पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर भाग ५.pdf/५७२

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योगकन्या २८६३ योगनाविक किसी प्रकार की वृत्ति का उदय नहीं होता; अर्थात् ज्ञाता : योगकंडलिनी-संज्ञा स्त्री० [सं०] एक उपनिपद का नाम । और शेय का भेद नहीं रह जाता, संस्कारमात्र बच्च (यह प्राचीन उपनिषदों में नहीं है।) रहता है । यही योग को चरम भूमि मानी जाती है और योगक्षेम-संज्ञा पुं० [सं०] (१) जो वस्तु अपने पास न हो, इसकी सिद्धि हो जाने पर मोक्ष प्राप्त होता है। योग-साधन उसे प्राप्त करना; और जो मिल की हो, उसकी रक्षा का उपाय यह बतलाया गया है कि पहले किसी स्थूल करना । नया पदार्थ प्राप्त करना और मिले हुए पदार्थ की विषय का आधार लेकर उसके उपरांत किसी सूक्ष्म वस्तु । रक्षा करना। को लेकर और अंत में सब विषयों का परित्याग करके विशेष-भिन्न भिन्न आचार्यों ने इस शब्द से भिन्न भिन्न चलना चाहिए और अपना चित्त स्थिर करना चाहिए। अभिप्राय लिये हैं। किसी के मत से योग से अभिप्राय चित्त की वृत्तियों को रोकने के जो उपाय बतलाए गए शरीर का है और क्षेम मे उसकी रक्षा का; और किती हैं, वे इस प्रकार है-अभ्यास और वैराग्य, ईश्वर का के मत से योग का अर्थ है धन आदि प्राप्त करना और क्षेम प्रणिधान, प्राणायाम और समाधि, विषयों से विरक्ति । से उसकी रक्षा करना। आदि। यह भी कहा गया है कि जो लोग योग का (२) जोवन-निर्वाह । गुजारा । (३) कुशल-मंगल । अभ्यास करते हैं, उनमें अनेक प्रकार की विलक्षण शक्तियाँ ग्वैरियत । (४) दूसरे के धन या जायदाद की रक्षा । (५) आ जाती हैं, जिन्हें विभूति या सिद्धि कहते हैं। वि० दे० । लाभ । मुनाफ़ा । (६) ऐसी वस्तु जिसका उत्तराधिकारियों "सिद्धि" यम, नियम, आपन, प्राणायाम, प्रत्याहार, में विभाग न हो। (७) राष्ट्र की सुव्यवस्था। मुल्क का धारणा, ध्यान और समाधि ये आठों योग के अंग कहे अच्छा इंतजाम । गए हैं और योग-सिद्धि के लिए इन आठों अंगों का साधन योगचक्षु-संशा पुं० [सं० योगचक्षु ] ग्राह्मण । आवश्यक और अनिवार्य कहा गया है। इनमें से प्रत्येक योगचर-संज्ञा पुं० [सं० ) हनुमान् । के अंतर्गत कई बातें है। कहा गया है कि जो व्यक्ति यांगज-संज्ञा पुं० [सं० 1 (१) योग-साधन की वह अवस्था यांग के ये आठों अंग सिद्ध कर लेता है, वह सब प्रकार के जिसमें योगी में अलौकिक वस्तुओं को प्रत्यक्ष कर दिखलाने क्लेशों से छूट जाता है, अनेक प्रकार की शक्तियाँ प्राप्त कर की शक्ति आ जाती है । युक्त और युंजान दोनों इसी के लेता है और अंत में कैवल्य (मुक्ति) का भागी होता है। भेद हैं। (यह नैयायिकों के अलौकिक सन्निकर्ष के तीन ऊपर कहा जा चुका है कि सृष्टि-तत्त्व आदि के विभागों में से एक है। शेष दो विभाग सामान्य लक्षण संबंध में योग का भी प्रायः वही मत है जो सांख्य का है; और ज्ञान लक्षण है।) (२) अगर लकड़ी । अगरु । इससे सांख्य को शान-योग और योग को कर्म योग भी योगजफल-संज्ञा पुं० [सं०] वह अंक या फल जो दो अंकों को कहते हैं। पंतजलि के सूत्रों पर सब से प्राचीन भाष्य : जोड़ने में प्राप्त हो। जोन । योग । (गणित) वेदध्यापजी का है। उस पर वाचस्पप्ति का वार्तिक है। योगतत्व-संज्ञा पुं० [सं०] एक उपनिषद् का नाम, जो प्राचीन विज्ञानभिक्षु का 'योगसार-संग्रह' भी योग का एक प्रामा- दस उपनिषदों में नहीं है। णिक ग्रंथ माना जाता है। सूत्रों पर भोजराज की भी , यांगतारा-संगा पुं० [सं०] (१) किसी क्षम्र में का प्रधान एक वृत्ति है। पीछे से योगशास्त्र में तंत्र का बहुत तारा । (२) एक दूसरे से मिले हुए तारे । सा मेल मिला और 'फायब्यूह' का बहुत विस्तार किया : यांगत्व-संज्ञा पुं० [सं०] योग का भाव । गया, जिसके अनुसार शरीर के अंदर अनेक प्रकार के चक्र योगदर्शन-संज्ञा पुं० [सं०] महर्षि पतंजलि कृत योगसूत्र । वि. आदि कल्पित किये गये। क्रियाओं का भी अधिक विस्तार दे "योग"। हुआ और हठ योग की एक अल्ला शाखा निकली, जिसमें , योगदान-संशा पुं० [सं०] (१) किसी काम में साथ देना । हाथ नेती, धोती, वस्ती आदि षटकर्म तथा नादी-शोधन आदि बँटाना । (२) कपट दान । (३) योग की दीक्षा । का वर्णन किया गया। शिवसंहिता, हठयोगप्रदीपिका, ! योगधर्मी-संज्ञा पुं० [सं० योगम्मिन् ] योगी। घेरंड संहिता आदि हठयोग के ग्रंथ है। हठयोग के बड़े । यांगधाग-संशा स्त्री० [सं०] ब्रह्मपुत्र की एक सहायक नदी का भारी आचार्य मत्स्येन्द्रनाथ (मछंदरनाथ) और उनके नाम । शिष्य गोरखनाय हुए हैं। योगनंद-संज्ञा पुं० [सं०] मगध के राजा नौ नंदों में से एक नंद योगकन्या-संज्ञा स्त्री० [सं०] यशोदा के गर्भ से उत्पन्न कन्या, . का नाम । वि० दे० "नंद"। वसुदेव जिसे ले जाकर देवकी के पास रख आए थे और योगनाथ-संज्ञा पुं० [सं० ] शिव । जिसे कंस ने मार डाला था। योगमाया । योगनाविक-संज्ञा पुं० [सं०] एक प्रकार की मछली।