पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर भाग ५.pdf/५६०

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यवनप्रिय
यविष्ठ
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पुराणों के अनुसार अन्यान्य म्लेच्छ जातियों ( पारद, पहाव रगण और एक गुरु होता है । जैसे,—त्यागि दे सबै जु है, आदि) के समान यवनों की उत्पत्ति भी वसिष्ठ और विश्वा असत्य काम । सुधार जन्म आपनो, न भूल राम । मित्र के झगड़े के समय वरिष्ठ की गाय के शरीर से हुई यवमद्य-संज्ञा पुं० [सं० ] जौ का बनाया हुआ मद्य । जो की थी। गाय के 'योनि' देश मे यवन उत्पन्न हुए थे। शराय। (४) मुसलमान । उ०-भूषण यों अवनी यवनी कहैं | यवमध्य-संज्ञा पुं० [सं०] (१) एक प्रकार का चांद्रायण व्रत । कोऊ कह सरजा सो हहारे । तृ सब को प्रतिपालनहार (२) पाँच दिनों में समाप्त होनेवाला एक प्रकार का यज्ञ । बिचारे भतार न मारु हमारे। भूषण । (५) कालयवन यवलक-संज्ञा पुं० सं० ] एक प्रकार का पक्षी जिसका मांस, नामक म्लेरछ राजा जो कृष्ण मे कई बार लड़ा था। सुश्रुत के अनुसार, मधुर, लघु, शीतल और कम्पेला यवनप्रिय-संज्ञा पुं० [सं० ] मिर्च । होता है। यवनाचार्य-संज्ञा पुं० [सं०] यवन जाति का एक ज्योतिषा- यवलास-संशा पुं० [सं०] जवाखार । चार्य, जिम्मका उल्लेख वराहमिहिर आदि ने किया है। यववर्णाभ-संज्ञा पुं० [सं०] सुश्रुत के अनुसार एक प्रकार का विद्वानों का अनुमान है कि यह संभवत: 'टालेमी' था। जहरीला कीड़ा। यवनानी-वि० [सं०] यवन देश संबंधी। यूनान का। यवशाक-संज्ञा पुं० [सं०] एक प्रकार का याग जो वैद्यक के संज्ञा स्त्री० (१) यूनान की भाषा । (२) यूनान की लिपि । अनुसार मधुर, रूखा, शीतवीर्य्य और मलभेदक माना विशेष-पाणिनि ने यवनानी लिपि का उल्लेख किया है। जाता है। यवनारि-संशा पुं0 1 10 ] श्रीकृष्ण, जिनकी कालयवन मे कई यक्शक-संज्ञा पुं० [सं० ] जवाखार । लड़ाइयाँ हुई थीं। | यवश्राद्ध-संशा पुं० [सं०] एक प्रकार का श्राद्ध जो वैशाग्य के यवनाल-संज्ञा स्त्री० [सं० (१) जुआर का पौधा । (२) इस शुक्ल पक्ष में कुछ विशिष्ट दिनों और योगों में और विषुव पौधे से उत्पन्न अन्न के दाने । जुभार । (३) जौ के ठल संक्रांति अथवा अक्षय तृतीया के दिन होता है और जिसमें जो सूखने पर चौपायों को बिलाए जाते हैं। केवल जौ के आटे का व्यवहार होता है। यवनालज-संज्ञा पुं० [सं०] यवक्षार । जवाग्वार । यवस-संज्ञा पुं० [सं०] भूगा । यवनाश्व-संज्ञा पुं० [सं० ] मिथिला देश के एक प्राचीन राजा यवसुर-संक्षा पुं० [सं०] जौ की शराय । का नाम जो बहुलाव का पिता था। यवागू-संक्षा पुं० [सं० ] जो या चावल का वह मौण जो सकाकर यवनिका-संज्ञा पुं० [सं०] (1) कनात । (२) नाटक का परदा। कुछ ग्वहा कर दिया गया हो; अर्थात् जिसमें कुछ खमीर विशेष-प्राचीन काल में नाटक के परदे संभवत: यवन देश आ गया हो। माँद की कॉजी । से आए हुए कपड़े से बनते | इसीलिए इनको यवनिका विशेष—इसका व्यवहार वैद्यक में पथ्य के लिए होता है और ___ कहने थे। यह ग्राहक, बलकारक तथा वातनाशक माना जाता है। यवनी-संज्ञा स्त्री० [सं०] यवन की या यवन जाति की स्त्री। यवान-संज्ञा पुं० [सं० ] जौ का भूसा। यघनेष्ट-संज्ञा पुं० [सं०1 (1) सीसा । (२) मिर्च । (३) लहसुन। । यवाग्रज-संज्ञा पुं० [सं०] (1) यवक्षार । (२) अजवायन । (४) नीम । (५) प्याज । (६) शलजम । (७) गाजर । यवान-वि० [सं०] वेगवान् । तेज़ । क्षिप्र । यवफल-संशा पुं० [सं०] (१) इंद्रजौ । (२) कुटज । (३) यवानिका, यवानी-संज्ञा त्रा० [सं०] अजवायन । प्याज । (४) जटामामी। (५) बाँस । (६) लक्ष वृक्ष । यवाम्ल-संशा पुं० [सं० ] जो की कॉजी, जो वैद्यक में वात और पाकद का वेड़। इलेपमानाशक, रक्तवर्द्धक, भेदक तथा रक्त-दोषनाशक मानी यवबिंदु--संज्ञा पुं० [सं०] वह हीरा जिसमें विंदु-सहित यबरेवा जाती है। हो। कहते हैं कि ऐसा हीरा पहनने से देश छूट जाता है। यचाश-संज्ञा पुं० [सं०] एक प्रकार का कीरा जो जौ की फसल यवमंड-संज्ञा पुं० [सं० ] जौ का माद जो नए ज्वर के रोगी को हानि पहुंचाता है। को पथ्य के रूप में दिया जाता है। वैद्यक के अनुसार यवास-संशा पुं० [सं०] जवासा नामक काँटेदार क्षुप । वि० यह लघु, ग्राहक और शूल तथा त्रिदोष का नाश दे. “जवासा"। करनेवाला है। यविष्ठ-संज्ञा पुं० [सं०] (१) छोटा भाई । (२) अग्नि। (३) यवमंथ-संज्ञा पुं० [सं०] जौ का सत्त ।। ऋग्वेद के एक मंत्र के द्रष्टा ऋषि का नाम जिन्हें अनियविष्ठ यमती-संशा स्त्री० [सं०] एफ वर्णवृत जिसके विषम चरणों भी कहते हैं। में रगण, जगण, जगण होते और सम चरणों में जगण.! वि० [सं०] सब से छोटा । कनिष्ठ ।