पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर भाग ५.pdf/५०७

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मूरचा मूर्छा मुरचा-संशा पुं० दे. "मोरचा"। (क) सुर नाद ग्राम नृत्यति सताल । मुख वर्ग विविध मुरछना*-संझा स्त्री० दे० "मूर्छना" । उ०—(क) पंचम नाद आलाप काल । बहु कला जाति मूर्छना मानि । बढ़ भाग निखादहि में सुर मूरछना गन ग्राम सुभावनि । -देव ।। गमक गुन बलत जानि ।-केशव । (ख) सुर मूर्छना प्राम (ख) मूरछना उघट उत वे इत मो हिय मूरछना सरसानी। लै ताला । गावत कृष्ण-चरित सब काला ।--रघुराज । ---गुमान। विशेष-ग्राम के सातवें भाग का नाम मूर्छना है। भरत संज्ञा स्त्री० दे० "मुछा"। के मत से गाते समय गले को कॅपाने से ही मूर्छना होती क्रि० अ० मूर्छित होना । बेहोश होना। है; और किसी किसी का मत है कि स्वर के सूक्ष्म विराम मुरछा* -संज्ञा स्त्री० दे० "मूछो", उ.-दिन दिन तनु को ही मुर्छना कहते हैं। तीन प्राम होने के कारण २१ तनुता गही लही मूरछा तापु । पिक द्विज ये बोलत न मूछनाएँ होती है जिनका ब्योरा इस प्रकार है- जनु विरहिनि देत सरापु ।-गुमान । पहज प्राम की मध्यम ग्राम की गांधार प्राम की मूरत, मुरति* --संज्ञा स्त्री० दे. "मूर्ति"। ललिता पंचमा रौद्री मुरतिवंत*-वि० [सं० मूर्ति+वत् (प्रत्य॰)] मूर्तिमान् ।। मध्यमा मत्सरी ब्राह्मी देहधारी। सशरीर । 30--रिधिन गीरि देखी तह कैसी। चित्रा मृदुमध्या वैष्णवी मूरतिवंत तपस्या जैसी।-तुलसी। रोहिणी खेदरी मरध-संशा पुं० दे० "मूर्र"। उ०--(क) कीन्हे बाहु ऊरध को मतंगजा अंता मूरध के खोले केश, लेश ना दया को ताको कोपहि को सौवीरी कलावती नादावती भारा है। रघुराज । (ख) मूरथ उरधपुंडू दिये अघ पडमध्या तीमा विशाला झुंड छीन कर । -गोपाल । अन्य मत ले मूर्छनाओं के नाम इस प्रकार हैं--- मुग-संज्ञा पुं० [सं० मूल ] मूली । उसरमुद्रा सौवीरी नंदा मूरि*-संज्ञा स्त्री० [सं० मूल ] (1) मूल । जब। (२) जड़ी। रजनी हरिणाचा विशाला बूटी । वनस्पति । जैसे, जीवनमूरि । उ०-सूरदाय उत्तरायणी कपोलनता सोमपी प्रभु दिन क्यों जीवों जात सजीवनभूरि ।-सूर। शुद्ध षडजा शुन्हमध्या विचित्रा मुरी-संज्ञा स्त्री० दे. "मूली"। मत्सरीक्रांता मार्गी रोहिणी मुरुख* :-वि० दे० "मूर्ख"। अश्वकांता पौरवी सुखा मूर्ख-वि० [सं०] बेवकूफ । अज्ञ । मूढ । नादान । नासमझ । | अभिरुता मंदाकिनी अलापी लंह। अपद । जाहिल। मुच्छा-संशा स्त्री० [सं०] (1) प्राणी की वह अवस्था जिसमें ___ संज्ञा पुं० (1) उर्द। (२) बनमूंग । उसे किसी बात का ज्ञान नहीं रहता, वह निश्चेष्ट पड़ा मुर्खता-संज्ञा स्त्री० [सं०] अज्ञता । मूढता । नासमझी। बेवकूफी। रहता है। संज्ञा का लोप । अचेत होना । बेहोशी 1 उ.- मुर्खत्व-संज्ञा पुं० [सं०] नादानी । नासमझी । बेवकूफी । अज्ञता। गह मुर्छा तब भूपति जागे । बोलि सुमंत कहन अस मुखिनी*-संज्ञा स्त्री० [सं० मूर्ख ] मूदा स्त्री। बे-समझ औरत । लागे ।-तुलसी। उ.--लै ओदन तिय को दिखरायो । कयौ मुर्खिनी कह क्रि० प्र०-आना । -खाकर गिरना । —होना । ते आयो।-रघुराज । विशेष-आयुर्वेद में मूछी रोग के ये कारण कहे गए है- मुर्खिमा-संज्ञा स्त्री० [सं० ] मूर्खता । जड़ता । बेवकूफ़ी। विरुद्ध वस्तु का खा जाना, मल-मूत्र का बंग रोकना, अन- मुर्छन-संज्ञा पुं० [सं०] (1) संशा लोप होना या करना । बेहोश शम से सिर आदि ममें स्थानों में चोट लगना अथवा सच करना । (२) मूर्छित करने का मंत्र वा प्रयोग । गुण का स्वभावतः कम होना। इन्हीं सब कारणों से वातादि उ०-आज ही राज काज करि आऊँ। बेगि संहारौ सकल दोष मनोधिष्ठान में प्रविष्ट होकर अथवा जिन नाबियों द्वारा घोष शिशु जो मुख आयसु पाऊँ । तौ मोहन मूर्छन इंद्रियों और मन का व्यापार चलता है, उनमें अधिष्ठित वशीकरन पदि अगित देह बढ़ाऊँ ।--सूर । (३) पारे का होकर समोगुण की दृद्धि करके मूळ उत्पन्न करते हैं। तीसरा संस्कार जिसमें युष्ण त्रिफलादि में सात दिन तक ___मूछी आने के पहले शैथिल्य होता है, जभाई आती है भावना दी जाती है। (४) कामदेव का एक वाण । और कभी कभी सिर या हृदय में पीया भी जान पड़ती है। मुच्छना-संज्ञा स्त्री० [सं०] संगीत में एक ग्राम से दूसरे ग्राम मूळ रोग सात प्रकार का कहा गया है-वातज, पित्तज, सफ जाने में सातो स्वरों का आरोह-अवरोह । उ.- कफज, समिपातज, रक्तज, मद्यज और विषज । वातज