पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर भाग ५.pdf/५५४

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यज्यु २८४५ यथाण्यात चरित्र anemon- यज्यु-संशा पुं० [सं०] (1) यजुर्वेदी ब्राह्मण । (२) यजमान । पीकर रात दिन उपवास करना पड़ता है। इसी का नाम यज्वा-सशा पुं० [सं० यज्वन् ] यज्ञ करनेवाला । यांतपन कृच्छ या यतिसातपन है। यडर-संशा पुं० [ देश. ] एक प्रकार का पक्षा। यती-मजा बी० [सं०] (1) रोक । रुकावट । (२) छंदों में यत-वि० [सं०] (1) नियंत्रित । नियमित । पाबंद। (२) विराम का स्थान । यति । (३) मनोराग। मनोविकार । (२) दमन किया हुआ । शापित । (३) प्रतिबद्ध । रोका (४) विधवा । (५) शलक राग का एक भेद । (६) मृदंग का एक प्रबंध । (७) संधि । यतन-संशा पुं० [सं०] [वि. यननीय ] यत्न करना । कोशिश संज्ञा पुं० [सं० यातिन् ] [स्त्री० यतिना ] (१) यति । करना। संन्यासी । (२) जितेंद्रिय । (३) जैन मतानुसार श्वेतांबर यतनीय-वि० [सं०] या करने के योग्य । कोशिश करने जैन साधु । लायक। यतीम-संशा . [ to ] (1) मातृ-पितृ-हीन । जिसके माता पिता यतमान-संज्ञा पुं० [सं०] (1) यत्न करता हुआ । कोशिश में न हों। अनाथ । (२) कोई अनुपम और अद्वितीय रत्र । लगा हुआ। (२) अनुचित विषपों का त्याग और उचित (३) वह बहुत बड़ा मोती, जिपके विषय में प्रसिद्ध है कि विषयों में मंद प्रवृत्ति के निमित्त यत्र करनेवाला । यह मीप में एक ही निकलता है। यतव्रत-संज्ञा पुं० [सं०] वह जो बहुत संयम ये रहना हो। यतीमखाना-संशा पुं० [अ० यतीम+फा० खान। ] वह स्थान जहाँ यति-संशा पु० [सं० ] (१) वह जिसने इंद्रियों पर विन्य प्राप्त माता-पिता-हीन बालक रखे जाते हैं। अनाथालय। कर ली हो और जो संसार में विरक्त होकर मोक्ष प्राप्त यतुका-मेगा धुं० [सं०चकर्वेद का पौधा । चक्रमर्द । करने का उद्योग करता हो । संन्यासी । स्यागी। योगा। यत्किचित्-कि० वि० [सं० ] थोड़ा सा । बहुत कम । कुछ। (२) भागवत के अनुसार ब्रह्मा के एक पुत्र का नाम । (३) यन-संजा पु० [सं०] (१) नैयायिकों के अनुसार रूप आदि महाभारत के अनुसार नहुप के एक पुत्र का नाम । (४) २४ गुणों के अंतर्गत एक गण जो तीन प्रकार का होता है- ब्रह्मचारी । (५) छप्पय के ६६ . भेद का नाम, जिसमें ५ प्रवृत्ति, निवृत्ति और जीवन योनि । (२) उद्योग । प्रयन । गुरु और १४२ लघु मात्रा अथवा किसी किसी के मन में कोशिश । (३) उपाय । तदबीर । उ०-पाछे पृथु को रूप ५ गुरु और १३६ लघु मात्राएँ होती है। हरि लीन्हीं नाना रस दहि कादै । तापर रचना संज्ञा स्त्री० [म. राना । छंदों के चरणों में वह स्थान रत्री बिधाता बहु बिधि यवन बाद।-सूर । (४) रक्षा जहाँ पढ़ते समय, उनकी लय ठीक रखने के लिए, थोड़ा का आयोजन। हिफाज़त । जैसे,—इस वस्तु को बड़े सा विश्राम होता है। विरति । विश्राम । विराम । यत्न मे रग्बना । (५) रोग-शांति का उपाय । चिकित्सा यौ०-यतिभंग। उपचार । यतिचांद्रायण-संज्ञा पुं० [सं०] एक प्रकार का चांद्रायण व्रत यत्नवान्-वि० [सं० यत्नवत् ] यत्र में लगा हुआ। यन करने- जिसका विधान यतियों के लिए है। वाला। यतित्व-संज्ञा पुं० [सं०] यति का धर्म, भाव या कर्म । यत्र-त्रि.० वि० [सं०] जिस जगह । जहाँ। यतिधर्म-संज्ञा पुं० [सं०] संन्यास । संका पं० [सं० सब ] सामान्य यज्ञ । यतिनी-संशा स्त्री० [सं०] (१) संन्यामिनी । (२) विधवा । यत्रतत्र-वि.० वि० [सं०] (१) जहाँ तहाँ। इधर उधर । कुछ यतिभंग-संशा पुं० [स० ] काध्य का वह दोष जिम्में यति अपने यहाँ, कुछ वहाँ । (२) जगह जगह । कई स्थानों में। उचित स्थान पर न पड़कर कुछ आगे या पीछे पड़ती है यत्र-संज्ञा स्त्री० [सं०] छाती के ऊपर और गले के नीचे की और जिसके कारण पढ़ने में छंद की लय बिगड़ जाती है। मंडलाकार हड्डी । हमली। यतिभ्रष्ट-संज्ञा पुं० [सं०] वह छंद जिसमें यति अपने उपयुक्त यथा-अन्य ० [सं०] जिस प्रकार । जैस । ज्यों। स्थान पर न पड़कर कुछ आगे या पाछे पढ़ी हो। यति-भंग यथाकामी-संज्ञा पु० [सं० यथाकामिन् ] अपनी इच्छा के अनुसार दोष से युक्त छंद। काम करनेवाला । स्वेच्छाचारी । यतिसांतपन-संशा पुं० [सं० ] एक प्रत जिसमें तीन दिन केवल यथाकारी-संशा पु. [ यथाकारिन् ] मनमाना काम करनेवाला पंचगव्य और कुश-जल पीकर रहना पड़ता है। शंखस्मृति स्वेच्छाचारी। के प्रत से तो यह व्रत तीन दिन का है; परंतु जाबाल के यथाक्रम-कि० वि० [सं०] तरतीबवार । क्रमशः । क्रमा- मत से सात दिन का है। गोमूत्र, गोयर, दूध, दही, घृत, नुसार। कुश का जल इनमें से एक एक को प्रति दिन एक बार यथाख्यात चरित्र-संज्ञा पुं० [सं०] सब कपायों (काम,