पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर भाग 10.djvu/१९२

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जैसे, सर्वसाद ५०१२ सर्वाक्षी सर्वसाद--वि० [स०] १ समग्र जगत् जिसमे लीन हो। २ जिसमे सर्वहरण, सर्वहार-सञ्ज्ञा पुं० [म०] मर्वम्व का हरण । समग्र सपत्ति सब कुछ लीन हो (को०)। का हरण [को०)। सर्वसाधन-सज्ञा पुं० [म०१ मोना । स्वर्ण । २ धन। ३ शिव सर्वहारा-स -सज्ञा पुं० 1 म० गब+हिं० हारना] वह जिमके पाम कुछ का एक नाम । ४ वह जो सव कुछ का माधन कर सकता भी न हो। ममाज का पिछदा हुप्रा निम्नतम श्रमिक हो। सब कुछ मिट्ट करनेवाला (को०)। ५ हर एक प्रकार वर्ग। कमकर, अमिक, मजदूर वर्ग के लोग (अ० प्रोनेटेरियट)। का साधन या उपकरण। सर्वहारो १- वि० [स० सर्वहारिन्] [वि॰ स्त्री० सर्वहारिणी] सब कुछ सर्वसाधारण'--सञ्ज्ञा पु० [स०] साधारण लोग । जनता । ग्राम लोग | हरण करनेवाला। सर्वसाधारए'--जो सब मे पाया जाता हो । ग्राम । सामान्य । सर्वहारी--सञ्ज्ञा पु० एक प्रेत [को०] । सर्वसामान्य--वि० [स०] जो सब मे एक सा पाया जाय । मामूली । सर्वहित'-सञ्ज्ञा पु० [म०] १ शाक्य मुनि । गौतम बुद्ध । २ मवका सर्वसारग-सता पुं० [स० सर्वमारडग) एक नाग का नाम । कल्यारण। ३ मरिच । मिर्च। सर्वसार-स्या पु० [सं०] सब का मारभूत पार्थ या सार तत्व । सर्वहित--वि० जो मवके लिये हित पथ्य या कल्याणकारी हो । मो०] । सर्वसाह-वि० [स०] जो सब कुछ सह ले । सव कुछ सह लेनेवाला । सर्वहित कर्म-मझा पुं० [स०] मामाजिक समारोह, उत्सव या जलसा आदि। पूणत सहनशील [को०] । विशेप--कौटिल्य ने लिखा है कि जो नाटक प्रादि सामाजिक सर्वसिद्धा-सज्ञा स्त्री॰ [स०] चतुर्थी, नवमी और चतुर्दशी ये तीन तिथियाँ। जलसो मे योग न दे, उसे उसमे समिलित होने या उसे देखने का अधिकार नही है, उसे हटा देना चाहिए। यदि न हटे तो सर्वसिद्धार्थ--वि० [म०] जिमके सभी अर्थ या प्रयोजन सिद्ध हो चुके वह दड का भागो हो। हो । जिपकी मभी कामनाएं पूर्ण हो ।को०] । सर्वांग-~-पता पुं० [म० नर्वाङ्ग] १ सपूर्ण शरीर । सारा वदन। सर्वसिद्धि-सञ्ज्ञा स्त्री॰ [स०] १ सब कार्यों और कामना ग्रो का पूरा -सर्वाग मे तैलमर्दन । २ शिव का एक नाम (को॰) । होना । २ पूर्ण तर्क । ३ विल्व वृक्ष । श्रीफल । वेल । ३ सव अवयव या अश। ४ सब वेदाग । सर्वसुलभ-वि० [सं०] जो मवको सुलभ हो। जिसे सब लोग सुभीते सर्वांगपूर्ण-वि० [स० मयंगपूर्ण] सब प्रकार से पूर्ण । जिसके सभी से प्राप्त कर सकें। अग या अवयव पूर्ण हो। सर्वसौवर्ण-वि० [स०] जो पूर्णत स्वर्णनिर्मित हो [को०] । सर्वागरूप-मझा पु० [म० सर्वाङ्ग रूप] शिव का एक नाम । सर्वस्तोम--सज्ञा पुं० [स०] एक प्रकार का एकाह यज्ञ । सर्वागसुदर-वि० [म० मर्वाङ्गसुन्दर] जो हर त ह से सु दर हो । सर्वस्त्र--सक्षा पु० [स०] १ जो कुछ अपना हो वह सब । २ किसी सर्वागिक-वि० [म० सर्वाङ्गिक सभी अगो का। जो मव अगो के की सारी मपत्ति । सव कुछ । कुल मालमता । काम पाए । जैसे, गहना [को०) । यौ०--सर्वस्वदड = मारी मपत्ति जन्न कर लेने का दड । सर्वस्व- सर्वांगीण-वि० [म० मर्वा गोण] १ जो सभी अगो मे व्याप्न या दक्षिण = वह यन जिसमे समग्र सपत्ति का दान कर दिया उनसे सबधित हो। जैम, मगंगीण स्पर्ण। २ वेदागो से जाय । सर्वस्वमधि = दे० 'त्रम मे'। सर्वस्वहरण, मर्वस्व सबद्ध [को०) । हार = १) सब कुछ हरण करना या म्स लेना । (२) ३० 'सर्वस्वदर्ड। सर्वात--पञ्चा ५० [स० सर्वान्त] मव का अन या विनाश । यौ-मतिकृत् = दे० 'मतिक' । सर्वस्वसधि---मद्या श्री० [स० सर्वस्वमन्धि] मर्वस्व देकर शत्रु से की हई मधि । सर्वातक--वि० [स० मनिक मर का अनक या नाशक । सबका विनाशक या अन करनेवाला [को० । विशेप--कौटिल्य ने कहा है कि शव के साथ यदि ऐसी सधि करनी पडे तो राज्धानी को छोड कर शेप मब उसको मुपुर्द सर्वातरस्थ-- वि० [स० मर्यान्तरस्थ] सब के अतर मे स्थित या रहने- कर देना चाहिए। वाला । मव के भीतर निवास करनेवाला। सर्वस्वामो--वि० [स० मर्वस्वामिन्] सब का स्वामी या प्रभु [को०] । सर्वातरात्मा--सञ्ज्ञा पुं० [म० मन्तिरात्मन्] भगवान् । ईश्वर । सर्वस्वार-सहा पु० [म०] एक प्रकार का एकाह यज्ञ । सर्वातर्यामो--सक्षा पु० [म० मन्तिामिन् ] ईश्वर । परमात्मा । सर्वस्वी-सञ्ज्ञा पुं० [स० सर्वस्विन्] [ वि० स्रो० सर्वस्विनी] ब्रह्मवैवर्त- सर्वात्य-सज्ञा पुं० [म० सर्वान्त्य] वह पद्य जिमके चारो चरणो के पुराण के अनुसार एक जाति । नापित पिता और गोप माता अत्याक्षर एक से हो। से उत्पन्न एक सकर जाति । सर्वाकार-क्रि० वि० [स०] पूर्ण रूप से । पूर्णन । सर्वहर-मक्षा पुं० [सं०] १ सब कुछ हर लेनेवाला । २ वह जो सर्वाक्ष-मना पु० [स०] १. रुद्राक्ष। शिवाक्ष । २ वह जो सवको किसी की सारी सपत्ति का उत्तराधिकारी हो । ३ महादेव। देवता हो । शकर। ४. यमराज । ५. काल । सर्वाक्षी-सचा स्त्री० [स०] दुन्धिका । दुधिया घास । दुद्धी।