पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर भाग ५.pdf/५२०

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मेढ़ा २८११ मेधा मछली" भी कहते हैं। धीरे धीरे कायाकल्प करता हुआ वह विशेष-सुश्रुत के अनुसार मेद मांस से उत्पन्न धातु है जिससे उभयचारी जंतु का रूप प्राप्त करता है और जालीदार पंजों : अम्थि बनती है। भावप्रकाश आदि वैधक ग्रंथों में लिग्दा ये युक्त पैरवाला, फेफड़े से साँस लेनेवाला और कीड़े-पतिंगे है कि जब शरीर के अंदर की स्वाभाविक अग्नि मे मांस का खानेवाला मेढक हो जाता है। परिपाक होता है, तब मेद अनता है। इसके इकट्ठा होने का मेढ़ा--मंशा पुं० [सं० मेट 1 [ली. भेड़ ] सींगवाला एक चौपाया स्थान उदर कहा गया है। जो लगभग डेढ़ हाथ ऊँचा और घने रोयों से ढका होता है। (२) मोटाई या चरबी बढ़ने का रोग। (३) कस्तूरी । इन्सका रोयाँ बहुत मुलायम होता है और उन कहलाता है। उ.-(क) रचि रचि साजे चंदन चौरा । पोते अगर मेद इसका माथा और मींग बहुत मजवत होते हैं। ये आपस में औ गौरा ।-जायसी। (ख) कहि केशव मेद जवादि सों बड़े वेग से लड़ते हैं, इसमें बहुत से शौकीन इन्हें लगाने के माजि इते पर आंजे में अंजन दे। केशव । (४) नीलम लिए पालने हैं। मादा भेड़ जितनी ही सीधी होती है, उतने की एफ छाया । ( रखपरीक्षा) (५) एक अंत्यज जानि ही मेढ़े क्रोधी होते हैं। मेरे को एक जाति ऐसी होती है जिसकी उत्पत्ति मनुस्मृति में वदेहिक पुरुष और निषाद जिग्नकी पूँछ में चरथी का इतना अधिक संचय होता है कि स्त्री से कही गई है। वह पकी के पाट की तरह फैलकर चौड़ी हो जाती है। मेदपुच्छ-संज्ञा पुं० [सं०] दुथा मेदा । ऐया मेढ़ा "दुबा" कहलाता है। वि० दे० "भेड़"। मेदा-संज्ञा स्त्री० [सं०] अष्टवर्ग में से एक प्रसिद्ध ओपधि जो मेढ़ासिंगी-संज्ञा स्त्री० [ मंगेशृंगी ] एक झाडीदार लता जो | ज्वर और राजयक्ष्मा में अत्यंत उपकारी कही गई है। मध्य प्रदेश और दक्षिण के जंगलों में तथा बंबई के आस कहते हैं कि इसकी जद अदरक की तरह, पर बहुत सफेद पास बहुत होती है। इसकी जद औषध के काम में आती होती है और नाखून गढ़ाने में उपमें से मेद के समान है और सर्व का विष दूर करने के लिए प्रसिद्ध है । इसकी दूध निकलता है। वैद्यक में यह मधुर, शीतल तथा पित्त, पत्तियाँ चबाने से जीभ देर तक सुन्न रहती है। वैद्यक में दाह, खाँसी, ज्वर और राजयक्ष्मा को दूर करनेवाली कही यह निक, वातवर्द्धक, श्वासकाम्य-वर्द्धक, पाक में रुक्ष, कटु गई है। यह मोरंग की ओर पाई जाती है।। तथा व्रण, श्लेष्मा और आँख के दर्द को दूर करनेवाली संज्ञा पुं० [अ० ] पाकाशय । पेट । कोठा । जैसे, मेदे की मानी जाती है। इसके फल दीपन तथा कास, कृमि, व्रण, शिकायत। विष और कुष्ठ को दूर करनेवाले कहे जाते हैं। महा-मेदा कड़ा होना=आँतों की क्रिया इस प्रकार का होना मेढ़ी-संजा श्री० [सं० वर्णी ] (१) तीन लड़ियों में गूथी हुई कि जल्दी दस्त न हो। मेदा साफ होना-मल शुद्धि होना। चोटी। उ.-.-कटकन चारु, भृकुटिया टेढ़ी मेढ़ी सुभग सुदेस दस्त होने से कोठा साफ होना। सुभाए ।- तुलसी। (२) घोड़ों के माथे पर की एक भौश। मेदिनी-संज्ञा स्त्री० [सं०] (१) मेदा । (२) पृश्वी । धरती । मेढ़-संज्ञा पुं० [सं०] (१) शिश्न । लिंग। (२) मेदा । (पुराणों में मधुकैटभ के मेद से पृथ्वी की उत्पत्ति कही गई मेथिका-संज्ञा स्त्री० [सं०] मेथी। है, इसी से यह नाम पड़ा है।) मेथी-संज्ञा पी० [i0) एक छोटा पौधा जो भारतवर्ष में प्रायः | मेदुर-वि० [सं०] चिकना । स्निग्ध । सर्वत्र होता है और जिसकी पत्तियाँ कुछ गोल होती है और मेदोज-संज्ञा पुं० [सं०] हड्डी । अस्थि । साग की तरह खाई जाती है। इसकी फलियों के दाने | मेदधरा-संज्ञा स्त्री० [सं०] शरीर की तीसरी कला या मिली मसाले और औषध के काम में आते हैं और देखने में कुछ | जिसमें मेद या चरबी रहती है। चोटे होते हैं। इसकी फसल जाड़े में तैयार होती है।। मेदोर्षद-संज्ञा पुं० [सं०] (१) मेदयुक्त गाँठ या गिल्टी जिसमें वैद्यक में इसका गुण कटु, उष्ण, अरुचिनाशक, दीसिकारक, पीदा हो। (२) ओठ का एक रोग।। वातघ्न तथा रक्त-पित्त-प्रकोपन माना गया है। मेदोवृद्धि-संज्ञा स्त्री० [सं०] (१) चरबी का बढ़ना । मोटाई। पर्या--दीपनी । बहुमूत्रिका | गंधबीजा। ज्योति । गंधफला। | (२) अवृद्धि। वल्लरी। चंद्रिका । मथा। मिश्रपुष्पा । कैरवी । बहुपर्णी। मेध-संशा पुं० [सं०] (१) यज्ञ। (२) हवि । (३) यज्ञ में पीतत्रीजा। बलि दिया जानेवाला पशु। मेथौरी-संज्ञा स्त्री० [हिं० मेथी+बरी ] मेथी का साग मिलाकर ! मेधज-संज्ञा पुं० [सं०] विष्णु। बनाई हुई उर्द की पीठी की बरी। मेधा-संज्ञा स्त्री० [सं०] (1) अंत:करण की वह शक्ति जिससे मेद-संज्ञा पुं० [सं० मेदस, मेद ] (1) शरीर के अंदर की वपा जानी, देखी, सुनी या पढ़ी हुई यात मन में बराबर अनी नामक धातु । चरथी। रहती हैं, भूलती नहीं। बात को स्मरण रखने की मानसिक