पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर भाग ५.pdf/५३९

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

मोहनीय २८३० मोहाल - खोरि मिलिहौं गए मोहि बुलाह।-सूर । मोहनी लगना : मुदा-मोहरा लेना=(१) सेना का मुकाबला करना। (२) भिड़ जाददगा के कारण माहित होना । माहित होना । लुभाना । जाना। पतिद्धिता करना । उ०-आजु गई हौं नंद भवन में कहा कहौं ग्रह चैनु री। (५) कोई छेद वा द्वार जिससे कोई वस्तु बाहर निकले। बहु अंग चतुरंग छल मो कोटिक दुहियत धेनुरी।...'बोलि (६) चोली आदि की ननी या बंद। उ०-कंचुकी सूही लई नव बधू जानि के खेलत जहाँ फैधाई री । मुख देखत कसे मोहरा अति फैलि चली तिगुनी परभासी । मानिक के मोहिनी सी लागन रूप न बरन्यो जाई री।-सूर। भुजबंद चुरी मणि कंचन ककन ओप प्रकासी।-गुमान । (७) माया । (4) पोई का साग ।। संज्ञा पुं० [ फा . मोहर ] (१) शतरंज की कोई गोटी । (२) वि० स्त्री० [सं०] मोहित करनेवाली। चित्त को लुभाने मिट्टी का साँचा जिसमें कड़ा, पछुआ इत्यादि ढालते हैं। वाली । अत्यंत सुदरी। (३) रेशमी वस्त्र घोटने का घोटना जो प्रायः बिल्लौर का मोहनीय-वि०म० | मोहित करने के योग्य । मोह लेने के बनता है। (४) सिंगिया विष । (५) सोने, चांदी पर योग्य । नक्काशी करनेवालों का यह औजार जिससे रगड़ कर मोहफिल-संशा सी० दे० "महफिल"। नक्काशी को धमकाते हैं। दुआली । (६) जहरमोहरा मोहब्यत-संक्षा स्वाद. "मुहन्यन" । उ.- हमको अपना आप मोहगत्रि-संवा मी० [सं०] (१) यह प्रलय जो ब्रह्मा के पचास दे. इश्क मोहब्बत दर्द। पेज सुहाग मुख प्रेम रत्य मिलि वर्ष श्रीतने पर होता है। दैनंदिन प्रलय । (२) जन्माष्टमी खेल ला-पर्द।-दादू । की रात्रि । भाद्रपद कृष्णा अष्टमी। मोहर-शा मी० [फा०] (1) किपी ऐपी वस्तु पर लिखा | मोहगना-संश पुं० [फा० मुहर+आना (प्रत्य॰)] वह धन जो हुआ नाम, पता या चिह्न आदि जिसमे कागज़ वा कपड़े किमी कर्मचारी को मोहर करने के लिए दिया जाय । आदि पर छाप सके। अक्षर, चिह्न आदि दबाकर अंकित ! मोहर करने की उजरत। करने का ठप्पा । उ.--इस मोहर की अंगूठी से आपको | माह-संत्रा बी० [हिं. मोहरा (१) बरतन आदि का छोटा विश्वास हो जायगा । ( अंगूठी देता है )--हरिश्चंद्र । या बुला भाग। (२) पाजामे का वह भाग जिसमें टाँगें क्रि० प्र०—करना |--ापना ।—देना । —लगाना । रहती है। (३) दे. "मोरी"। (२) उपयुक्त वस्तु की छा जो कागज़ वा कपड़े आदि पर संक्षा स्त्री॰ [देश॰] एक प्रकार की मधुमक्खी जो खानदेश ली गई हो। स्याही लगे हुए ठप्पे को दबाने से बने हुए में होती है। चिह्न या अक्षर । उ०--मोहर में अपना नाम वा चिह्न | महर्रिर-संक्षा पुं० [अ० ] बह जो किमी के कागज़ आदि लिखने होता है, जिसमें पत्र पर लगी हुई मोहर देखते ही उस का काम करता हो। लेग्यक । मुंशी। पन्न के पढ़ने के प्रथम परिज्ञान हो जाता है कि यह पत्र मोहलत-संजा स्त्री० [अ० (१) फुरसत । अवकाश । छुट्टी। अमुक का है। -मुरारिदान । (३) स्वर्ण मुद्रा । अशरफी। क्रि० प्र०—देना ।-मांगना ।-मिलना।---लेना। उ.-(क) करि प्रणाम मोहर बहु दीन्हो। दियो असीम (२) किसी काम को पूरा करने के लिए मिला हुआ था यतीश न लीन्हो ।-रघुराज । (ख) जो कुजाति नहि निश्चित समय । अवधि । जैसे,-चार दिन की मोहलत और माने बाता । गगरा वादि दिखाया ताता । गादे दी जाती है। इस बीच में रुपया इकट्ठा करके दे दो। बीच अजिर के माहीं। मोहर भरे नृप जानत नाही-मोहल्ला-संज्ञा पुं० दे० "महल्ला"। रघुनाथदास। मोहा-संज्ञा पुं० [हिं० मुंह+आर (प्रत्य॰)] (१) द्वार। दरवाज़ा । मोहग-संशा पुं० [हिं० मुंह+रा (प्रत्य)] [स्त्री० मोहग] (1): (२) मुँहता। अगला भाग। उ.-रूप को कूध बखानत किसी बरतन का मुँह या मुला भाग। (२) किसी पदार्थ हैं कवि कोऊ तलाव सुधा ही के संग को। कोऊ सुफंग का ऊपरी या अगला भाग। (३) एक प्रकार की जाली जो मोहार कहै दहला कलपद्रुम भापत अंग को।-शंभु। बैल, गाय, भैस इत्यादि का मुंह कसकर गिराँव के साथ ' संज्ञा पुं० [सं० मधुकर, प्रा० महुअर ] (१) मधुमक्खी की बाँधने के लिए होती है। यह मुंह पर बाँधकर कस दी। एक जाति जो सब से बड़ी होती है । सारंग। (२) मधु जाती है, जिनमें पशु ग्वाने-पीने की चीजों पर मुँह नहीं। का छत्ता। (३) भौंरा। चला सकता। (४) सेना की अगली पंक्ति जो आक्रमण : मोहारनी-संज्ञा स्त्री० [हिं० मुँह+सं० पारायण (प्रत्य॰)] पाठशाला करने और शत्रु को हटाने के लिए तैयार हो। (४) फौज की ! के बालकों का एक साथ खड़े होकर पहाड़े पढ़ना। चढ़ाई का रुख । सेना की गति। उ.-मही के महीपन को | मोहाल-संज्ञा पुं० [अ० महाल | पूरा गाँव वा उसका एक भाग मोयो कैसे मोहरा । रघुराज । अथवा कई गाँवों का समूह जिसका बंदोबस्त किसी नंबरदार