पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर भाग 10.djvu/३१३

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पोसते हैं। सिरीज ६०३३ सिलपोहनी विगेष-'श्री' का लाल चिह्न तिलक मे रोली से बनाते हैं, इसी की चौकोर या लबोतरी पटिया जिसपर बट्टे से मसाला आदि लिये रोली को भी श्री या 'सिरी' कहते हैं । ४ ऐश्वर्य । विभव । सपत्ति । समृद्धि । ५ माथे पर का एक यौ०-सिल बट्टा। गहना। उ०--सुटा दड लस जैसो वैसो रद दरमा सोहे मभी ३ पत्थर का गढा हुया चौकोर टुकडा जो इमारतो मे लगता है। सीम भारी सिरी कुभ पर है । -गोपाल (शब्द०)। चौकोर पटिया । ४ काठ की पटरी जिसपर दवाकर रूई की मिरीज-सज्ञा पु० [अ०] मगल और बृहस्पति के बीच का एक ग्रह पूनी बनाई जाती है। जिसका पता आधुनिक पाश्चात्य ज्योतिपियो ने लगाया है । सिल-सज्ञा पुं० [स० शिल] कटे हुए खेत मे गिरे अनाज चुनकर विशेष-यह सूर्य से प्राय साढे अट्ठाइम कोटि मील की दूरी पर निर्वाह करने की वृत्ति । दे० 'शिल', 'शिलोछ' । है। इसका व्यास १७६० मीन का है। इस निजकक्षा की परि- सिल'-सज्ञा पु० [देश॰] वलूत की जाति का एक पहाडी पेड जो क्रमा मे १६८० दिन लगते है। १९वी शताब्दी मे सिसली नामक हिमालय पर होता है । बज । मार। उपद्वीप मे यह ग्रह पहले देखा गया था। इसका वर्ण लाल है सिल'-सञ्ज्ञा पु० [अ०] तपेदिक । राजयक्ष्मा । क्षय रोग । और यह आठवें परिमाण के तागे के समान दिखाई पडता है। सिलक'--सशा स्त्री० [हिं० सलग (= लगातार)] १ लडी। हार । सिरीपचमी -- सज्ञा ली [स० श्रीपञ्चमी] दे० 'श्रीपचमी' । उ०- २ पक्ति । पॉत। दई दई कर सुरति गंवाई। सिरीपचमी पूज आई।-जायसी सिनक' सज्ञा पु० तागा। धागा । (शब्द०)। सिलको-सज्ञा पु० [देश॰] वेल । उ०--सुरभ सिलकी सदाफल सिरीराग-सज्ञा पु० [स० श्रीराग] सपूर्ण जाति का एक राग । छह वेल ताल मालूर ।-अनेकार्थ० (शब्द॰) । प्रमुख रागो मे तीसरा राग । विशप दे० 'श्रीराग'। उ0-- सिलखड़ो स्ज्ञा स्त्री० [हिं० सिल + खडिया] १ एक प्रकार का पचएँ सिरी राग भल किगे। छठएँ दीपक उठा बर दियो। चिकना मुलायम पत्थर जो बरतन बनाने के काम माना है। -जायसी (शब्द०)। विशेष-इसकी बुकनी चीजो को चमकाने के लिये पालिश और सिरीस सज्ञा पु० [म० शिरीप, प्रा० सिरीस] दे० 'सिरस' । रोगन बनाने के भी काम में आती है। सिरोत्पात-सज्ञा पुं० [स०] एक नेत्ररोग जिसमे आँखो के डोरे अधिक २ सेतखडी खरिया मिट्टो । दुद्धी । सुख हो जाते है |को०] । सिलखरी-सशा स्त्री० [हिं० सिल + खडिया] दे० 'सिलखडी' । सिरोना-सज्ञा पु० [हिं० सिर + प्रोना] रस्सी का बना हुग्रा मेडरा सिलगना कि० अ० [हिं० सुलगना] दे० 'सुलगना' । उ. जिसपर घडा रखते है । इँडुरी। विडवा । विरहिन पै पायौ मनी मैन दैन तर ह। जुगन् न ही जामुगी सिरोपाव-ना पु० [हिं० सिर + पांव] सिर से पैर तक का पहनावा मितगत व्याहमि व्याह । -रसनिधि (शब्द॰) । (ख) आग भी (अगा, पगडी, पाजामा, पटका और दुपट्टा) जो राज दरबार से प्रातिशदान में सिलग रही है। हवा उस समय सर्द चल रही समान के रूप में दिया जाता है। खिलअत । थी।-शवप्रसाद शब्द०)। सिरोमनि-रज्ञा पु० [स० शिरोमणि] दे० 'शिरोमणि' । सिलपg+ नशा पु० [म० शिल्प] दे० 'शिल्प'। उ०-विश्वकर्मा सिरोरुह-सज्ञा पुं० [स० शिरोरुह] दे० 'शिरोगह' । मुतिहार श्रुति धरि सुलभ सिलप दिखावनो। तेहि देखे त्रय ताप नाश ब्रजवधू मन भावनो। सूर (शब्द०)। सिरोही'- सज्ञा स्त्री॰ [देश०] एक प्रकार की चिडिया जिसकी चोच और पैर लाल और शेप शरीर काला होता है। सिलपची-मज्ञा स्त्री० [फा० चिलमची] दे० 'चिलमची' । सिरोही' F- सज्ञा पु० १ राजपुताने मे एक स्थान जहाँ की बनी हुई तलवार सिलपट-वि० [म० शिलापट्ट] १ साफ । २ वरावर । चौरस । बहुत ही लचीली और वढिया होती है। उ०-तरवार सिरोही क्रि० प्र०-करना। होना। सोहती लाख सिकोही बोहती। जिमि सेना द्रोही जोहती लाज ३ घिमा हुया । मिटा हुआ । ४ चौपट । सत्तानाश । अरोही मोहती।- गोपाल (शब्द०)। २. तलवार । असि । मिलपट-सञ्ज्ञा पु० [अ० स्लिपर] एदी की ओर खुली हुई जूती । मिर्का-तज्ञा पु० [फा० सिरकह ] दे० 'सिरका'। चट्टी। चप्पल । सिर्फ-कि० वि० [अ० सिर्फ] केवल । मात्र । सिलपोहनी- सज्ञा स्त्री० [हिं० सिल+पोहना] विवाह की एक रीति । उ०-मिंदूर वदन होम लावा होन लागी भाँवरी। मिल- सिर्फ'-वि० १ एक मात्र । अकेला। २, शुद्ध । खालिस । पोहनी करि मोहनी मन हरची मूरति साँवरी |-तुलसी मिरी-वि० [म० शृणीक] ६० 'सिडी' । (शब्द०)। सिल-सशा स्त्री॰ [स० शिला] १ पत्थर । चट्टान । शिला। उ० विशेष-विवाह मे मातृकापूजन के समय वर और कन्या के धोवै नीर उडप पग धरज, रज मिल उठी, किसू वनदार । माता पिता सिल पर थोडी सी भिगोई हुई उरद की दाल -रघु० रु०, पृ० ११० । २ पत्थर की बनी हुई एक प्रकार रखकर पीनते हैं । इसी को 'सिलपोहनी' कहते हैं। हि० श० १०-३८