पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर भाग ५.pdf/५४९

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२८४० यक्षलोक यक-वि० दे० "एक"। के देवता जो कुवेर के सेवक और उसकी निधियों के रक्षक यकअंगी-वि० [हिं० या अंगी ] (1) एक अंगवाला । (२) एक माने जाते हैं। उ०—यक्ष प्रबल वादे भुवम डल तिन (पली या पति ) के साथ रहनेवाला ( या वाली) उ.-। मान्यो निज भ्रात । जिनके काज अंस हरि प्रगटे ध्र व जगत बहुरंगी जित तितहि सुख यकअंगी कर अंत । जिमि गणिका ! विण्यात ।--सूर। निधरक रहति दहति सती बिनु कंत । —विश्राम । (३) विशेष-पुराणानुसार यक्ष लोग प्रचेता की संतान माने जाते एक ही के आश्रित । एक ही पर रहनेवाला । एकनिष्ठ । हैं। कहते हैं कि इनकी आकृति विकराल होती है, पेट फूला (४) दे. "एकांगी"। हुआ और कंधे बहुत भारी होते हैं और हाथ-पैर घोर काले संशा सी० दे० "एकांगी" रंग के होते है। यककलम-नि० वि० [फा०] (1) एक ही बार कलम चला (२) कुबेर । कर । एक ही बार लिवकर । (२) एक-बारगी । एकाएक। यक्षकर्दम-संज्ञा पुं० | सं० ] एक प्रकार का अंग-लेप जो कपूर, जैसे,—वह यहाँ ये यकालम बरखास्त कर दिया। अगरु, कस्तूरी और कंकोल मिलाकर बनाया जाता है। गया। कहते हैं कि यक्षों को यह अंगलेप बहुत प्रिय है। उ.- यकता-वि० [फा०] जो अपनी विद्या या विषय में एक ही हो। आज आनित्य जल पवन पावन प्रवल चंद आनंदमय ताप जिसके मुकाबले का और कोई न हो। अद्वितीय । जग को हरौ । गान किन्नर करहु, नृत्य गंधर्वकुल, यज्ञ विधि यकताई-संशा स्त्री० [फा. ] यकना या अद्वितीय होने का भाव । लक्ष उर यक्षकर्दम धरी ।केशव । अद्वितीयता। यक्षग्रह-संज्ञा पुं० [सं०] पुराणानुपार एक प्रकार का कल्पित यकपरा-संशा पुं० [ फा यक+ +आ (प्रत्य॰) । एक प्रकार का ग्रह । कहते हैं कि जब इस ग्रह का आक्रमण होता है, तब कबूतर जिसका सारा शरीर माकेद होता है। केवल डैनों आदमी पागल हो जाता है। पर दो एक काली चित्तियाँ होती हैं। | यक्षण-संज्ञा पुं० [सं०] (1) पूजन करना। (२) भक्षण करना । यक-बयक-कि० वि० [ 10 ] एक बारगी। यकायक । एक खाना। दम से। यक्षतरु-संशा पुं० [सं०] वट-वृक्ष । बड़ का पेड़ । यकवाग्गी-कि० वि० [ 10 ] यकवयक । अचानक । एकाएक विशेष-कहते हैं कि वट का वृक्ष यक्षों को बहुत प्रिय होता सहमा। है और उसी पर वे रहा करते हैं। यकसाँ-वि० [ 10 Jएक समान । एक मा । बराबर । यक्षता-संशा स्त्री० [सं० ] यक्ष का भाव या धर्म । यक्ष-पन। यकायक-कि० वि० [फा० / एकाएक । अचानक । एक बारगी। यक्षत्व-संज्ञा पुं० [सं०] यक्ष का भाव या धर्म । सहसा ।

यक्षधप-संशा पुं० [सं०] १) माधारण धूप जो प्रायः देवताओं

यकार-संज्ञा पुं० [40] य का वर्ण। आदि के आगे जलाया जाता है। (२) सरल वृक्ष का यकीन-संज्ञा पु० [अ० ] प्रतीति । विश्वास । एतबार । निर्याम । तारपीन का तेल । यकीनन्-क्रि० वि० [अ० ] अवश्य । निःसंदेह । बेशक । यक्षनायक-संज्ञा पुं० [सं०] (१) यक्षों के स्वामी, कुबेर । (२) जैनों के अनुसार वर्तमान अवसर्पिणी के अर्हत के चौथं अनु- यकृत-संज्ञा पुं० [सं० ] (2) पेट में दाहिनी ओर की एक थैली - चर का नाम । जिसमें पाचन रस रहता है और जिसकी क्रिया से भोजन . यक्षप-संज्ञा पुं० [सं०] यक्षपति, कुबेर । पचता है; अर्थात् उसमें वह विकार उत्पन्न होता है, जिससे : यक्षपति-संशा पुं० [सं०] यक्षों के स्वामी, कुबेर । उ०—मृत्यु शरीर की धातुएँ बनती है। जिगर | कालखंड । (२) वह . कुवर यक्षपति कहियत जह शंकर को धाम । -सूर । रोग जिसमें यह अंग दूषित होकर बढ़ जाता है । वर्म-जिगर। यक्षपुर-संज्ञा पुं० [सं०] अलकापुरी। (३) पक्काशय। यक्षरस-संज्ञा पुं० [सं० ] फूलों से तैयार की हुई शराब । यकोला-संवा पु० [देश॰] एक प्रकार का मझोला पेड़ जिसके मवासव। पसे प्रति वर्ष शिशिर ऋतु में अब जाते हैं। इसकी लकड़ी यक्षराज-सशा पुं० [सं० ] अक्षों के राजा, कुबेर।। अंदर से सफेद और बड़ी मजबूत होती है और संदूक, यक्षरात्रि-संज्ञा स्त्री० [सं०] कार्तिक मास की पूर्णिमा जो यक्षों आरायशी सामान आदि बनाने के काम आती है। इसे: की रात मानी जाती है। मसूरी भी कहते हैं।

यक्षलोक-संज्ञा पुं० [सं०] वह लोक जिसमें यक्षों का निवास

चक्ष-संज्ञा पुं॰ [सं०] (1) एक प्रकार की देवयोनि । एक प्रकार | माना जाता है।