पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर भाग ५.pdf/५१२

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मूसा २८०३ जाती है। यह पौधा सीद की ज़मीन में उगता है और (३) हाथियों की एक जाति जिसकी आँखें कुछ बड़ी होती नदियों के कछारों में भी पाया जाता है। बिलासपुर जिले में हैं और गंडस्थल पर सफ़ेद चिह्न होता है। (४) मार्गशीर्ष । अमरकंटक पहाड़ पर नर्मदा के किनारे यह बहुत मिलता है। अगहन का महीना । (५) मृगशिरा नक्षत्र । (६) एक यज्ञ मूसा-संशा पुं० [सं० मूपक ] चूहा। का नाम । (७) मकर राशि। (4) अन्वेषण | खोज । (५) संशा पुं० [ इबरानी ] यहूदी लोगों के एक पैगंबर जिनको कस्तूरी का नाफा । (१०) ज्योतिष में शुक्र की नौ वीथियों खुदा का नूर दिखाई पड़ा था। किनावी या पैगंबरी मतों में से आठवीं दीथी जो अनुराधा, ज्येष्ठा और मूल में परती का आदि प्रवर्सक इन्हीं को समझना चाहिए। है। (११) पुरुष के चार भेदों में से एक । ( मृग जाति का मुसाकानी-संज्ञा स्त्री० [सं० मूषाकी ] एक प्रकार की लता जो पुरुष मधुरभाषी, बड़ी आंग्वोंवाला, भीरु, चपल, सुन्दर प्रायः सारे भारत की गीली भूमि में चौमासे में पाई। और तेज चलनेवाला होता है। यह चित्रिणी स्त्री के लिए उप- जाती है। इसकी पत्तियाँ आकार में गोल और प्राय: आध युक्त कहा गया है)। (१२) वैष्णवों के तिलक का एक भेद । से डेढ़ इंच तक की होती है, जो देखने में चूहे के कान के मृगधर्मज-संज्ञा पुं० [सं०] (1) कस्तूरी का नाफ़ा । (२) जवादि समान, बीच में कमानदार और रोएँदार होती है। इसकी नामक गंधद्रव्य । शाखाएँ बहुत धनी होती है और इसकी गाँठों में से जद मृगचर्म-संज्ञा पं० [सं०] हिरन का चमड़ा जो पवित्र माना निकलकर जमीन में जम जाती है। इसमें बैंगनी या गुलाबी जाता है इसका व्यवहार उपनयन संस्कार में होता है और रंग के छोटे छोटे फूल और चने के समान गोल फल लगते इसे साधु-संन्यासी विष्ठाते हैं। हैं, जो पहले हरे अथवा बैंगनी रंग के और पकने पर भूरे मृगचेटक-संज्ञा पुं० [सं० ] गंधबिलाव । मुश्क बिलाव । खट्टास। रंग के हो जाते हैं। ये फल चीरने पर दो दलों में विभक्त : मृगछाला-संज्ञा स्त्री० [सं० गूग+हिं० छाला | मृगचर्म । हो जाते है और प्रत्येक दल में से एक बीज निकलता है। मृगजरस-संज्ञा पुं० [सं० ] एक रमौषध जिसका व्यवहार रक्तपित्त इसके प्रायः सभी अंग ओषधि के रूप में काम में आते हैं। में होता है। विशेषत: चूहे के विष को दूर करने के लिए इसे लगाया: विशेष-शोधा हुआ पारा और मृत्तिका लवण (लोनी) बासे और इसका काढ़ा पीया जाता है। वैठक में यह चरपरी, के रस में एक दिन तक घोटने से यह तैयार होता है। कड़वी, कसैली, शीतल, हलकी, दस्तावर, रसायन तथा मृगजल-संज्ञा पुं० [सं०] मृगतृष्णा की लहरें। उ०-(क) सुधा कफ, पित्त, कृमि, शूल, ज्वर, ग्रंथि, सूजाक, प्रमेह, पांडु, समुद्र समीप बिहाई। मृगजल. निरखि मरहु कत धाई।- भगंदर और कोढ़ आदि रोगों को दूर करनेवाली मानी तुलसी । (ख) नृपा जाइ बरु मृगजल पाना । बरु जामहि जाती है। मूत्र रोग, उदर रोग, हृदय रोग आदि में भी सस सीस थिपाना ।—तुलसी। इसका व्यवहार होता है और यह रक्त शोधक भी होती मृगजा-संज्ञा पुं० [सं० ] कस्तूरी। है। यह बड़ी और छोटी दो प्रकार की होती है। इसके 'मृगजभ-संज्ञा स्त्री० [सं०] खोए या चोरी गए हुए धन की खोज । अतिरिक्त इसके और भी कई भेद होते हैं, जिनमें से मृगतृषा, मृगतृष्णा-संशा स्त्री० [सं०] जल वा जल, की लहरों एक भेद के पत्ते गोभी के पत्तों की तरह लंबे और किनारे की वह मिथ्या प्रतीति जो कभी कभी ऊपर मैदानों में कदी पर कटावदार होते हैं। एक और भेद क्षुप जाति का होता धूप पड़ने के समय होती है। मृगमरीचिका । है, जो एक से चार फुट तक ऊँचा होता है। इसका डंठल विशेषगरमी के दिनों में जब वायु की नहों का घनत्व पोला होता है, जिसमें से बहुत सी शाखाएं निकलती है। उष्णता के कारण असमान होता है, तब पृथ्वी के निकट की इन सब का व्यवहार पथरी के समान होता है। इसे चूहा वायु अधिक उष्ण होकर उपर को उठना चाहती है; परंतु कानी भी कहते हैं। ऊपर की तह उसे उठने नहीं देतीं, इससे उस वायु की प-o-आसुकर्णी । द्रवंती। मूषिकपर्णी । मषिकाहृदा।: लहरें पृथ्वी के समानांतर बहने लगती हैं। यही लहरें दर से उदरकर्णी । देखने में जल की धारा सी दिखाई देती हैं। मृग इससे प्राय: मृकंडु-संशा पुं० [सं०] एक मुनि, जिनके पुत्र मार्कंडेय ऋषि थे। धोग्वा स्वाते हैं। इससे इसे मृगतृष्णा, मृगजल आदि कहते है मृग-संज्ञा पुं० [सं०] [स्त्री० मृगी ] (1) पशुमात्र, विशेषतः बन्य मृगतृष्णिका-संशा स्त्री० दे० "मृगतृष्णा" । पशु । जंगली जानवर । (२) हिरन । मृगदंशक-संज्ञा पुं० [सं०] कुत्ता। विशेष-मृग नौ प्रकार के कहे गये है-मसूरु, रोहित, न्यंक, मृगदाव-संज्ञा पुं० [सं० मृग-+-दाव-भूगों का वन ) (1) वह बन संबर, बभ्रुण, रूरू, शश, एण और हरिण । वि.दे. जिसमें बहुत मृगगहों। (२) काशी के पास 'सारनाथ' "हिरन"। नामक स्थान का प्राचीन नाम ।