पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर भाग ५.pdf/५७

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चकुचना २३५० बकौरा नाम जो अपने स्तन में विष सगाकर कृष्ण को मारने के : यकुर-संज्ञा पुं० [सं०] (1) भास्कर । सूर्य । (२) तुरही। लिए गई थी। कृष्ण ने उसका दूध पीते समय ही उसे । (३) बिजली। मार डाला था। संशा पुं० दे० "बक्कुर"। यकुचना*-क्रि० अ० [हिं० बकुना, सं० विकुंचन] सिमटना ।। अकरना-क्रि० अ० दे० "करना"। सुकड़ना । संकुचित होना । उ०-लाज के मार लधी चकुराना -क्रि० स० [हिं० बकुग्ना का प्रेरण० रूप ] कबूल तरुनी बकुची बरुनी सकुची सतरानी।-देव। । कराना । मंजूर कराना । कहलाना । बकुचा-संज्ञा पु० [हिं० बकुचना । | श्री. बकुची ] छोटी गठरी। ' विशेष—इस शब्द का प्रयोग प्रायः ऐसी अवस्था में होता है बकचा । उ०(क) जाही जूही बकुचन लावा । पुहुप ।। जय किसी को भूत लगा होता है। लोग उसमे भृत सुदरपन लाग सुहावा ।—जायसी । (ख) फमरी भोरे : का नाम पता आदि कहलाने के लिए प्रयोगादि द्वारा दाम की आवै बहुतै काम । खासा मग्वमल चाफता उन कर । बाध्य करते हैं और उससे नाम पता आदि कहलवाते हैं। राखै मान । उनकर राव मान धुंद जहँ आड़े आवे । बकुचा बकुल-संज्ञा पुं० [सं०] (१) मौलसिरी । (२) शिव । महादेव । बाँधै मोट राति को झारि बिछाये। गिरधरराय। (३) एक प्राचीन देश का नाम । यकुचाना-कि०म० [हैि. बकु ना ] किसी वस्तु को बकुचे में बकुल दरर-संज्ञा पुं० [हिं० बकुला+टरर अनु० ] पानी की एक बाँधकर कंधे पर लटकाना या पीछे पीठ पर बांधना। ! चिड़िया जिसका रंग सफेद होता है और जो डील दोल बकुची-संज्ञा स्त्री० [सं० बाकुची ] एक पौधे का नाम जत्रे हाथ में आदमी के बराबर ऊँची होती है। सवा हाथ ऊँचा होता है। इसकी पत्तियाँ एक अंगुल चौड़ी बकुला -संज्ञा पुं० दे० "बगला"। होती है और हालियाँ पृथ्वी से अधिक ऊँची नहीं होती . बकन, बकेना-संज्ञा स्त्री० [सं० वाकाणी ] वह गाय या भैय और इधर उधर दूर तक फैलती हैं। इसका फूल गुलाबी जिसे बचा दिये साल भर से अधिक हो गया हो और जो रंग का होता है। फूलों के झड़ने पर छोटी छोटी फलियाँ बरदाई न हो और दृध देती हो। ऐसी गाय का दूध घौद में लगती है जिनमें दो से चार तक गोल गोल चौड़े अधिक गादा और मीठा होता है । लबाई का उलटा । और कुछ लबाई लिए दाने निकलते है। दानों का छिलका बकेल:/-संज्ञा स्त्री० [हिं० बकला | पलाप की जड़ जिसे कटकर काले रंग का, मोटा और ऊपर से खुरदुरा होता है। रस्मी बनाते हैं। छिलके के भीतर सफेद रंग की दो दालें होती हैं जो बहुत , बकैयाँ-संज्ञा पुं० [सं० वक्र ऐया (प्रत्य॰)] बच्चों के चलने ककी होती है और बड़ी कठिनाई से टूटती है। बीज से का वह दंग जिसमें वे पशुओं के समान अपने दोनों हाथ एक प्रकार की सुगंध आती है । यह औषध में काम आता और दोनों पैर ज़मीन पर टेककर चलते हैं। घुटनों के बल है। पद्यक में इसका स्वाद मीठापन और घरपरापन लिए चलना। कडवा बताया गया है और इमेवा, रुचिकर, सारक, बकोट-संज्ञा स्त्री० [सं० प्रकोष्ठ या अभिकोष्ठ पा० पकाठ ] (1) त्रिदोषन और रसायन माना है। इसे कुष्टनाशक और बजे की वह स्थिति जो किसी वस्तु को ग्रहण करने या स्वधरोग की औषधि भी बतलाया है। कहीं कहीं काले फूल नोचने आदि के समय होती है। हाथ की उंगलियों की की भी बकुची होती है। संपुटाकार मुद्रा । (२) किसी पदार्थ की उतनी मात्रा जो पर्या०-सोमराजी । कृष्णफला । बाकुची। पूतिफला । एक बार चंगुल में पकड़ी जा सके। जैसे,-एक बकोट आटा । बेजानी । कालमेपिका । अबल्गुजा । दयी। शूलो (३) बकोटने या नोचने की क्रिया या भाव । स्था । कांघोजी । सुपर्णिका। बकोटना-क्रि० स० [हिं० बकोट ] बकोट से किसी को नोधना। संशा स्त्री० [हिं० बकुचा ] छोटी गठरी। नावनों से नोचना । पंजा मारना। निखोटना। उ० होती मुहा०-बकुची बाँधना वा मारना हाथ पैर समेट के गठरा जो कुबरी यां, सखी, मारि लातन मूकन बकोटती के आकार का बन जाना । जैसे,—वह बकुची मारकर कूदा। केती। रसखान । बकुचौहाँ-वि० [हिं० बकुचा औहाँ (प्रत्य॰)] [स्त्री० बकुचौही] बकोरी*-संशा स्त्री० दे. "गुलबकावली"। उ०—कोई सो बोल- बकुचे की भाँति । बकुचे के समान । उ.-मधुकर कान्ह सर पुहुप बकोरी । कोई रूप मंजरी गोरी।—जायसी। कही नहि होही । के ये नई सीख सिखई हरि निज अनुराग बकौड़ा-संशा पुं० [हिं० बफल ] पलाश की कूटी हुई जड़ जिस- विछोही । राखौ साचे कूबरी पीठि पै ये बातें बकुचौही। से रस्सी बटी जाती है। स्थाम सो गाहक पाय सयानी खोलि देखाइह गोही संज्ञा पुं० दे० "धकौंरा"। -तुलसी। बकौरा-संज्ञा पुं० [हिं० घाँका ] वह टेदी लकबी जो बैलगाड़ी के नलिए