पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर भाग ५.pdf/५०८

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मूर्छित २७९९ मूर्धाभिषेक लास! मूछों में रोगी को पहले आकाश नीला या काला दिखाई | मूर्तिकार-संज्ञा पुं० [सं० } (8) मूर्ति बनानेवाला । (२) तस- पड़ने लगता है और वह बेहोश हो जाता है। पर थोड़ी | वीर बनानेवाला । मुसौवर । ही देर में होश में आ जाता है। इसमें कंप और अंग में मूर्तिप-संशा पुं० [सं०] पुजारी । पीड़ा भी होती है और शरीर भी बहुत दुधल और काला मूर्तिपूजक-संज्ञा पुं० [सं०] वह जो मूर्ति या प्रतिमा की पूजन हो जाता है। पित्तज मुळ में बेहोशी के पहले आकाश करता हो। मूर्ति पूजनेवाला । लाल, पीला या हरा दिखाई पड़ता है और मूर्छा छूटते | मूर्तिपूजा-संज्ञा स्त्री० [सं०] मूर्ति में ईश्वर या देवता की समय आँखें लाल हो जाती हैं, शरीर में गरमी मालूम भावना करके उसकी पूजा करना। होती है, प्यास लगती है और शरीर पीला पड़ जाता है। मूर्तिमान-वि० [सं० ) [ स्त्री० मृत्तिमत। ] (१) जो रूप श्लेष्मज मूछों में रोगी स्वछ आकाश को भी बादलों से धारण किए हो। स-शरीर । (२) साक्षात् । गोचर । ढका और अंधेरा देखते देखते बेहोश हो जाता है और बहुत देर ! प्रत्यक्ष । में होश में आता है। मच्छी छूटते समय शरीर वीला और मूर्तिविद्या-संज्ञा स्त्री० [सं०] (१) प्रतिमा गढ़ने की कला । भारी मालूम होता है और पेशाब तथा वमन की इच्छा होती | (२) चित्रकारी। है। सजिपातज में उपर्युक्त तीनों लक्षण मिले जुले प्रकट | मूर्द्ध-संज्ञा पुं० [सं० मूर्द्धन् ] मस्तक । सिर । होते हैं और मिरगी के रोगी की तरह रोगी जमीन पर अक- | मूद्धक-संज्ञा पुं० [सं०] क्षत्रिय । स्मात् गिर पड़ता है और बहुत देर में होश में आता है। मूद्धकर्णी-संशा खी० [सं०] छाता था और कोई वस्तु (जैसे, मिरगी से भेद इतना होता है कि इसमें मुँह से फेन नहीं. टोकरा ) जो धूप, पानी आदि से बचने के लिये सिर पर भाता और दाँत नहीं बैठते। रक्तज मुर्छा में अंग ठक और रखा जाय। रष्टि स्थिर सी हो जाती है और साँस साफ चलती नहीं। मूद्धकपारी*-संज्ञा स्त्री० दे. "मूर्द्धकर्णी"। दिखाई देती। मधज मपी में रोगी हाथ-पैर मारता और | मूर्द्धखोल-संशा पुं० दे. "मूर्द्धकर्णी"। अनाप-शनाप थकता हुआ भूमि पर गिर पड़ता है। विषज | मूर्द्धज-वि० [सं०] सिर से उत्पन्न होनेवाला । मूछों में कंप, प्यास और झपकी मालूम होती है तथा संक्षा पु. केश । पाल । जैसा विष हो, उसके अनुसार और भी लक्षण देखे जाते हैं। मूर्द्धज्योति-संज्ञा स्त्री० [सं० मूर्द्धज्योतिम ] ब्रह्मरंध्र । ( योग) मूर्छित, मूच्छित-वि० [सं०] (1) जिसे मळ आई हो। मूर्धन्य-वि० [सं०] (1) मूर्खा से संबंध रखनेवाला । मर्दा- बेसुध । बेहोश । अचेत । उ०—(क) सुनत गदाधर भट्ट संबंधी। (२) सिर या मस्तक में स्थित । तहाँही । मर्छित गिरत भये महिमाहीं।-रघुराज । (ख) मूद्धन्य वर्ण-संज्ञा पुं० [सं०] वे वर्ण जिनका उच्चारण मर्दा से यह सुन कंस मूर्छित हो गिरा। लल्लूलाल। (२) मारा होता है। हुआ (पारे आदि धातुओं के लिये ) । (३) वृद्ध । (४) विशेष-मूर्धन्य वर्ण ये है-, ऋ, ट, ठ, ड, ढ, ण, र व्यास। और पा मुर्त-वि० [सं०] (1) जिसका कुछ रूप या आकार हो। साकार। मूर्धन्वान्-संज्ञा पुं० [सं०] (1) एक गंधर्व का नाम । (२) विशेष-नैयायिकों के मत से पृथ्वी, जल, तेज, वायु और | वामदेव ऋषि जो ऋग्वेद के दशम मंडल के अष्टम सूक्त के मन मूर्त पदार्थ हैं। इनके गुण रूप, रस, गंध, स्पर्श, परस्त्र, | द्रष्टा थे। अपरत्व, गुरुत्व, स्नेह और वेग है। मूर्द्धपिंड-संशा पुं० [सं०] गजकुंभ । हाथी का मरतक। (२) फठिन । ठोस । (३) मूर्छित । मृर्द्धपुष्प-संज्ञा पुं० [सं० ] शिरीष पुष्प । मूर्तता-संज्ञा स्त्री० [सं०] मूर्त होने का भाव । मूर्द्धरस-संज्ञा पुं० [सं०] भात का फेन । मूर्ति-संज्ञा स्त्री० [सं०] (१) कठिनता । ठोसपन । (२) शरीर। मूर्द्धा-संज्ञा पुं० [सं० मूर्धन् ] मस्तक । सिर । देह । (३) आकृति । शकल । स्वरूप । सूरत । जैसे,—उस | मूर्दाभिषिक्त-वि० [सं० } जिसके सिर पर अभिषेक किया मनुष्य की भयंकर मूर्ति देखकर वहर गया। (१) किसी गया हो। के रूप या आकृति के सरश गढ़ी हुई वस्तु । प्रतिमा । विग्रह । संशा पुं० (७) क्षत्रिय । (२) राजा । (३) एक मिश्र जाति जैसे, कृष्ण की मूर्ति, देवी की मूर्ति । जिसकी उत्पत्ति माह्मण से विवाही क्षत्रिय स्त्री के गर्भ से मुहा०--मुसि के समान ठक । स्तब्ध । निश्चल । कही गई है। इस जाति की वृत्ति हाथी, घोड़े और रथ को (५) रंग या रेखा-द्वारा बनी हुई आकृति। चित्र । तसवीर । शिक्षा तथा शस्त्र-धारण है। (१) ब्रह्म सावर्णि के एक पुत्र का नाम । मूर्धाभिषेक-संज्ञा पुं० [सं०] सिर पर अभिषेक या जलसिंचन