पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर भाग ५.pdf/५४३

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मौनता २८३४ मौर्या वि० [सं० मानी ] जो न बोले । चुप। मौनी । उ.--(क) राजा आप कहावत वृदाबन की ठौर । लूट लूट दधि खात हमहुँ कहब अब ठकुर सुहाती। नाहित मौन रहय दिन सघन को सब चोरन के मौर। सूर । (ख) साधू मेरे सब राती। तुलसी । (ख) इतनी सुनत नैन भरि आये प्रेम बड़े अपनी अपनी ठौर । शब्द विवेकी पारखी वह माथे का नंद के लालहि । सूरदास प्रभु रहे मौन कै घोष बात जनि मौर ।-कबीर। चालहि । -सूर। संज्ञा पुं० [सं० मुकुल, प्रा० मउल ] छोटे छोटे फूलों वा

  • सक्षा पुं० [सं० मीण । (१) बरतन । पात्र । 3० कलियों से गुथी हुई लंबी लंबी लटोंवाला घौद। मंजरी।

कादो कोरे कापर हो अरु कादो घी को मौन। जाति पांति बौर । जैसे, आम का मौर, पयार का मौर, अशोक पहिराय के सत्र समदि छतीसो पौन-सूर। का मौर । उ०—(क) नंद महर घर के पिछवारे राधा आइ (२) उज्या । उ०—मानहुँ रतन मौन दुइ मूंदे। बतानी हो । मनों अंब-दल मौर देखिकै कुहकि कोकिला जायगी। (३) मूंज आदि का बना टोकरा या पिटारा । खानी हो।-सूर । (ग्व) चलत सुन्यो परदेश को हियरी मौनता-संज्ञा स्त्री० [सं०] मौन होने या रहने का भाव । चुप रह्यौ न ठौर। ल मालिन मीतहि दियो नव रसाल को होना । चुप्पी। मौर ।-मतिराम । मौनव्रत-समा पु० [सं०] मौन धारण करने का व्रत । चुप | महा-मौर बँधना=मौर निकलना । मंजरा लगना । रहने का व्रत। संज्ञा पुं० [सं० मौलि-सिर ] गरदन का पिछला मौना-संज्ञा पुं० [सं० मोण ] [ श्री. अल्पा० मौनी ] (१) घी या भाग जो सिर के नीचे पढ़ता है । गरदन । उ.---- तेल आदि रखने का एक विशेष प्रकार का बरतन । (क) भौंह उँचै आँचर उलटि मौर मोरि मुँह (२) काँस और मैंज से बुनकर बनाया हुआ टोकरा मोरि । (ख) मौर उँचै धू टेन नै नारि सरोवर न्हाइ । जिसमें अन्न आदि रखा जाता है। (३) सींक वा काँस --विहारी। और मुंज का तंग मुंह का हकानदार टोकरा । मौरना-क्रि० स० [हिं० भौर+ना (प्रत्य०)। वृक्षों पर मंजरी पिटारी। लगना । आम आदि के पेड़ों पर धीर लगना । उ०—(क) मौनी-वि० [सं० मीनिन् ] (१) चुप रहनेवाला। न बोलनेवाला। काटे आँय न मारिया फाटे जुरै न कान । गोरख पद परग्ने मौन धारण करनेवाला । (२) मुनि । बिना कही कोन की सान |--कीर । (ग्व) शिशिर होत संज्ञा स्त्री० [हिं० मोना ] कटोरे के आकार की टोकरी जो पतझार, आँब कटाहर एक से । राह घसन निहार, जग प्राय: काँस और मूंज से चुनकर बनाई जाती है। जाने मौरत प्रगट ।-हनुम नाटक । (ग) विलोके तहों आँव मौनय-संशा पु० [सं० ] गंधों और अप्सराओं आदि का एक के साखि मौरे । चहुँधा भ्रमै हुंकर भौंर बौरे । लगे पौन के मातृक गोत्र । झोंक डार झुकावें। बिचारे वियोगीन को ज्यों डरावें। विशंप-इन जातियों में माता का गोत्र प्रधान होता है। -गुमान। क्योंकि इनके पिता अनिश्चित होते हैं। मौरसिरी-संज्ञा स्त्रा० दे० "मौलसिरी"। उ०-(क) जुही मौर-संज्ञा पुं० [सं० मुकुट, पा० मउड़ ] [ स्त्री. अल्पामौरी ] नसत तामों को प्रीति निधारी जाय । मौरसिरी दिन दिन (७) एक प्रकार का शिरोभूषण जो तार पत्र या खुरबड़ी आदि च सदा सुहागि लताहि ।-रसनिधि । (ख) मौरखिरी का बनाया जाता है। विवाह में वर इसे अपने सिर पर ही को पैन्हि के हार भई सब के सिर मौर-मिरी तू । पहनता है। उ०-(क) अवधू बोत तुरावल राता । नाचे -देव। बाजन बाज बराता । मौर के माथे दूलह दीन्हों, अकया । मौरी-संशा स्त्री० [हिं० मौर+ई (प्रत्य॰)] (1) छोटा मौर जो जोरि कहाता । महये के चारन समधी दीन्हों पुत्र बिआइल! विवाह में बधू के सिर बाँधा जाता है। माता ।----कवीर । (ख) सोहत मौर मनोहर माथे । मंगल- | मौरूसी-वि० [अ० ] बाप दादा के समय से चला आया हुआ। मय मुकुता मनि गाथे ।--तुलसी । (ग) रामचंद्र सीता : पैतृक । जैसे,—(क) यह मौरूसी जायदाद है। इसमें सब सहित शोभत है तहि ठौर । सुवरणमय मणिमय खचित का हक है। (ख) यह बीमारी तो उनके ग्वानदान में शुभ सुदर सिर मौर।-केशव । मौरूसी है। मुहा०—मौर बाँधना-विवाह के समय सिर पर मौर पहनना। मौj-संज्ञा पुं० [सं०] मूर्खता । बेवकूफी। उ.-पांवरि तजहु देहु पग, पैरन-बाँक तुग्वार । बाँध मौर मौर्य-संज्ञा पुं० [सं० ] क्षत्रियों के एक वंश का नाम । सम्राट औ छत्र सिर बेगि होहु असवार । —जायसी । चंद्रगुप्त और अशोक इसी वंश में उत्पन्न हुए थे। पुराणों (२) शिरोमणि । प्रधान । सरदार । उ०-(क) जो तुम में मौव्यों को वर्णसंकर लिखा है और मौर्य वंश का