पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर भाग 10.djvu/२२२

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साँचा सौकड़ि ५०४२ साँकडिg-त्रि. [२० सटकीर्ण] सँकरी । सकीण । उ०-जमुन क का शाक । उ०-फोग केर काचर फली गेघर गंघरपात । तिरे तिरे मॉकडि बारी।-विद्यापति, पृ० ३० । वडियाँ मेले वारिणयाँ, सांगरियाँ मोगात।-बाकी० ग्र०, साँकत-वि० [म० टिकत] दे० 'शकित' । उ०-डावा कर भा०२, पृ०६७। ऊपर दुसट, कर जीमणो करत । सो लगाय मुख साँकतो माव साँगामाची -सज्ञा स्त्री० [म० माग+हिं० मचिया] एक प्रकार की डियो कुचरत ।—बाँकी ० ग्र०, भा॰ २, पृ० १६ । छोटी मांची या साट । उ० -तब श्रीगुसाई जी एक नांगामांची सॉकना-कि० अ० [म० शङ्कन] शका करना । णकित होना । सदेह धराइ के बीच में विराजे।-दो सो पावन०, भा० १, में पडना । उ.--सोकिया राज राँगा सकल, अकल पॉण पृ० ३३६। छिलियो असुर।--रा० ६०, पृ० १६ । साँगि-नज्ञा स्त्री० [हिं० स० गटकु या गक्ति, हि० मांग, मांगी] सांकरर--मज्ञा स्त्री॰ [स० शृङ्खल] शृखला। जजोर। सीकड । दे० 'माँग । उ०-रणधीर मु कोपि के साँगि लई।-ह. उ०-(क) काडा आसू वूद, कसि सांकर वरुनी सजल । रासो०, पृ०७६ । कीने वदन निमूद, दृग मलिंग डार रहत ।-विहारी र०, सॉगी'-सशा स्त्री॰ [स० गदकु या शक्ति] १ बग्छी। मांग। उ०- दो०२३०। चले निसावर प्रायनु मांगी। गहि कर भि.देपाल वर मांगी।-- सॉकर'---मज्ञा पु० [सं० सङ्कीर्ण] कष्ट सकट । उ०--(य) सॉकरे की मानस, ६।३६ । २ बैलगाडी में गादीवान के बैठने का स्थान । साकरन सनमुख हो न तोर --केशव (शब्द॰) । (ख) मुकती जुग्रा। सॉठि गाँठि जो करं। सॉकर परे सोइ उपकरै ।—जायसी सॉगी-सज्ञा स्त्री० [सं० माङ्ग (= उपकरण युक्त), हिं. मग या (शब्द०)। सामग्री] जाली जो एक्के या गाडी के नीचे लगी रहती है और साँकर--वि० १ सकोण। तग । संकरा। २ दुखमय । कष्टमय । जिसमे मामूली चीजें रखी जाती है । उ०--सिंहल दीप जो नाहिं निवाहू । यही ठाढ साँकर सव साँघपाल-वि० [स० सघन ?] दे० 'मघन' । उ०-माहिली काहू ।-जायसो (शब्द॰) । मांडली छीदा होइ । वारली मारली नांघरणा ।-बी० रासो, सॉकरा-वि० [हिं० सँकरी] दे० 'सँकरा' । पृ०५। सॉकरा --सज्ञा पु० [हिंसाँकडा] दे॰ 'सकिडा' । साँचपुर-मज्ञा पु० [सं० सत्य, प्रा० सत्त, सच्च] [सी० साँचो सत्य । साँकरा--वि० [हिं सँकरा ( = सकट)] सकट मे पड़ा हुआ । यथार्य । जैसे,—साँच को आंच नहीं। (कहा०)। सकटग्रस्त । उ --सॉकरे को सांकरन सनमुख तोरं । दशमुख साँच-वि० सत्य । सत्र । ठीक । यया । मुख जोवै गजमुख मुख को।--रामच०, पृ० १ । साँच-सज्ञा पु० [म० स्थाता, हिं० मांचा] दे॰ 'सांचा'। उ०-- सॉकरिरा-सशा खी [स० शृङ्खला] दे० 'साँकल । उ०-तव चाक चढाइ साँच जनु कीन्हा । वाग तुरग जानु गहि लौहा । श्रीठाकुर जी भीतर की साँकार खोलते ।--दो सौ वावन०, --जायसी ग्र० (गुप्त), पृ १६३ । भा० १, पृ० १०१। साँचना--क्रि० स० [हिं० साँचा] साँचे में ढालना । सचित करना । साँकरीg-सज्ञा स्त्री॰ [स० सड़कीर्ण] सकट । उ.-उडवत धूर सुदर प्राकार प्रदान करना। उ.-सब सोभा ससि सानि धरे कांकरी। सवनि के दृगनि परी साँकरी।--नद० ग्र०, के सांची इछिनि एक।--पृ० रा०, १८१५६ । पृ० २४२॥ साँचरी--मज्ञा स्त्री॰ [म० सहचरी] सखी। सहेली। उ०--प्रावी साँकल-सा सी० [स० शृङ्खला] १ जजीर। सिक्कड। अवाँसइ साँचरी । हीयडइ हरीप मन रग अपार ।--बी० रासो, 'सांकर'। २ अर्गला । दरवाजे की सिकडी। पृ० ११४॥ साँकाहुली-सञ्ज्ञा श्री० [स० शङ्खपुष्पी] 'शखाहुली' । साँचला-वि० [हि० साँच + ला (प्रत्य॰)] [वि० सी० साँचली] जो सच वोलता हो । सच्चा । सत्यवादी। साँखा-सञ्चा श्री० [म० शङ्का] दे० 'शका' । उ०--पखी नाव न देखा पांखा। राजा होइ फिरा के साँखा ।—जायसी ग्र०, पृ० १६४ । साँचा-पज्ञा पु० [स० स्थाता] १ वह उपकरण जिममे कोई तरल पदार्थ ढालकर अथवा गीली नीज रखकर किसी विशिष्ट आकार साँग--सज्ञा स्त्री० [स० शक्ति या शडकु] १ एक प्रकार की बरछी प्रकार की कोई चीज बनाई जाती है। फरमा। जैसे,-ई टो भाले के आकार की होती है, पर इसकी लबाई कम होती है का साँचा, टाइप का साँचा। उ०--जैसे धातु कनक की एका । और यह फेककर मारी जाती है। शक्ति। उ०-कोउ माजत साँचा माही रूप अनेका।-कबीर सा०, पृ० १०११ । वरछीन साँग उर वेधनवाली।-प्रेमघन०, भा० १, पृ० २४ । विशेष-जब कोई चीज किसी विशिष्ट आकार प्रकार की बनानी २ एक प्रकार का औजार जो कुंग्रा खोदते समय पानी फोडने के काम में आता है। ३ भारो बोझ उठाने का डडा। होती है, तब पहले एक ऐसा उपकरण बना लेते है जिसके अदर वह आकार बना होता है। तब उसी में वह चीज डाल या साँगरी-सञ्ज्ञा स्त्री॰ [देश॰] १ एक प्रकार का रग जो कपडे रंगने के भर दी जाती है, जिससे अभीष्ट पदार्थ बनाना होता है। जब काम आता है। यह जगार से निकलता है। २ एक प्रकार वह चीज जम जाती है, तव उसी उपकरण के भीतरी आकार