पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर भाग ५.pdf/५३

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बंपुलिस २३४६ यकचंदन बंपलिस-संशा स्त्री० [4 +0 पुलिस ] मलत्याग के लिए कर चोरी को जल में फेंकते हैं और छड़ी को शिकारी म्यूनिसिपैलिटी आदि का बनवाया हुआ वह स्थान जहाँ. पकडे रहता है। जब मछली वह चारा खाने लगती सर्व साधारण बिना रोक टोक जा सके। है तब वह कटिया उसके गले में फंस जाती है और बंध-संज्ञा स्त्री० [ अनु० ] (१) ब ब शब्द । बब, शिव शिव, .. वह खींचकर निकाली जाती है। (३) मागधी मान में हर हर, इत्यादि शब्दों की ऊँधी ध्वनि जो शैव लोग भक्ति ३० परमाणु की तौल । असरेगु । (५) विष्णु, कृष्ण की उमंग में आकर किया करते हैं। (२) युद्धारंभ में वीरों : और राम जी के चरणों का रेखाचित । (५) एक प्रकार का का उत्साहवर्द्धक नाद । रणनाद । हला । उ०-(क) कूदत तृण जो धान के खेतों में पैदा होता है। इसको 'बाँसी भी कबंध के कईख बंब सी करत धावत दिखावत है लाखौ कहते हैं। इसकी पत्तियाँ बाँस की पत्तियों के आकार की राघौ थान के।-तुलसी। (ख) ठिस्यौ बुंदेला बंध दै होती हैं। इससे धान को बड़ी हानि होती है। बागा घेन्यौ जाय । -लाल। संशा पु. ] एक प्रकार का गेहूँ । क्रि० प्र०-बोलना ।—देना । बंसीधर-संशा पुं० [सं० वंशीधर | श्रीकृष्ण । (३) नगारा । बुंदुभी । टंका। उ०--(क) कब नारद बंदूक : बॅहगी-संशा श्री० [सं० वह ] भार ढोने का एक उपकरण जिसमें चलाया । व्यायदेव कब बब बजाया।-कोर । (ख) त्यौं ! एक लंबे बाँस के टुकड़े के दोनों सिरों पर रस्सियों के बड़े बहलोलखान रिस कीन्ही। तुरतहि व कूच की दीन्ही। . खरे छीके लटका दिए जाते हैं। इन्हीं छींकों में योश रख बंधा-संज्ञा पुं० [अ० मंदा ] (1) जल-कल । पानी की कल। देते हैं और लकड़ी को बीच में से कंधे पर रख कर ले पंप । (२) सोता । स्रोत । (३) पानी बहाने का नल। . चलते हैं। बँधाना-कि० अ० [ अनु० ] गी आदि पशुओं का बॉ बौं शब्द | क्रि०प्र०--उठाना ।-दोना । करना। रंभाना। व-संशा पुं० [सं०] (१) वरण । (२) सिंधु। (३) भग । (४) यंधु-संशा पुं० दे० "अवल"। जल। (५) सुगंधि। (६) बयन । (७) ताना । (4) बंबू-संशा पुं० [ मलाय! बम्मू-बॉस ] चंडू पीने की बॉम की छोटी ' पसली नली। बउर*-संज्ञा पुं० दे० "बौर" वा "मौर"। क्रि० प्र०-पीना। बउरा *-वि० दे० "वावला"। यभनाई:-संशा स्त्री० [सं० मापण ] (1) बाह्मणस्व । ब्राह्मणपन । बउराना*-कि० अ० दे० 'बौराना"। (२) हठ । जिद्द । दुराग्रह । (क.)। . बक-संज्ञा पुं० [सं० वैक ] (1) बगला । (२) अगस्त नामक पुरुष बंस-संज्ञा पुं० दे० "वंश"। का वृक्ष । (३) कुबेर । (४) बकासुर । (५) एक राक्षस बंसकार-संज्ञा पुं० [सं० वंश ] बाँसुरी। उ०--सिंह संख रफ जिसे भीम ने मारा था । (६) एक ऋषि का नाम । बाजन बाजे। बसकार महुअरि सुर साजे । वि० बगले सा सफ़ेद । उ०-अहहि जो केश भंवर जेहि बंसरी-संज्ञा स्त्री० दे० "सी"। घसा । पुनि बक होहिं जगत सब हँसा । --जायसी । बंसलोचन-संज्ञा पुं० [सं० वंशलोचन ] बाँस का सार भाग जो: संज्ञा स्त्री० [सं० वच, हिं० बकना ] बड़वाहट । प्रलाप । उसके जल जाने के बाद सफेद रंग के छोटे छोटे टुकड़ों के । बकवाद। रूप में पाया जाता है। यह रंगपूर, सिलहट और मुर क्रि० प्र०-लगना। शिदाबाद में लंबी पोरवाले बाँसों की गाँठों में से उनको यौ०-बकबक वा बकझक-बकवाद । प्रलाप । व्यर्थवाद । जलाने पर निकलता है। बसकपूर। उ०-ऐसे बकझक खिमलायकर सुरपति ने मेघपति को बंसार-संशा पु. [ देश० ] बंगपाल । भंडार । (लश्करी) । भुलाय भेजा। लल्लूटू। बंसी-संज्ञा स्त्री० [सं० ] (1) बाँस की नली का बना हुआ एक क्रि०प्र०—करना । मचाना । प्रकार का बाजा । यह यालिश्त सवा बालिइत लंबा होता. बकवंदन-संशा पुं० [सं० वकचंदन ) एक वृक्ष का नाम जिसकी है, और इसमें सात स्वरों के लिए सात छेद होते हैं। यह पत्तियाँ गोल और बड़ी होती हैं। इसका पेट ऊँचा और घाजा मुँह मे फूंककर बजाया जाता है। बाँसुरी । वंशी।। लकड़ी रद होती है। इसका फल लंबा और पतला होता है मुस्ली। (२) मछली फँसाने का एक औज़ार । इसमें जिसमें छ: से आठ नौ अंगुल लेवे तीन चार दल होते हैं। एक लंबी पतली छड़ी के एक सिरे पर होरी बँधी ! यह ऊपर कुछ ललाई लिए और भीतर पीलापन लिए भूरे होती है और दूसरे सिरे पर अंकुश के आकार की लोहे रंग का होता है। फल सिर के दरव में पीसकर लगाए की एक फॅटिया बैंधी रहती है। इसी कैंटिया में पारा लपेट-: जाते हैं। मकचंदन।