पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर भाग ५.pdf/५७३

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यांगनिद्रा २८६४ योगशास्त्री योगनिद्रा-संज्ञा स्त्री० [सं०] (5) युग के अंत में होनेवाली योगरथ-संज्ञा पुं० [सं०] वह साधन जिससे योग की प्राप्ति हो। विष्णु की निद्रा, जो दुर्गा मानी जाती है। (२) रणभूमि योगराजगुग्गुल-संज्ञा पुं० [सं०] कई द्रव्यों के योग से बनी में वीरों की मृत्यु । (३) योग की समाधि । हुई एक प्रसिद्ध औपध जिसमें गुग्गुल ( गूगल ) प्रधान योगनिद्रालु-संज्ञा पुं० [सं०] विष्णु, जो प्रलय के समय योग- है। यह औषध गठिया, वात रोग और लकव के लिए अत्यंत निद्रा लेते हैं। उपकारी है। योगनिलय-संज्ञा पु० [सं०] महादेव । योगरूदि-संज्ञा स्त्री० [सं० ] दो शब्दों के योग से बना हुआ वह योगपट्ट-संज्ञा पुं० [स० | प्राचीन काल का एक पहनावा जो पीठ शब्द जो अपना सामान्य अर्थ छोड़कर कोई विशेष अर्थ पर में जाकर कमर में बाँधा जाता था और जिससे घुटनों बतावे । जैसे, त्रिशूलपाणि, चंद्रभाल, पंचशर इत्यादि। तक का अंग ढका रहता था। साधुओं का अँचला। (शास्त्रों योगरोचना-संज्ञा स्त्री० [सं०] इंद्रजाल करनेवालों का एक प्रकार का विधान है कि जिसके बड़े भाई और पिता जीवित हों का लेप । कहते हैं कि शरीर में यह लेप लगा लेने से उसे ऐसा वस्त्र नहीं पहनना चाहिए। आदमी अदृश्य हो जाता है। योगपति-संज्ञा पु० [सं. (१) विष्णु । (२) शिव । योगवान्-संज्ञा पुं० [सं० योगवर [ श्री. योगवती । योगा। योगपत्नि-संशात्री । सं0 ] योगमाता । पीवरी । योगवाणी-संज्ञा पुं० । सं०] हिमालय के एक तीर्थ का योगपदक-संशा गु० [सं०] पूजन आदि के समय पहनने का नाम । चार अंगुल, चौड़ा एक प्रकार का उत्तरीय वस्त्र । (यह बाघ योगवाशिष्ठ-संज्ञा पुं० [सं०] चेदांत शास्त्र का एक प्रसिद्ध ग्रंथ के चमडे, हिरन के चमड़े अथवा सूत का बना हुआ होता जो बशिष्ठजी का बनाया कहा जाता है। इसमें वशिष्ट की था और यज्ञमूत्र की भांति पहना जाता था।) ने रामचंद्र को वेदांत का उपदेश किया है। इसमें पैराग्य, योगपाद-संशा ए00 जैनियों के अनुसार वह कृत्य जिससे मुमुक्षु व्यवहार, उत्पत्ति, स्थिनि, उपश और निर्वाण ये अभिमत की प्राप्ति हो। छ: प्रकरण हैं। इसे लोग वाल्मीकि रामायण का उत्तरखंड योगपाग-संज्ञा पु० [सं०] (9) शिव । (२) पूर्ण योगी। मानते हैं और वशिष्ठ रामायण भी कहते हैं। योगपीठ-संशा पु0 101 देवताओं का योगासन । योगवाह-संज्ञा पुं० [सं० ] अनुस्वार और विसर्ग । योगफल-संशा पु० [सं० ) दो या अधिक संख्याओं को जोड़ने यांगवाही-संज्ञा पुं० [सं० योगवाहि भिन्न गुणों को दो या कई में प्राप्त संख्या। ओषधियों को एक में मिलाने योग्य करनेवाली ओपधि या यांगबल-संज्ञा पुं० [सं०] वह शक्ति जो योग की साधना से द्रव्य । योग का माध्यम । प्राप्त हो। तपोवल । संज्ञा स्त्री० [सं०] (1) पारा । (२) सजीवार । योगभ्रट-वि० [स. जिसका योग की साधना चित्त-विक्षेप यांगविक्रय-संशा पु० [सं०] थोरख या बेईमानी के साथ विक्री। आदि के कारण पूरी न हुई हो। जो योग-मार्ग से व्युत्त हो घाल-मेल का सौदा। गया हो। योगविद्-संज्ञा पुं० सं०] (1) योगशास्त्र का ज्ञाता। (२) यांगमय-संज्ञा पुं० [सं०विष्णु । महादेव । (३) ओषधियों को मिलाकर औषध बनानेवाला। योगमाता-संशा सा . [ सं० योगमात ] (१) दुर्गा । (२) पीवरी। (४) बाजीगर । योगमाया-संशा सा | म० ] (1) भगवती, जो विष्णु की माया योगवत्ति-संज्ञा स्त्री० [सं०] चित्त का वह शुभ वृत्ति जो योग है। (२) वह कन्या जो यशोदा के गर्भ से उत्पन्न हुई थी के द्वारा प्राप्त होती है । और जिस कंग्स ने मार डाला था। कहते हैं कि यह स्वयं योगशक्ति-संशा श्री० [सं०] योग के द्वारा प्राप्त होनेवाली शक्ति । भगवती थी। वि० दे० "कृष्ण" । उ०-देखी परी योग तपोबल। माया वसुदेव गोद करि लाही हो।—सूर । योगशब्द-संज्ञा पु० [सं०] वह योगिक शब्द जो योगरूढ़ि न योगमूर्तिधर-सया पु० [सं०] (1) शिव । (२) एक प्रकार हो, बल्कि धातु के अर्थ ( सामान्य अर्थ ) का बोधक हो। के पितृ । योगशरीरी-संज्ञा पुं० [सं० योगशगरिन् ] योगी । यांगयात्रा-संज्ञा भी . [ सं . ] फलित ज्योतिष के अनुसार वह योगशास्त्र-संशा पु० [सं०] पनंजलि ऋपि का बनाया हुआ यांग जो यात्रा के लिए उपयुक्त हो। योग-साधन पर एक बड़ा ग्रंथ जिसमें चित्तवृत्ति को रोकने के योगयोगी-संज्ञा पु० [सं० योगयागिन ] वह योगी जो योगासन उपाय बतलाए गये हैं। यह छ: दशेनों में से एक दर्शन है। पर बैठा हो। दे. "योग"। यांगरंग-संशा पु० [सं०] नारंगी। . योगशास्त्री-संज्ञा पुं० [सं०] योग-शास्त्र का ज्ञाता ।