पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर भाग ५.pdf/५८९

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रक्तपिंडक २८८० रक्तरसा रक्तपिंडक- Y+ {H०] (१) रताल। (२) जवा । बहुल। रक्तप्रवृत्ति-समा पु० [सं०] वह रोग जो पित्त के प्रकोप से रक्तपिंडा- ..! मरताल । उत्पन्न हो। रक्तपित्त-मता [स.. 1(१) एक प्रकार का रोग जिन्पमें रक्तप्रसव-संभा पु [सं० (१) लाल कनेर। (२) मुचकुंद वृक्ष। मुँह, नाक, गुदा, योनि आदि इंद्रियों से रन गिरता : रकफल-संज्ञा " {सं०] (1) शाल्मलि । सेमल । (२) बट का है। यह रोग धूप में अधिक रहने, बहुत व्यायाम करने, वृक्ष । वर का पेस। नीटण पदार्थ खाने और बहुत अधिक मैथुन करने के कारण रक्तफला-संशा मी० [सं०] (1) कुंदरू । तुष्टी। विधी । (२) होता है। त्रियों को रजोधर्म ठीक न होने के कारण भी। स्वर्णवल्ली। हो जाता है। यह रांग पित्त के कुपित होने से होता है। रकफल-संशा ( सं० रक्त+हिं. फूल ] (9) जवा पुथ्य । अब- (२) नाक में लह बहना । नकसीर । हुल का फूल । (२) पलाश का वृक्ष । रक्तपित्तहा-मया . [सं०] रतनी नाम की दूच । रक्तफनज-संज्ञा पुं० [सं० ] फुफ्फुस । फेफया। रक्तपित्ती-संगु सं. रमपित्तिन् ] जिये रक्त पित्त रोग हो। रक्तभव-संज्ञा पुं० [सं०] मांस । गोश्त । रक्तपुच्छक-संशा ए० [सं०] एक प्रकार का रंगनेवाला कीड़ा। रक्तमंजर-संज्ञा पुं० [सं०] (1) बंत की लता। (२) नीम का रक्तपुनर्नवा-मज्ञा स्त्री. म. ] लाल रंग की पुनर्नवा या गदह- वेद। पूर्ना । वैद्यक में इस तिक्त, सारक और रक्त प्रदर, पाण्डु . रनमंजगे-संशा स्त्री० [सं० ] लाल कनेर । तथा पिप्स आदि का नाशक माना है। रक्तमंडल-संशा पुं० [सं०] (१) सुश्रुत के अनुसार एक प्रकार का पाग---करा मंडलपत्रिका । रककांता । वर्षकेतु । लोहिता। माप। (२) लाल कमल । (३) एक प्रकार का जहरीला पशु। रक्तपत्रिका । बैशावी। पुरिपका । विषनी । सारिणी : रत्तमंडलिका- 10 [सं०] लाल लजावंती या लजालू । वर्षाभव । भौम । पुनर्भव । नत्र । नव्य। रक्तमत्त-संज्ञा पुं० [सं०] वह जो रक्त पीकर नृप्त हो । जैसे, रक्तपुष्प-मंशा ५० मि (1) करवीर । कनेर । (२) अनार का , जोक आदि। पेड़। (३) चंक का पेड़ । गल.दुपहरिया (3) पुनाग। रक्तमत्पर-संभा0 | सं०] एक प्रकार की लाल रंग की मछली रक्तपुष्पक-संयु० [सं०] (१) पलाय का पेड़। (२) समल : जो बहुत बड़ी नहीं होती। वैद्यक में इम्का मांस शीतल, __का पंड़ । शाल्मलि । रुचिकारक, पुष्टिकारक, अग्निदीपक और त्रिदोषनाशक माना रक्तपुष्पा- Ho [ ० ] (1) शाल्मली तृन । में.मन्ट । (२) गया है। पुनर्नवा । (३) सिंदूरी। (४) चंश केला। (१) नागदौन। रक्तमस्तक-संशा पु• [सं०] लाल रंग के विरवाला सारस पक्षी। रक्तपुष्पिका- 1 [म..] (1) लाल पुनर्नवा । (२) लजाल। रक्तमातृका-संज्ञा० [भं०] (१) वैद्यक के अनुसार वह रस लाजवंती । नामक धातु जिसकी उत्पत्ति पेट में पचे हुए भोजन मे होती रनपुप्पी-मज्ञा (1) जवा । अड़हुल । (२) नागदान। है और जिससे रक्त बनता है। (२) तंत्र के अनुसार एक (३) धा। (१) आवर्तकी नाम की लता। () पांढर। प्रकार का रोग। रक्तपूतिका-HIM 140 लाल रंग की पूनिका । लाल रक्तमुख-संशा सं०] (9) रोह मलली। (२) यष्टिक धान्य । गाई। द्यक में यह स्निग्ध और मूत्रवर्धक मानी गई है। रक्तमर्दा-संक्षा पु०सं० रक्तमूछन् ] सारस । बच्चों के कई रोगों में और मूजाक में इसका याग गुणकारी रक्तमुलक-मना पु० सं० ] देवसर्पप नाम की सरसों का पेड़। माना गया है। शास्त्र में इसका साग खाने का निषेध है। रक्कमूला-संश। श्री० [सं० ] लजालू। रक्तय-संशा ५० स० पुराणानुसार एक नरक का नाम । रक्तमह-सज्ञा पुं. दे. "रसप्रमेह" । रक्तपरक-मक्षा में इमली। रक्तमोक्षण-संज्ञा पुं० [सं०] वैद्यक के अनुसार, शरीर का खून रक्त प्रतिस्याय-संशा (म0 प्रतिश्याय या जकाम का एक खराब हो जाने पर उसे बाहर निकालने की क्रिया। फस्द। भेद जिसमें नाक से खून जाता है, ऑर्वे लाल हो जाती रक्तमंचन-संज्ञा पुं० [सं० ] शरीर का खून निकालना । शीर । है, छाती में पीड़ा होती है और मुंह तथा मांस से बहुत दुगंध आती है । बिगड़ा हुआ जुकाम । रक्तयष्टि-संज्ञा स्त्री० [सं० ] मजीठ । रजापदर-शा F० म. jप्रदर रोग का वह भेद जिसमें स्त्रियों : रक्तरंगा-संशा श्री० [सं० ) मेहँदी। की योनि में रक्त, बहता है। वि० दे. "प्रदर"। : रक्तरज-संहा पुं० [सं० रक्तरजम् ] सिंदूर । रक्तप्रमह- मं ० [सं० ! पुरुषों का एक रोग जिसमें दुर्गधि रक्तरस-संज्ञा पुं० [सं० ] बिजैयार । एक्कासन । युक्त, गरम, ग्वारा और खून के रंग का पेशाय होता है। रक्तरसा-संशा स्त्री० [सं०] रास्ना ।