पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर भाग ५.pdf/५७१

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

योग प्रयोजन या उद्देश्य के । केवल मन की प्रवृत्ति से । जैसे,- मैं उधर याही चला गया; उससे मिलने नहीं गया था। यो-सर्व० दे० "यह"। योगंधर-संज्ञा पुं० [सं०] (१) प्राचीन काल का एक मंत्र जो अस्त्र शम्न आदि के शोधन के लिए पढ़ा जाता था। (२) पीतल । योग-संज्ञा पुं० [सं०] (1) दो अथवा अधिक पदार्थों का एक : में मिलना । संयोग । मिलान । मेल । (२) उपाय । तरकीब । (३) घान । (४) संगति । (५) प्रेम । (६); छल । धोखा । दगाबाज़ी । जैसे, योग-विक्रय । (७) प्रयोग। (4) औषध । देवा । (५) धन । दोलन । (१०) नैयायिक (11) लाभ । फायदा । (१२) वह जो किसी के साथ विश्वासघात करे । दगाबाज़ । (१३) कोई शुभ काल । अच्छा समय या अवसर । (१४) घर । दूत । (१५) एकदा । बैलगाडी । (१६) नाम । (१७) कौशल । चतुराई। होशियारी । (१८) नाव आदि सवारी । (१९) परिणाम । . नतीजा । (२०) नियम । कायदा । (२१) उपयुक्तता। (२२) साम, दाम, दंड और भेद ये चारों उपाय । (२३) वह उपाय जिसके द्वारा किसी को अपने वश में किया जाय । वशीकरण । (२४) सूत्र । (२५) संबंध । (२६) सद्भाव । (२७) धन और संपत्ति प्राप्त करना तथा बढ़ाना। (२५) मेल-मिलाप । (२५) तप और ध्यान । वैराग्य । (३०) गणित में दो या अधिक राशियों का जोड। (३१) एक प्रकार का छंद जिसके प्रत्येक चरण में १२, 4 के विश्राम मे २० मात्राएँ और अंत में यगण होता है। (३२) ठिकाना। सुभीता । जुगाद। तार-घात । उ०-नहिं लग्यो भोजन योग नहीं कहूँ मिल्यो निवपन ठऔर।घुराज । (३३) फलित ज्योतिष में कुछ विशिष्ट काल या अवसर जो सूर्य और चंद्रमा के कुछ विशिष्ट स्थानों में आने के कारण होते हैं और जिनकी संख्या २७ है। इनके नाम इस प्रकार है-विष्कम, प्रीति, आयुष्मान्, सौभाग्य, शोभन, अतिगत, सुकर्मा, ति, शूर, गंड, वृद्धि, धूव, व्याघात, हर्षण, वज्र, असृक, व्यतीपात, परीयान् , परिच, शिव, : सिन्छ, माध्य, शुभ, शुक, बम, इंद्र और वैधृति । इनमें से कुछ योग ऐसे हैं, जो शुभ कार्यों के लिए वर्जित है और कुछ ऐसे हैं जिनमें मे शुभ कार्य करने का विधान है। (३४) फलित ज्योतिष के अनुसार कुछ विशिष्ट तिथियों, वारों और नक्षत्रों आदि का एक साथ या किसी निश्चित नियम के अनुसार पड़ना । जैसे, अमृतयोग, सिद्धि योग । (३५) वह उपाय जिसके द्वारा जीवात्मा जाकर परमात्मा में मिल जाता है। मुकिया मोक्ष का उपाय । (३६) दर्शनकार पतंजलि के अनुसार चित्त की वृसियों को चंचल होने से रोकना । मन को इधर उधर भटकने न देना, केवल एक ही वस्तु में स्थिर रखना। (३७) छः दर्शनों में से एक जिसमें चित्त को एकान करके ईश्वर में लीन करने का विधान है। विशेष-योग-दर्शनकार पतंजलि ने आत्मा और जगत् के संबंध में सांख्य दर्शन के सिद्धांतों का ही प्रतिपादन और समर्थन किया है। उन्होंने भी वही पचीस तस्व माने हैं, जो सांख्यकार ने माने हैं। इनमें विशेषता यही है कि इन्होंने कपिल की अपेक्षा एक और छब्बीसवाँ तस्त्र 'पुरुष विशेष' या ईश्वर भी माना है, जिससे सांस्य के अनीश्वरवाद से ये बच गए हैं। पतंजलि का योगदर्शन समाधि, साधन, विभूति और कैवल्य इन चार पादों या भागों में विभक्त है। समाधि पाद में यह बतलाया गया है कि योग के उद्देश्य और लक्षण क्या है और उसका साधन किस प्रकार होता है । साधन पाद में क्लेश, कर्मविपाक और कर्मफल आदि का विवेचन है। विभूति पाद में यह बतलाया गया है कि योग के अंग क्या है, उसका परिणाम क्या होता है और उसके द्वारा अणिमा, महिमा आदि सिद्धियों की किस प्रकार प्राप्ति होती है। कैवल्य पाद में कैवल्य या मोक्ष का विवेचन किया गया है। संक्षेप में योगदर्शन का मत यह है कि मनुष्य को अविद्या, अस्मिता, राग, द्वेष और अभिनिवेश ये पाँच प्रकार के क्लेश होते हैं; और उप कर्म के फलों के अनुसार जन्म लेकर आयु व्यतीत करनी पड़ती है तथा भोग भोगना पड़ता है। पतंजलि ने इन सब से बचने और मोक्ष प्राप्त करने का उपाय योग बतलाया है; और कहा है कि क्रमशः योग के अंगों का साधन करते हुए मनुष्य सिद्ध हो जाता है और अंत में मोक्ष प्राप्त कर लेता है। ईश्वर के संबंध में पतंजलि का मत है कि वह नित्यमुक्त, एक, अद्वितीय और तीनों कालों से अतीत है और देवताओं तथा ऋषियों आदि को उसी से ज्ञान प्राप्त होता है। योगवाले संसार को दुःखमय और हेय मानते हैं। पुरुष या जीवात्मा के मोक्ष के लिए वे योग को ही एक मात्र उपाय मानते हैं। पतंजलि ने चित्त की क्षिप्त, मूल, विक्षिस, निरुद्ध और एकाम ये पाँच प्रकार की वृत्तियाँ मानी हैं, जिनका नाम उन्होंने वित्तभूमि रखा है और कहा है कि आरंभ की तीन चित्तभूमियों में योग नहीं हो सकता, केवल अंतिम दो में हो सकता है। इन दो भूमियों में संप्रज्ञात और असंप्रज्ञात ये दो प्रकार के योग हो सकते हैं। जिस अवस्था में ध्येय का रूप प्रत्यक्ष रहता हो, उसे संप्रज्ञात कहते है। यह योग पाँच प्रकार के क्लेशों का नाश करने वाला है। असंप्रज्ञात उस अवस्था को कहते हैं, जिसमें