग्रंथ (३) मूलधन । असल । उ०—(क) दरस मूर देतो नहीं कहाँ तक प्राचीन है। जौ लौ मीत चुकाय । बिरह ग्याज वाको अरे नितह बादत मुत्राघात-संशा पुं० [सं० ] पेशाब बंद होने का रोग । मूत्र का जायसनिधि । (ख) कोई चले लाम सों को मूर गॅवाय । रूक जाना।


जापसी। (ग) चल्यो बमिक जिमि मूर गॅवाई। गुलसी।

विशेष-वैयक में यह रोग बारह प्रकार का कहा गया है- मुरख* -वि० दे० "मूर्ख"। (1) वातकुडली, जिसमें वायु कुपित होकर पतिदेश में मुरखवाई-संशा स्त्री० [सं० मूर्खता+ (प्रत्य॰)] मूर्खता । कुंडली के आकार में टिक जाती है, जिससे पेशाबबंद हो अशता। नासमझी। नादानी। उ.--(क) यौँ पछितात जाता है। (२) पाताडीला, जिसमें वायु मूत्रद्वारा या वम्ति कछु पदमाकर कासों कहौं निज मूरखताई।पनाकर । देश में गाँठ या गोळे के आकार में होकर पेशाब रोकती है। (ख) स्यौं वे सब बेदना खेद पीदा दुखदाई। जिन (३) वासवस्ति, जो मूल के वेग के साथ ही वस्ति की। बल्सीससि सदा धर्मडहि मूरखताई।-श्रीधर पाठक । ७००