पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर भाग ५.pdf/५५१

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यजुर्वेदी यक्ष माना जाता है। यज्ञों में अध्वर्यु जिन गद्य मंत्रों का पाठ करता था, वे यजु कहलाते थे। इस वेद में उन्हीं मंत्रों का संग्रह है, इसलिए इसे यजुर्वेद कहते हैं। इसके दो मुख्य भेद हैं-कृष्ण यजुर्वेद और शुक्ल यजुर्वेद या वाजसनेयी । कृष्ण यजुर्वेद में यज्ञों का जितना पूर्ण और विस्तृत वर्णन है, उतना और संहिताओं में नहीं है। इन दोनों की भी बहुत सी शाखाएँ हैं, जिनमें थोड़ा बहुत पाठ-भेद है। अब तक यजुर्वेद की जो संहिताएँ मिली है, उनके नाम इस प्रकार हैं-काठक, कपिस्थल-कठ, मैत्रायणी और तैत्तिरीय । ये चारों कृष्ण यजुर्वेद की है। शुक्ल या वाजसनेयी की कापद और माध्यंदिनी दोशाखाएँ हैं। पतंजलि के मत से यजुर्वेद की १०१ शाखाएँ है; पर चरणव्यूह में केवल ८६ शाखाएँ दी है: और वायुपुराण में २३ शाखाएँ। गिनाई गई है। इसके संहिता भाग में ब्राह्मण और ब्राह्मण भाग में संहिता भी मिलती है। इस वेद में अनेक ऐसे । विधि मंत्र भी है, जिनका अर्थ बहुत थोदा या कुछ भी नहीं ज्ञात होता। कुछ प्रार्थनाएं भी ऐसी है, जो बिलकुल : अर्थ-रहित जान पड़ती हैं। इसके कुछ मंत्र ऐसे हैं, जिनसे | सूचित होता है कि उस समय लोगों में ब्रहाशान की बहुत कम चर्चा थी। इसमें देवताओं के नामों के साथ बहुत से विशेषण भी मिलते हैं, जिससे जान पड़ता है कि भक्ति की ओर भी लोगों की कुछ कुछ प्रवृति हो चली थी। पुराणानुसार इस वेद के अधिपति शुक्र और वक्ता वैशंपायन माने जाते हैं। वि० दे. "वेद"। यजुर्वेदी-संज्ञा पुं० [सं० यजुर्वेदिन् ] (1) वह जो यजुर्वेद का ज्ञाता । हो । (२) वह ब्राह्मण जो यजुर्वेद के अनुसार सब कृत्य करता हो। यजुश्रति-संशा पु० [सं०] यजुर्वेद । यजुम्पति-संज्ञा पुं० [सं०] विष्णु । यजुष्पात्र-संज्ञा पुं० [सं०] एक प्रकार का यज्ञ-पात्र । यजुष्य-वि० [सं०] यज्ञ संबंधी । यज्ञ का । यजूबर-संज्ञा पुं० [सं०] माह्मण । यश-संज्ञा पुं० [सं० ] (१) प्राचीन भारतीय आर्यों का एक प्रसिद्ध वैदिक कृत्य जिसमें प्रायः हवन और पूजन हुआ करता था। मख । याग। विशेष-प्राचीन भारतीय आर्थों में यह प्रथा थी कि जब उनके यहाँ जन्म, विवाह या इसी प्रकार का और कोई समारंभ होता था, अथवा जब वे किसी मृतक की अंत्येष्टि क्रिया या पितरों का श्राद्ध आदि करते थे, तब ऋग्वेद के कुछ सूक्तों और अथर्व वेद के मंत्रों के द्वारा अनेक प्रकार की प्रार्थनाएँ करते थे और आशीर्वाद आदि देते थे। इसी प्रकार पशुओं का पालन करनेवाले अपने पशुओं की वृद्धि । के लिए तथा किसान लोग अपनी उपज बढ़ाने के लिए अनेक प्रकार के समारंभ करके स्तुति आदि करते थे। इन अवसरों पर अनेक प्रकार के हवन आदि भी होते थे, जिन्हें उन दिनों "गृह्यकर्म" कहते थे। इन्हीं ने आगे चलकर विकसित होकर यज्ञों का रूप प्राप्त किया। पहले इन यज्ञां में घर का मालिक या यशफर्ता, यजमान होने के अतिरिक्त यज्ञ-पुरोहित भी हुआ करता था; और प्रायः अपनी सहा- यता के लिए एक आचार्य, जो "ब्राह्मण" कहलाता था, रख लिया करता था। इन यज्ञों की आहुति घर के यज्ञकुंड में ही होती थी। इसके अतिरिक्त कुछ धनवान् या राजा ऐसे भी होते थे, जो बड़े बड़े यज्ञ किया करते थे । जैसे,- युद्ध के देवता इंद्र को प्रसन्न करने के लिए सोमयाग किया जाता था। धीरे धीरे इन यज्ञों के लिये अनेक प्रकार के नियम आदि बनने लगे और पीछे से उन्हीं नियमों के अनुसार भिन्न भिन्न यज्ञों के लिए भिन्न भिन्न प्रकार की यश-भूमियाँ और उनमें पवित्र अग्नि स्थापित करने के लिए अनेक प्रकार के यज्ञ-कुंट बनने लगे। ऐसे यज्ञों में प्रायः चार मुख्य ऋत्विज हुआ करते थे, जिनकी अधीनता में और भी अनेक ऋत्विज़ काम करते थे। आगे चलकर जब यज्ञ करनेवाले यजमान का काम केवल दक्षिणा बाँटना ही रह गया, तब यश संबंधी अनेक कृत्य करने के लिए और लोगों की नियुक्ति होने लगी। मुख्य चार ऋत्विजों में पहला "होता" कहलाता था और वह देवताओं की प्रार्थना करके उन्हें यज्ञ में आने के लिये आह्वान करता था । दूसरा ऋविज "उद्गाता" यश-कुंड में सोम की आहुति देने के समय साम-गान करता था। तीसरा ऋविज "अध्वर्यु" या यज्ञ करनेवाला होता था; और वह स्वयं अपने मुँह से गद्य मंत्र पढ़ता तथा अपने हाथ से यज्ञ के सब कृत्य करता था । चौथे ऋत्विज "ब्रह्मा" अथवा महापुरोहित को सब प्रकार के विनों से यज्ञ की रक्षा करनी पड़ती थी और इसके लिए उसे यज्ञ कुंड की दक्षिण दिशा में स्थान दिया जाता था, क्योंकि यही यम की दिशा मानी जाती थी और उसी ओर से असुर लोग आया करते थे। इसे इस बात का भी ध्यान रखना पड़ता था कि कोई किसी मंत्र का अशुद्ध उच्चारण न करे। इसीलिए ब्रह्मा का तीनों वेदों का ज्ञाता होना भी आवश्यक था। जब यज्ञों का प्रचार बहुत बढ़ गया, तब उनके संबंध में अनेक स्वतंत्र शास्त्र भी बन गए; और वे शान "ब्राह्मण" तथा "श्रौत सूत्र" कहलाए । इसी कारण लोग यज्ञों को श्रौत कर्म भी कहने लगे । इसी के अनुसार यज्ञ अपने मूल गृह्य कम से अलग हो गए, जो केवल स्मरण के आधार पर होते थे। फिर इन गृह कर्मों के प्रतिपादक ग्रंथों को "स्मृति" कहने लगे। प्रायः सभी वेदों