पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर भाग ५.pdf/५३६

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मोरछली २८२७ मोरशिखा और राजाओं आदि के मस्तक के पास जुलाया जाता है। (बुदेलखंर) उ.-सीठडोर ने मोर दिय छिरफ रूपरस उ.-(क) अगल बगल बहु मनुज मोरछल चवर बोलावत। तोय । मथि मो घट प्रीतम लियो मन नवनीत बिलोय।- --गोपाल । (ख) चार चोर चहुँ ओर चलावै मोरछलान रमनिधि। टोलाई।-रघुराज। मोरनी-संशा स्त्री० [हिं० मोर का स्त्री० रूप ] (१) मोर पक्षी की मोरछली-संज्ञा पुं० दे० "मौलसिरी"। उ०-छड़, खिरैटी, आँवले मादा । उ०—चित चकोरनी चकोर मोर मोरनी समेत, कुट और मोरछली की छाल, इनको जल के साथ महीन हंस हंसिनी समेत सारिका सबै पत्।।-केशव । (२) मोर पीसकर लेप करो तो बाल अगे।-प्रतापसिंह। के आकार का अथवा और किसी प्रकार का एक छोटा संशा पुं० [हि. मोर छल+ ई (प्रत्य॰)] मोरछल हिलानेवाला। टिकड़ा जो नथ में पिरोया जाता है और प्रायः होंठों के मोरछाँह *-संज्ञा पुं० दे० "मोरस्टल"। उ०--का बरनउँ अस ऊपर लटकता रहता है। ऊँच सुधारा । दुइ धेरै पहुँचै असधारा । बाँधे मोरछाँह सिर | मोरपंख-संज्ञा पुं० [हिं० मोर-+पय पर ] मोर का पर जो देखने सारहि। भाजहि Jल वर जनु द्वारहि1-जायसी।। में बहुत अधिक सुदर होता है, और जिसका व्यवहार मोरजुटना-संज्ञा पुं० [हिं० मोर+जुटना ) एक प्रकार का आभू. अनेक अवसरों पर प्रायः शोभा या श्रृंगार के लिए अथवा षण जो सोने का बनता और रत्नजटित होता है। इसके कभी कभी औषध रूप में भी होता है। बीच का भाग गोल बेंदे के समान होता है और दोनों ओर | मोरपंखी-संज्ञा स्त्री० [हि. मोरपंव+ ई (प्रत्य॰)] (1) वह नाव मोर बने रहते हैं। यह बैंदे के स्थान पर माथे पर पहना जिसका एक सिरा मोर के पर की तरह बना और रंगा जाता है। हुआ हो। (२) मलखंभ की एक कसरत जो बहुत फुरती मोरट-संज्ञा पुं० [सं०] (१) ऊस्व की जड़। (२) अंकोल का. से की जाती है और जिसमें पैरों को पीछे की ओर से उपर फूल । (३) प्रसत्र से सातवीं रात के बाद का दूध । (१) । उठाकर मोर के पंख की सी आकृति बनाई जाती है। एक प्रकार की लता जिग्मे कर्णपुष्प भी कहते हैं। वैद्यक में संगा पुं० एक प्रकार का बहुत सुंदर, गहरा और चमकीला इसे मधुर, कषाय, वृष्य, बलवर्धक और पित्त, दाह तथा : नीला रंग जो मोर के पर से मिलता-जुलता होता है। ज्वर के लिये नाशक माना है।। वि. मोर के पंख के रंग का । गहरा चमकीला नीला । मोरटक-संशा पुं० [सं०] (1) दे. "मोरट"। (२) सफेद खैर। मोरपरखा -मंशा पुं० [हिं० मोर पंख ] (1) मोर का पर । मोर- मारटा-संज्ञा स्त्री० [सं०] दू । दूध । पंख । (२) मोरपंख की कलगी जो प्रायः श्रीकृष्णजी मुकुट मोरध्वज-संज्ञा पुं० [सं० मयूरध्वज ] एक पौराणिक राजा का नाम या चीर में खोंसा करते थे। उ०-(क) बाँसुरी कुंडल जो बहुत प्रसिद्ध भक्त था। इसकी परीक्षा के लिए श्रीकृष्ण मोरपखा मधुरी मुसकानि भरी मुख है ये।–बेनी । (ख) और अर्जुन इसके यहाँ गए थे। श्रीकृष्ण की बात मानकर पीत पटी लकुटी पदमाकर मोरपखा लै कहूँ गहि नाखी।- यह राजा अपना जीवित शरीर आरे से चिरवाने के लिए पाकर। (ग) क्यों करि धौं मुरली मनि कुखल मोरपखा तैयार हुआ था। बनमाल विसाएँ। ते धनि जे ब्रजराज लखे गृह काज करें मोरन-संज्ञा स्त्री० [हिं० मोडना ] मोड़ने की क्रिया या भाव। अरु लाज संभार ।मतिराम । मोड़ना। मोरपाँध-संज्ञा पुं० [हिं० मोर+पाँव ] जंगी जहाजों के बावर्ची- संज्ञा स्त्री० [सं० मोरट ] बिलोया हुआ दही जिसमें मिठाई खाने की मेज़ पर खड़ा जदा हुआ लोहे का छह जिसमें और कुछ सुगंधित वस्तुएँ (इलायची, लौंग इत्यादि ) मांस के बड़े बड़े टुकड़े लटकाए रहते हैं। (लश०) गली गई हों। शिखरन । उ०-पुनि सँधान आने बहु मोरमुकुट-संज्ञा पुं० [हि. मोर+मुकुट ] मोर के पंवों का बना साँधी । दूध दही की मोरन बाँधी।-जायसी। हुआ मुकुट जो प्रायः श्रीकृष्णजी पहना करते थे। उ.- मोरना*-क्रि० स० दे. "मोड़ना"। उ०-(क) फिर फिर मोरमुकुट की चंद्रिकन यौं राजत नंदनंद। मनु ससि-सेखर सुदर श्रीवा मोरत । देखत स्थ पाछे जो घोरत ।- की अफस किये सिखा सत चंद।-बिहारी। लक्ष्मणसिंह । (ख) चोरि चोरि चित चितवति मुंह मोरि मोरवा*-संज्ञा पुं० ० "मोर"| उ.--कूक मोरवान की करेजा मोरि काहे तें हमति हिय हरप बढ़ायो है। केशव । टूक टूक करें, लागति है हक सुनि धुनि धुरवान की।-- (ग) कर आँचर की ओट करि जमुहानी मुख मोरि। दीनदयाल। बिहारी । (ख) नासा मोरि नचाय हग करी कका की संज्ञा पुं॰ [देश॰] वह रस्सी जो नाव की किलवारी में बाँधी सौह।-विहारी। जाती है और जिससे पतवार का काम लेते हैं। क्रि० स० [हिं० मोरन ] दही कोमथकर मक्खन निकालना। | मोरशिखा-संज्ञा स्त्री० [सं० मयूर-शिखा ] एक जड़ी जिसकी दुनो । राणिक राजा