पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर भाग ५.pdf/९०

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बन्नी २३८३ बनी-संज्ञा स्त्री॰ [देश] अन्न का तिहाई अथवा और कोई भाग बबकना-कि० अ० [ अनु० ] उत्तेजित होकर ज़ोर से बोलना। जो खेत में काम करनेवालों को काम करने के बदले में बमकना। दिया जाता है। चबर-संज्ञा पुं० [फा०] (1) बर्वरी देश का शेर । बदा शेर । बन्हि-संज्ञा स्त्री० दे० "वहि"। सिंह। (२) एक प्रकार का मोटा कम्मल जिसमें शेर की अपंसा-संशा पुं० [हिं० बाप+सं० अंश] पिता से मिला हुआ खाल की मी धारियां बनी होती हैं। अंश । बपौती । दाय। बबा-संज्ञा पुं० दे० "बाबा"। बप* -संशा पुं० [सं० वप्र ] बाप । पिता । बबुआ-सज्ञा पुं० [हिं० बाबू ] (1) बेटे या दामाद के लिए यौ०-अपमार-पिता को मारनेवाला । पितृधातक । प्यार का संबोधन शब्द । (पूरब )।(२) ज़मीदार। रईस। अपमार-वि० [हिं० बाप+मारना ] (१) पिता का घातक । वह ( पूरब ) जो अपने पिता की हत्या करे। (२) सब के साथ धोखा ! बधई-संज्ञा स्त्री० [हिं० वाबू का स्त्री.] (1) बेटी। कन्या। और अन्याय करनेवाला। (२) छोटी ननद । पति की छोटी बहन। (३) किसी ठाकुर बपतिस्मा-संशा पुं० [अ०] ईसाई संप्रदाय का एक मुख्य संस्कार सरदार या बाबू की बेटी। जो किसी व्यक्ति को ईसाई बनाने के समय किया जाता बबुर-संज्ञा पुं० दे. "बबूल"। है। इसमें पादरी हाथ में जल लेकर अभिमंत्रित करता बबूल-संज्ञा पुं० [सं० बम्बूरः ] मझोले कद का एक प्रसिद्ध काँटे- और ईसाई होनेवाले व्यक्ति पर छिड़कता है। यह संस्कार दार पेड़ जो भारत के प्राय: सभी प्रांतों में जंगली अवस्था विधर्मियों को ईसाई बनाने के समय भी होता है और में अधिकता से पाया जाता है। गरम प्रदेश और रेतीली ईसाइयों के घर जन्मे हुए बालकों का भी होता है। इस ज़मीन में यह बहुत अच्छी तरह और अधिकता से होता संस्कार के समय संस्कृत होनेवाले का एक अलग नाम भी है। कहीं कहीं यह वृक्ष सौ सौ वर्ष तक रहता है। इसमें रखा जाता है जो उसके कुल-नाम के साथ जोड़ दिया जाता छोटी छोटी पत्तियां, सूई के बराबर काँटे और पीले रंग के है। संस्कार के समय का यह नाम उनमें से कोई होता है छोटे छोटे फूल होते हैं। इसके अनेक भेद हैं जिनमें कुछ जो इजील में आए हैं। तो छोटी छोटी कंटीली बेलें हैं और बाकी बड़े बड़े वृक्ष । बपना*-क्रि० स० [सं० वपन ] बीज बोना । उ.--कहु को कुछ जातियों के बबुल तो बागों आदि में केवल शोभा के लहे फल रसाल बबुर बीज वपत ।-तुलसी। लिए लगाए जाते हैं, पर अधिकांश से इमारत और देती बपु-संज्ञा पुं० [सं० वपु] (१) शरीर। देह । (२) अवतार । (३) रूप। के कामों के लिए बहुत अच्छी लकड़ी निकलती है। इसकी बपुरा-वि० [सं० वराक ? ] बेचारा । अशक्त । गरीब । अनाथ । लकड़ी बहुत मजबूत और भारी होती है और यदि कुछ उ.--शिव बिरंचि कह मोह कोहै यपुरा आन । दिनों तक किसी खुले स्थान में पड़ी रहे तो प्रायः लोहे के बपौती-संशा स्त्री० [हिं० बाप+औती (प्रत्य॰)] बाप से पाई हुई समान हो जाती है। इसकी लकड़ी ऊपर से सफ़ेद और जायदाद । पिता से मिली हुई संपत्ति । अंदर से कुछ कालापन लिए लाल रंग की होती है। इससे बप्पा-संशा पुं० [हिं० बाप ] पिता । बाप । खेती के सामान, नावे, गाड़ियों और एक्कों के धुरे तथा पहिए विशेष—इस शब्द का प्रयोग कुछ प्रांतों में प्रायः संबोधन रूप आदि अधिकता से बनाए जाते हैं । जलाने के लिए भी यह में होता है। जैसे, अरे मैया, अरे बप्पा । लकड़ी बहुत अच्छी होती है क्योंकि इसकी आंच बहुत तेज़ बफारा-संशा पुं० [हिं० भाप+आरा (प्रत्य॰)] (1) औषध मिश्रित ! होती है और इसी लिए इसके कोयले भी बनाए जाते हैं। जल को औंटा उसकी भाप से शरीर के किसी रोगी अंग इसकी पतली पतली टहनियाँ, इस देश में, दातुन के काम को सेंकने का काम । में आती हैं और दांतों के लिए बहुत अच्छी मानी जाती क्रि० प्र०-देना।-लेना। हैं। इसकी जड़, छाल, सूखे धीज और पत्तियाँ ओषधि (२) वह औषध जिसकी भाप से इस प्रकार का सेंक किया के काम में भी आती हैं, और छाल का उपयोग चमका जाय । सिझाने और रंगने में भी होता है, पसियाँ और कच्ची बफौरी-संशा स्त्री० [हिं० भाप] भाप से पकाई हुई बरी। फलियाँ पशुओं के लिए चारे का काम देती हैं और सूखी विशेष-बटलोई में अदहन चढ़ाकर उसके मुंह पर बारीक कपड़ा टहनियों से लोग खेतों आदि में बाद लगाते हैं। सूखी बाँध देते हैं। जब पानी खुब उबलने लगता है तब कपड़े फलियों से पक्की स्याही भी बनती है और फूलों से शहद पर बेसन वा उर्द की पकौड़ी छोड़ते हैं जो भाप से ही की मक्खियाँ शहद निकालती हैं। इसमें गोंद भी होता पकती है। इन्हीं पकौपियों को बफौरी कहते है। है जो और गोंदों से बहुत अच्छा समझा जाता है। कुछ