पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर भाग ५.pdf/५२२

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मेरु २८१३ मेलन संज्ञा स्त्री० अहंकार । उ.--मेरी मिटी मुक्ता भया पाया ब्रह्म शब्द के आगे विभक्ति लगने के कारण प्रास होता है। विस्वास । मेरे दूजा कोउ नहीं एक तुम्हारी आया-कबीर जैसे,—मेरे घर पर आना। मेरु-संज्ञा पुं० [सं०] (1) एक पुराणोक्त पर्वत जो सोने का कहा। मेल-संज्ञा पुं० [मं० ] (1) दो या अधिक वस्तुओं या व्यक्तियों गया है। वि.दे. "सुमेरु"। के इकट्ठा होने का व्यापार अथवा भाव । मिलने की क्रिया पर्या०-हेमाद्रि । रत्नपानु । सुरालय। या भाव । संयोग। समागम । मिलाप । जैसे,—(क) इधर (२) जपमाला के बीच का बड़ा दाना जो और मय दानों के से यह चला, उधर से वह; बीच में दोनों का मेल हो गया। ऊपर होता है। इसी मे जप का आरंभ और इसी पर उस | (ख) इसी स्टेशन पर दोनों पर गाड़ियों का मेल होता है। की समाप्ति होती है। सुमेरु ( जप करते समय 'मेरु' का क्रि०प्र०करना । कराना ।-रखना । —होना । उल्लंघन नहीं करना चाहिए ।) उ.-कविरामाला काठको यौ०-मेल-मिलाप । बहुत जतन का फेरु । माला फेरी सांग की जामें गांठिन (२) एक साथ प्रीतिपूर्वक रहने का भाव । अनबन का न मेरु ।- कबीर । (३) एक विशेष ढाँचे का देवमंदिर । रहना । एकता । सुलह । जैसे,—दोनों भाइयों में बड़ा विशेष—यह षट कोण होता है और इसमें १२ भूमिकाएँ या ! मेल है। खंड होते हैं। अंदर अनेक प्रकार के गवाक्ष ( मोखे ) और यौ०-मेल-जोल। चारों दिशाओं में द्वार होते हैं। इसका विस्तार ३२ हाय । महा-मेल करना=विगंध दूर करना और परस्पर हित-संबंध और ऊँचाई ६४ हाथ होनी चाहिए। (बृहत्संहिता) । स्थापित करना। सुलह करना । संधि करना। मेल होना-झगडा (1) वीणा का एक अंग। (५) पिंगल या छंदःशास्त्र की | मिटना । मुलह होना। एक गणना जिससे यह पता लगता है कि कितने कितने | (३) पारस्परिक घनिष्ट व्यवहार । मैत्री। मित्रता। दोस्ती। लघु गुरु के कितने छंद हो सकते है। प्रीति संबंध । जैम,-उसने अब मेरे शत्रओं में मेल मेरुश्रा-संवा पुं० [सं० मर+आ (प्रत्य॰)] टेत बराबर करने के किया है। पाटे का छोर पर का भाग जिसमें रस्सियाँ बंधी होती है। मुहा०-मेल बढ़ानाधनिष्ट व्यवहार करना । अधिक परिक्य मेरुक-संज्ञा पुं० [सं०] (1) ईशान कोण में स्थित एक देश । और गाय करना । मैत्रः करना । जैसे,—उससे बहुत मेल मत (बृहत्संहिता) (२) यज्ञधूम । धूना । बढ़ाओ, नहीं तो धोखा खाओगे। मेरुकल्प-संज्ञा पुं० [सं०] एक बुद्ध का नाम । (४) अनुकूलता । अनुरूपता । उपयुक्तता । संगति । मेरुदंड-संज्ञा पुं० [सं०] (१) पीठ के बीच की हड्डी रीढ़। (२) सामंजस्य । मुआफिकत । पृथ्वी के दोनों ध्रुवों के बीच गई हुई सीधी कल्पित रेखा। मुहा०--मेल. म्वाना--(१) साथ की ठीक होना । मंगति का उपयुक्त मेरुदेवी-संज्ञा स्त्री० [सं०] मेरु की कन्या और नाभि की पत्नी : होना । पटरी बैठना । साथ निभना । जैसे,-हमारा उनका जो विष्णु के अवतार ऋषभदेव की माता थी। मेल नहीं खा सकता । (२) वस्तुओं की एक साथ स्थिति का मेरुधामा-संज्ञा पुं० [सं० मेरुधामन् ] शिव, महादेव । अच्छा या ठीक होना । दो पीतों का जोड़ ठीक बैठना । जैसे,- मेरुपृष्ठ-संज्ञा पुं० [सं०] (1) आकाश । (२) स्वर्ग। इसका रंग कपड़े के रंग के साथ मेल नहीं खाता है। मेल मेरुभूत-संज्ञा पुं० [सं०] एक जाति का नाम । बैठना दे. "मेल खाना" । मेल मिलना-दे० "मेल बैठना"। मेरुभूतसिंधु-संज्ञा पुं० [सं० ] पह्नव देश का दूसरा नाम । (५) जोदा टक्कर । बरावरी । समता । जैसे,—इसके मेल मेश्यंत्र-संशा पुं० [सं०] (1) चरखा। (२) बीजगणित में । की चीज़ का मिलना तो कठिन है । (६) ढंग। एक प्रकार का चक्र। प्रकार । चाल । तरह । जैम,-इसकी दूकान पर कई मेल, मेरुशिखर-संशा पुं० [सं०] (1) मेरु की चोटी । (२) हठ योग की चीजें है। (७) दो वस्तुओं का एक में होना। मिश्रण । में माने हुए मस्तक के छ: चक्रों में से सब से ऊपर का चक्र। मिलावट । जैसे,---हरा रग नीले और पीले रंगों के मेल इसका स्थान ब्रह्मरंध्र, रंग अवर्णनीय और देवता चिःमय । से बनता है। शक्ति है । इसके दलों की संख्या १०० और दलों का अक्षर | मेलक-सज्ञा पुं० [सं०] (1) संग। सहवास । (२) मेला । ओंकार है। इसे 'सहस्रार' भी कहते हैं। (३) समूह । जमावड़ा । (४) मिलन । समागम । (५) मेरुश्रीगर्भ-संज्ञा पुं० [सं०] एक बोधिसत्व का नाम । वर और कन्या की राशि, नक्षत्र आदि का विवाह के लिए मेरुसावर्ण-संज्ञा पुं० [सं०] ग्यारहवें मनु का नाम । किया जानेवाला मिलान । मेरे-सन० [हिं० मेरा ] (१) 'मेरा' का बहुवचन । जैग्ने,-ये मेलन-संशा पुं० [सं०] (1) एक साथ होना । इकट्ठा होना । आम मेरे हैं। (२) 'मेरा' का वह रूप जो उसे संबंधवान् | मिलन । (२) जमावड़ा । (३) मिलाने की क्रिया या भाव। ७०४