पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर भाग ५.pdf/५३७

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मोरा २८२८ मोहड़ा पत्तियों ठीक मोर की कलगी के आकार की होती है। यह . (ख) पंडित बेद पुराण पड़े औ मोलमा पर्व कोराना । जही बहुधा पुरानी दीवारों पर उगती है। इसकी सूखी । -कबीर । पत्तियों पर पानी छिड़क देने से वे पत्तियाँ फिर तुरंत हरी : मोलबी-संज्ञा पुं० [अ० मौलवी] वह विद्वान् मुसलमान जो अपने हो जाती है। वैद्यक में इसे पिस, कफ, अतिसार और धर्मशास्त्र का अच्छा ज्ञाता हो। मौलवी। बालग्रह दोष-निवारिणी माना गया है। मालाई-संशा स्त्री० [हि. माल+आई (प्रत्य.)] मोल पूछने या ते मांग-संा पुं० [ देश.] अकीक नामक रस्त्र का एक भेद जो प्रायः - करने की क्रिया । मूल्य कहना वा ठीक करना । दक्षिण भारत में होता है और जिसे 'बायाँघोड़ी' भी मोचना-त्रि० स० दे. "मोना"। कहते हैं। मोष-संशा पुं० दे० "मोक्ष"।

  • वि० दे० "मेरा"।

मंशा पुं० [सं०] (1) चोरी। (२) लूटना । लूट । (३) मोराना-कि० स० [हिं० मोडना का प्रेर० ] (1) चारों और बध । हत्या। (४) दंड देना। घुमाना । फिराना । उ0-~-आरति करि पुनि नरियल तबहिं मोपक-संज्ञा पुं० [सं० चोर । मोराइये । पुरुष को भोग लगाइ सम्वा मिलि खाइये ।- मोषण-संज्ञा पुं० [सं० ] (9) लूटना । (२) चोरी करना । (३) कबीर । (२) रम पेरने के समय ऊग्य की अंगारी को कोल्ह छोड़ना । (४) वध करना । (५) वह जो चोरी करता या मैं दवाना। दाका डालता हो। मारिया-मेशा स्त्री० [हिं० मारना ? ] कोल्ह में कातर की दूसरी मोह-संज्ञा पुं० [सं०] (1) कुछ का कुछ समझ लेनेवाली बुद्धि । शाया जो बाम की होती है। अज्ञान । भ्रम । भ्रांति । उ०—तुलपिदाम प्रभु मोह-जनित मांग- [ हिं. मोहरी ] (१) किसी वस्तु के निकलने भ्रम भेद-बुद्धि कब बिसरावहिगे।—तुलसी । (२) शरीर का तंग द्वार । (२) नाली जिसमें से पानी, विशेषत: गंदा और सांसारिक पदार्थों को अपना या सत्य समझने की बुद्धि और मैला पानी बहता हो । पनाली। जो दुःखदायिनी मानी जाती है । (३) प्रेम । मुहब्बत । महा-मोरी छुटनादरत आना। पेट चलना । मोरी पर प्यार । उ०-(क) साँचेहु उनके मोह न माया । उदासीन जाना पेशाब करन जाना । (बा.) धन धाम न जाया ।-तुलनी। (ब) काशीरास कहै (३) दे. "मोहरी"। रघुवंशिन की रीति यह जासों कीजै मोह तासों लोह कैसे

  • मिशा मा [हिं० भार+ई (प्रत्य०) । मार पक्षी की गहिये। (ग) मोह सों तजि मोहि हग चले लागि उहि

मादा । मयूरी । उ०—मोरी मी घन गरज सुनि तू टाही गैल। बिहारी । (घ) रह्यो मोह मिलनो रह्यो यो कहि अकुलात ।-पीताराम । गह मरोर ।--बिहारी । (४) साहित्य में ३३ संचारी भावों २१ मा देश.] क्षत्रियों की एक जाति जो 'चौहान में से एक भाव । भय, दुःख, घबराहट, अत्यंत चिंता आदि जाति के अंतर्गत है। से उत्पन्न चित्त की विकलता।(५) दु:ग्व। कष्ट । (६) मूछौं । मोर्चा-सा पु० दे० "मोरचा"। बेहोशी । ग़श । उ--गिरयो हंस भू में भयो मोह भारी। माल-संशा ए० [सं० मूल्य, प्रा० मुल ] (1) वह धन जो किम् । -धुराज। वस्तु के बदले में बेचनेवाले को दिया जाय । कीमत। महक-वि० [सं०] (१) मोह उत्पन्न करनेवाला । जिसके दाम। मूल्य । कारण मोह हो। (२) मन को आकृष्ट करनेवाला । क्रि० प्र०—करना ।-चुकाना ।-ठहराना ।-देना।- लुभानेवाला। लेना। मोहकार-संज्ञा पुं० [हिं० मुंह+बड़ा या कार (प्रत्य॰)] पीतल या यौ०-अनमोल। ताँबे के घड़े का गला समेत मुहँडा । ( ठठेरा) (२) दुकानदार की ओर से वस्तु का मूल्य कुछ बढ़ाकर कहा मोहठा-संज्ञा पुं॰ [सं०] दस अक्षरों का वह वर्णवृत्त जिसके जाना । जैसे,—मोल मत करो; ठीक ठीक दाम कहो। प्रत्येक चरण में तीन रंगण और एक गुरु होता है। इसे यौल-मोल चाल-(१) अधिक मूल्य । (२) किसी चीज का दाम 'बाला' भी कहते हैं। उ.--श्याम की मात बोली रिसाई। या बढाकर ले करना। गोपि कोई करी है दिलाई। मुहा०--मोल करना=(१) किसी पदार्थ का उचित में अधिक, मोहड़ा-संशा पुं० [हिं० मुह+ड़ा (प्रत्य॰)] (1) किसी पात्र का मूल्य बाहना । (२) मल्य पटा बढ़ाकर तै करना। मुँह या खुला भाग । (२) किसी पदार्थ का अगला या मलना-संज्ञा पुं० [अ० मौलाना ] मौलवी । मुल्ला। उ.-(क) ऊपरी भाग। बेद किताब पहें वे स्वुतया वे मोलना वे पाये-कबीर ।। मुहा०--मोहया लगाना अन्न से भरे हुए बोरे दूकान पर