पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर भाग ५.pdf/५०९

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मूर्वा २८०० मूलत्रिकोण होना ( जैसा कि राजाओं के गद्दी पर बैठने के समय । विशेष—स नक्षत्र के अधिपति निर्मति है इसमें नौ तारे होता है)। है जिनकी आकृति मिलकर सिंह की पूँछ के समान होती मुर्वा-संज्ञा स्त्री० [सं०] मरोडफली नाम की लता जो हिमालय है। यह अधोमुख मक्षत्र है। फलित के अनुसार इस नक्षत्र के उत्तराखंड को छोर भारतवर्ष में और सब जगह होती है। में जन्म लेनेवाला वृद्धावस्था में दरिद्र, शरीर से पीड़ित, विशेष—इसमें सात आठ बटल निकलकर इधर उधर लता कलानुरागी, मातृपितृहता और आत्मीय लोगों का उपकार की तरह फैलते हैं। फूल छोटे छोटे, हरापन लिए सफेद रंग करनेवाला होता है। के होते हैं। इसके रेशे बहुत मजबूत होते हैं जिससे प्राचीन (10) निकुंज । (११) पास । समीप । (१२) सूरन । काल में उन्हें बटकर धनुष की डोरी बनाते थे। उपनयम जिमीकंद । (१३) पिप्पली मूल । (१४) पुष्करमूल । (१५) में क्षत्रिय लोग मूर्वा की मेखला धारण करते थे। एक दुर्ग राष्ट्र। (१६) किसी देवता का आदि मंत्र या वीज । मन पसियों से आध सेर के लगभग सूखा रेशा निकलता वि० [सं०] मुख्य । प्रधान । वास । उ०—स्याउ मूल है, जिसमे कहीं कहीं जाल बुने जाते हैं। विचिनापल्ली में घल बोलि हमारी सोई सैन्य हजूरी । पर चर दौरि बोलि मूर्वा के रेशों से बहुत अच्छा काग़ज़ बनता है। ये रेशे ल्याये छत सैन्य भयंकर भूरी।--रघुराज । रेशम की तरह चमकीले और सफेद होते हैं। मूर्वा की जड़ मूलक-संज्ञा पुं० [सं०] (१) मूली । उ०-(क) काँचे घट जिमि औषध के काम में भी आती है। वैद्य लोग इसे यक्ष्मा और डाउँ फोरी । सकउँ मेरु मूलक इव तोरी ।-तुलसी । खाँसी में देते हैं। आयुर्वेद में यह अति तिक्त, कसैली, (ख) जिनके वसन करालक फूटे । उर लागत मूलक इव उष्ण तथा द्रोग, कफ, वात, प्रमेह, कुष्ट और विषम ज्वर टूटे।-तुलसी । (२) चौतिस प्रकार के स्थावर विषों में को दूर करनेवाली मानी जाती है। से एक प्रकार का विष । (३) मूल स्वरूप । पर्या--देवी। मधुरसा। मोरटा । तेजनी । स्वा । मधु वि० उत्पन्न करनेवाला । जनक । जैसे,—अनर्थमूलक । लिका । धनुःश्रेणी । गोकर्णी । पीलुकी। सवा । मूर्वी। मूलकपर्णी-संज्ञा स्त्री० [सं० ] शोभांजन । सहिजन का पेड़। मधुश्रेणी । सुसंगिका । पृथकत्वया । दिव्यलता । गोपवल्ली। मूलकम-संज्ञा पुं॰ [सं० मूलकर्मन् ] (1)वासन, उच्चाटन, स्तंभन ज्वलिनी। वशीकरण आदि का वह प्रयोग जो ओषधियों के मूल मूविका-संथा स्त्री० [सं०] मूर्वा । (जी) द्वारा किया जाता है। मूठ । टोना । टोटका । मुल-संशा पुं० [सं०] (1) पेड़ों का वह भाग जो पृथ्वी के नीचे | विशेष-मनु ने इसे उपपातकों में गिना है। रहता है। जब। उ०-एहि आसा भटक्यो रहै अलि (२) प्रधान फर्म । गुलाब के मूल। बिहारी । (२) खाने योग्य मोटी मीठी | विशेष पूजा आदि में कुछ कर्म प्रधान होते हैं और कुछ अंग। जब। कंद। उ०-संबत सहस मूल फल खाए । साक | मूलकारिका-संज्ञा स्त्री० [सं०] (1) मूल ग्रंथ के पच । (२) खाइ सत वर्ष गवाए।-तुलसी। मूल धन की एक विशेष प्रकार की वृद्धि । (३) चंदी। यौ०-कंद मूल । ! मूलकृच्छ-संज्ञा पुं० [सं०] स्मृतियों में वर्णित ग्यारह प्रकार के (३) आदि। आरंभ। शुरू। उ०—(क) उमा संभु | पर्णकृच्छ वातों में से एक प्रत जिसमें मूली आदि कुछ विशेष सीतारमन जो मोपर अनुकूल । तौ बरनौं सो होइ फुर अंत जड़ों के काथ था रस को पीकर एक मास व्यतीत करना मध्य अरु मूल |--विश्राम । (ख) सेतु मुल सिव सोभिजे पड़ता था। ( मिताक्षरा) केसव परम प्रकास । केशव । (४) आदि कारण । उत्पत्ति मूलकेशर-संज्ञा पुं० [सं०] नीघू। का हेतु । उ.-करम को मूल तन, तन मूल जीव जग, मूलखानक-संज्ञा पुं० [सं०] एक प्राचीन वर्णसंकर जाति जो जीवन को मूल अति आनंद ही धरिचो । पचाकर। पेड़ों की जड़ खोदकर जीविका निर्वाह करती थी। (५) असल जमा या धन जो किसी व्यवहार या व्यवसाय | मूल ग्रंथ-संज्ञा पुं० सं०] असल ग्रंथ जिसका भाषांतर, टीका में लगाया जाय । असल । पूंजी । उ०-और पनिज में आदि की गई हो। नाही लाहा, होत मूल में हानि ।-सूर । (६) किसी मलम्छेद-संज्ञा पुं० [सं०] (1) जब से नाश । (२) पूर्ण नाश । वस्तु के आरंभ का भाग। शुरू का हिस्सा । जैसे, मलज-संज्ञा पुं० [सं०] अदरक । भुजमूल । (७) नी । अनियाद । (4)यकार का निज | मूलत्रिकोण-संज्ञा पुं॰ [सं०] सूर्य आदि ग्रहों की कुछ विशेष का वाक्य या लेख जिस पर टीका आदि की जाय । राशियों में स्थिति । ग्रह जब मूलत्रिकोण में रहते हैं, तब जैसे, इस संग्रह में रामायण मूल और टीका दोनों है।। मध्यम बल के माने जाते हैं। (९) सप्ताईस नक्षत्रों में से उन्नीसों नक्षत्र। विशेष---रविका मूलत्रिकोण सिंह राशि, चंद्रका पुष, मंगल