पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर भाग ५.pdf/६८

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बजाज २३६१ वझवट बिजली। उ०—ागि लगै सेरे काल के शीश परो हर बजाय-अव्य० [फा० ] स्थान पर । जगह पर । बदले में । जैसे, जाय बजागि परौ जू । आजु मिली तो मिलौ ब्रजराजहि अगर आपके बजाय मैं वहाँ पर होता तो कभी यह बात नाहि तो नीके है राज करौ जू। केशव । न होने पाती। बजाज-संशा पुं० [अ० बज्जाज] [स्त्री० बजाजिन ] कपड़े का बजार* -संज्ञा पुं० [ फा बासार ] वह स्थान जहाँ बिक्री के ध्यापारी। कपड़ा बेचनेवाला। उ०—(क) बैठे बजाज लिए दूकानों में पदार्थ रखे हों। हाट । पैंठ। बाजार । सराफ बनिक अनेक मनहुँ कुबेर ते।-तुलसी । (ख) उ०—(क) हीरा परा बजार में रहा छार लपटाय । बहुतक अपने गोपाल लाल के में बागे रचि लेॐ। बजाजिन है मूरुख चलि गए पारखि लिया उठाय ।-कोर । (ख) जाउँ निरखि नैनन सुख देऊँ। सूर । चारु बजार विचित्र अबारी । मनिमय विधि जनु स्वकर बजाजा-संज्ञा पुं० [फा०] बजाजों का बाजार । वह स्थान जहाँ __ सँवारी ।-सुलसी । (ग) छूटे हग गज मीत के बिच यह बजाजों की दूकानें हों। कपड़े बिकने का स्थान । प्रेम बजार । दीजै नैन दुकान के मुहकम पलक केवार । बजाजी-संशा स्त्री० [फा०] (1) कपडा बेचने का म्यापार ।। -रसनिधि । बजाज का काम । (२) बजाज की दूकान का सामान । बजारी-वि० [हिं० बाजार+ ई (प्रत्य)] (1) बाजार से संबंध बिक्री के लिए खरीदा हुआ कपड़ा (क.) रखनेवाला । बाजारू। (२) साधारण । सामान्य । उ.- वजाना-कि० स० [हिं० बाजा ] (1) किसी बाजे आदि पर | कीर्ति बड़ी करतूति बड़ी जन बात बड़ी सो बडोई बजारी। आधात पहुँचा कर अथवा हवा का ज़ोर पहुँचा कर उससे --तुलसी। (३) दे. "बाजारी"। शब्द उत्पन्न करना । जैसे, तबला बजाना, बांसुरी बजाना, ! बजारु-वि० दे."बाजारू"। सीटी बजाना, हारमोनियम बजाना आदि । उ.--(क) | बजुआ-िसंज्ञा पुं० दे. "बाजू"। यंत्र बजावत हौं सुना टूटि गए सब तार। यंत्र विचारा | बजुल्ला -संज्ञा पुं० [फा० बाजू+उल्ला (प्रत्य॰)] बाँह पर पह- क्या करे गया बजावनहार । कबीर । (ख) मुरली बजाई नने का बिजायठ नाम का आभूषण । तान गाई मुसकाइ मंद, लटकि लटकि माई नृत्य में निरत यजखा-संज्ञा पुं० दे० "बिजूखा"। है।-पभाकर । (ग) ते हित गाय बजावत नाचत बर बजना* 1-क्रि० अ० दे. "बजना" । अनेक सिंगार बनायो । केशव । (घ) कहु नाचत गावत 'बजर* --संज्ञा पुं० दे० "वज्र"। कहूँ कहूँ बजावत बीन । सब में राजत आपु ही सब ही बजाता-वि० [फा० दगात ] दुष्ट । बदमाश । पाजी। कला प्रबीन ।-रसनिधि । (२) किसी प्रकार के आघात बजाती संज्ञा स्त्री० [फा० बदनात ] दुष्टता । यदमाशी । मे शब्द उत्पन्न करना । चोट पहुँचाकर आवाज़ निकालना। पाजीपन । जैसे, ताली बजाना। बज-संज्ञा पुं० दे० "वन"। महा०--(१) बजाकर डंका पीटकर । खुलमखुल्ला । उ०-। बजी-संज्ञा पुं० [सं० वनिन्द्र । (क) सुदिन सोधि सब साज सजाई । देउँ भरत कहँ राज 'बझना*-कि० अ० [सं० वर, प्रा० बझ+ना (प्रत्य॰) । (१) बजाई।-तुलसी । (ख) जब ते हरि अधिकार दियो। बंधन में पड़ना । बँधना । उ०—(क) चली प्रात ही ......................."अब मानिह दोष आपनो हम | गोपिका मटुकिन ले गोरस ।........"जीव पच्यो या ययाल ही बेच्यो आइ । सूरदास प्रभु के अधिकारी एही भए में अरु गए दसादर । बझे जाय ग्बगद ज्यो प्रिय छयि बजाइ । -सूर । (२) ठोंकना बजाना अच्छी प्रकार परीक्षा पटकनि लस ।--सूर । (ख) सुने नाना पुरान मिटत करना । देखभालकर भली भाँति ऑचना । नहि अज्ञान पढ़ न समुझे जिमि ग्वग कीर । बझत बिनहि विशेष—यह मुहाविरा मिट्टी के बरतन के ठोंकने बजाने से पास सेमर सुमन आस करत चस्त तेऊ फल दिनु लिया गया है। जब लोग मिट्टी के बरतन लेते हैं तब हीर । तुलसी । (२) अटकना । उलझना । फंसना । हाथ में लेकर ठोंककर और बजाकर उसके शब्द से फूटे टूटे (३) हठ करना । टेक करना । उ०--उपरोहित निमिवंश या सावित होने का पता लगाते हैं। को शतानंद मुनिराय। लियो नेग बझि राम मो, मम (३) किसी चीज़ से मारना । आधात पहुँचाना । चलाना। हिय बसो सदाय।-रघुराज । जैसे, लाठी बजाना, तलवार बजाना, पोली बजाना । उ० ! बझवटा-संशा स्त्री० [हिं० बाँझ+वद (प्रत्य०))] (1) बाँझ --हरी भूमि गहि लेइ दुवन सिर खड़ग बजावै । पर उप स्त्री । (२) गाय, भैंस या कोई मादा पशु जो बोझ कारज कर पुरुष में शोभा पावै ।-गिरिधर । हो। (३) अमके पौधों के डंठल जिनसे बाले तोड़ ली क्रि० स० पूरा करना । जैसे, हुक्म बजाना । गई हों।