पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर भाग 10.djvu/२५०

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

साफदिली ५०७० साबूत साफदिलो-सज्ञा स्त्री० [फा० साफदिनी] १ अत शुद्धि | मन का सावला-सज्ञा पुं० [मे० शवर] वरछी । भाला । उ०- सूरजमाल निएक्पट होना। २ किसी के प्रति द्वेषभाव न होना । दुकाल नेज गज ढाल निहारे। फल मावर फोरियो, विडग साफदीदा- वि० [फा० साफ्दीदह,] निर्लज्ज । वेशरम । धृष्ट । पीरियो वधारे ।-ग० F०, पृ० ८६ । २ मपरी । मात्र । साफल-मज्ञा पु० [स० साफल्य] दे० 'साफ्ल्य' । उ० - हरि भज सावस-मशा पुं० [फा० शावाम] वाहवाही देने की निया। दाद । दे० 'जावाश'। साफल जीवना, पर उपचार समाइ । दादू मरणा तह भला, जहाँ पसु पखी खाइ।-सतवाणी०, पृ० ७८ । सावस-अव्य ० वाह वाह । धन्य । मावु माधु । उ०-चोल्यो वहरि साफल्य-सज्ञा पु० [मं०] १ सफन होने का भाव । सफलता । कृत. हमीर, साबम जग तेरी जनम । हम्मीर०, पृ० ४८ । कार्यता । २ सिद्धि । लाभ । ३ उत्पादकता। उपयोगिता। सावाध-वि० [म०] अस्तव्यस्त । वाधायुक्त । अव्यवस्थित किो०] । साफा- सज्ञा पुं० [अ० साफ] [स्त्री० साफी] १ सिर पर बाँधने की साबिक-वि० [अ० साविक] पूर्व का। पहले का । पुराने समय का । पगडी। मुठा । मडासा। उ०--प्रभू जू में ऐमो अमल कमायो । साविक जमा हुतो जो यौ०-साफेवाज = साफा पहननेवाला। उ०-चाहे साफेबाज, जोगे मोजांकुल तल लायो ।—सूर (शब्द०)। फेटेवाज या अम्मामेबाज ।-प्रेमघन०, भा० ३, पृ० २७७ । यौ०-साविक दस्तूर = जैसा पहने था, वैमा हो । पहले की ही २ शिकारी जानवरो को शिकार के लिये या कबूतरो को दूर तक तरह। जिसमे कुछ परिवर्तन न हुग्रा हो । जैसे,--उसका हाल उडने के लिये तैयार करने के उद्देश्य मे उपवास कराना । वही माविक दस्तूर है। मुहा०-साफा देना = उपवास करना । भूखा रखना। साबिका -सज्ञा पु० [अ० माविकह.] १ जान पहचान । मलाकात । ३ नित्य के पहनने या प्रोढने के वस्त्रो आदि को सावुन लगाकर भेट । २ उपसर्ग (को०) । ३ सबध । मरोकार । व्यवहार । साफ करना । कपडे धोना । (बोल०)। मुहा०--साबिका पड़ना = (१) काम पडना। वास्ता पडना । क्रि० प्र०-देना ।—लगाना । (२) लेन देन होना। (३) मेल मिलाप होना। यो०-साफा पानी = अवकाश के समय इतमीनान के माय कपडो का धोना और नहाना। साविग-वि० [अ० माविग] रेंगनेवाला [को०] । साफिर'-सशा पुं० [प० साफिर] १ दुर्वल घोडा । २ सफर करने- सावित'-वि० [अ०, फा०] जिसका सबूत दिया गया हो । प्रमाणित । वाला यानी (को०] । सिद्ध। २ मजबूत । दृढ (को०) । ३ ठहरा हुअा। स्थिर (को०)। साफी-सज्ञा स्त्री० [अ० साफी] १ हाथ मे रखने का रुमाल । दस्ती। ४, मबूत । समग्र । सव । साबूत । पूरा। ५ दुरुस्त । ठीक । उ०-है लोचन सावित नहि नेऊ ।-सूर (शब्द॰) । २ वह कपडा जो गांजा पीनेवाले चिलम के नीचे लपेटते है। ३ भाँग छानने का कपडा । छनना। उ०--साफी छान सुरति सावित'-सज्ञा पुं० वह नक्षत्र ग ताग जो चलना न हो, एक ही अमल हरि नाम का ।-पलटू०, मा० २, पृ०६४। ४ एक स्थान पर सदा ठहरा रहता हो। प्रकार का रदा जो लकडी को विलकुल साफ कर देता है। सावितकदम-वि० [अ० सावितकदम] दृढनिश्चयी। दृढप्रतिज्ञ (को०) । ५ वह कपडा जिससे चूल्हे पर से कडाही अादि उतारी जाय । सावितकदमी--नशा सी० [अ० सावितकदमो] इरादे को दृढता । साबका-सज्ञा पु० [अ० साविकह] दे० 'साबिका' । उ०--बाप दृढप्रतिज्ञता किो०] 1 सावका कर लराई मयामद मतवारी |--कबीर ग्र०, साबिर--वि० [अ०] [सी० साविरा] १ सहनशील । धंयवान । २ पृ० ३२७ । जो प्रत्येक स्थिति मे ईश्वरकृपा पर निर्भर हो [को०] । साबतपुर-सज्ञा पु० [स० सामन्त] सामत । सरदार। (डिं०) । साबुत-वि० [फा० मवूत] १ जिसका कोई अग कम न हो। साबूत । साबत@--वि० [फा० अ० सबूत] दे० 'साबू उ०--मुसकनि सपूर्ण । २ दुरुस्त । ३ स्थिर । निश्चल । मल्हिम लगाय घाव सावत करि दीन्हौं ।-व्रज० ग्र०, पृ० १४ । साबुन--मज्ञा पुं० [अ०] रासायनिक क्रिया से प्रस्तुत एक प्रसिद्ध पदार्थ साबन--सज्ञा पुं० [अ० सावून, उर्दू साबुन] दे० 'सावुन' । जिससे शरीर और वस्नादि साफ किए जाते है । साबर--सज्ञा पुं० [स० शम्बर १ दे० 'साँभर'। २ सांभर मृग का विशेष—यह सज्जी, चूने, सोडा तेल और चर्बी आदि के सयोग से चमडा जो मुलायम होता है। ३ शवर जाति के लोग । ४ बनाया जाता है। देशी सावुन मे चर्बी नही डाली जाती, पर यहर वृक्ष । ५ मिट्टी खोदने का एक औजार । सवरी। ६ विलायती साबुन मे प्राय चर्बी का मेल रहता है। शरीर मे एक प्रकार का सिद्ध मन जो शिवकृत माना जाता है। उ० लगाने के विलायती साबुनो मे अनेक प्रकार की सुगधियाँ भी स्वारथ के साथी मेरे हाथ सो न लेवा देई काहू तो न पीर रहती है। रघुवर दीन जन की। साप सभा सावर लवार भए देव दिव्य यौ०-साबुनफरोश = साबुन बेचनेवाला। साबुनसाज = साबुन दुसह सांसति कीजे आगे दै या तन की।—तुलसी (शब्द॰) । बनानेवाला । साबुनसाजी = साबुन बनाने का काम। सावरी-सज्ञा स्त्री० [हिं० सावर + ई (प्रत्य॰)] सांभर मृग का साबूत-वि० [फा० सबूत] दे० 'साबुत'। उ०--सत सिलाह सतोष मुलायम चमडा । उ०---दूजे प साबरी परतला परि मन सावूत तुम पहिरु सहिदान मरदान यारा।-सत० दरिया, 'मोहुत ।-प्रेमघन॰, भा० १, पृ० १३ । पृ० ८१