पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर भाग 10.djvu/३१८

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

क्रिया। उदयपुर है। सिसुपाल ६०३८ सिहिटि जोवन अग। दीपति देहि दुह्न मिलि दिपति ताफता रग। सिहरन-सश सी० [स० शीनल] कँपकँपी। रोमाच । सिहरने को बिहारी (शब्द०)। सिसुपालgt-सा पु० [स० शिशुपाल] चेदि देश का राजा । विशेष सिहरना-क्रि० अ० [स० शीत + हिं० ना] १ ठढ मे काँपना । दे० 'शिशुपाल'। २ काँपना। कपित होना। ३ भयभीत होना। दहलना। सिसुमार--सज्ञा पु० [स० शिशुमार, २० 'शिशुमार' । उ०-छनक वियोग कु याद पर अतिस हिय मिहरत । सिसुमार चक्र-मशा पु० [म० शिशुमारचत्र] सौर जगत् । ३० -व्यास (शब्द०)। ४ रागटे खड होना। 'शिशुमारचक्र'। उ०-एक एक नग देखि अनकन उडगन सिहरा-सज्ञा पु० [हिं० सिर + हग या हार] दे० 'सेहरा' । वारिय। वसत मनहुँ सिसुमार चक्र तन इमि निरधारिय। सिहराना' -क्रि० स० [हिं० मिहरना] १ सरदी से कॅपाना। शीत --गि० दास (शब्द०)। से कपित करना। २ कॅपाना। कपित करना। ३ भयभीत सिसृक्षा -सज्ञा स्त्री० [स०] सृष्टि करने की इच्छा। रचने या बनाने करना। दहलाना। की इच्छा। सिहराना'-क्रि० स०, क्रि० अ० दे० 'सहलाना' । २ दे० सिसृक्षु--सज्ञा पु० [म०] सृष्ट करने की इच्छा रखनेवाला । रचना 'सिहलाना'-१ का इच्छुक । उ० - जाको मुमुक्षु जे प्रेम वुशुक्षु गुणी यह सिहरावन -सञ्ज्ञा पुं० [हिं० सिलाना] दे० 'सिहलावन' । विश्व सिसृक्षु सदा ही। काल जिवृक्षु सरुक्षु कृपा की स्वपानन स्वक्ष स्वपक्ष प्रिया ही।-रघुराज (शब्द०)। सिहरी-सशा श्री० [हिं० सिहरना] १ शोतजन्य कप। ठढ के कारण कॅपकंपी। २ कप। कपकँपी। ३ भय। दहलना। ४ जूडी सिसोदिया--मज्ञा पु० [सिमोद (स्थान)] राजपूतो को एक का बुखार । ५ रोगटे खडे होना । रोमहप । लोमहर्प । शाखा जिसकी प्रतिष्ठा क्षत्रिय कुलो मे सबसे अधिक है और जिसकी प्राचीन राजधानी चित्तौड थी और आधुनिक राजधानी सिहरू-सशा पु० [देश॰] सभालू । सिंदुवार । सिह नाना -क्रि० अ० [स० शोतल] १ सिराना। ठढा होना। २ विशेष--क्षत्रियो मे चित्तौड या उदयपुर का घराना सूर्यवंशीय शीत खा जाना। सीड खाना। नम होना । ३ ठह पडना। सरदी पडना। महाराज रामचद्र की वशपरपरा मे माना जाता है । इन क्षत्रियो का पहले गुजरात के वल्लभोपुर नामक स्थान मे जाना कहा सिंहलावना -सचा पु० [हिं० मिहलाना] सग्दी । ठड । जाडा। जाता है । वहाँ से वाप्पारावल ने आकर चित्तौड को तत्कालीन सिहली-सज्ञा स्त्री॰ [स० शीतली] शीतली जटा । शीतली लता । मोरी शासक से लेकर अपनी राजधानी बनाया। मुसलमानो सिहान - सज्ञा पु० [सं० सिहाण] मडूर । लोहकिट्ट । के आने पर भी चित्तोड स्वतन्त्र रहा और हिदू शक्ति का सिहाना--कि० अ० [स० ईर्ष्या, पु० हिं० हिसिपा] १ ईर्ष्या करना । प्रधान स्थान माना जाता था। चित्तोड मे वडे बड पराक्रमी डाह करना। २ किसी अच्छा वस्तु को देखकर इस बात से राणा हो गए है। राणा समर सिंह, राणा कुभा, राणा सांगा दुखी होना कि वैसी वस्तु हमार पास नहीं है। स्पर्वा करना । आदि मुसलमाना से बडो वोरता से लड़े थे। प्रसिद्ध वोर उ०-द्वारिका की देखि छाव सुर असुर सकल सिहात । -सूर महाराणा प्रताप किस प्रकार अकवर से अपनी स्वाधीनता के (शब्द०) ३. पाने के लिये ललचना । लुभाना। उ० - सूर लिये लडे, यह प्रसिद्ध हो है। सिसोद नामक स्थान मे कुछ प्रभु को निरखि गोपी मनहि मनहि सिहाति । - सूर (शब्द०)। दिन बसने के कारण गुहिलीतो को यह शाखा सिसोदिया ४ मुग्ध हाना। मोहित होना। उ.-सूर श्याम मुख निराख कहलाई। जसोदा मनहो मनाह सिहाना ।—सूर (शब्द०)। (ख) लाल सिस्क+--वि० [सं० शुष्क] दे० 'शुष्क' । उ०-करत देह को अलौकिक लरिकइ लाख लखि सखो सिहाति-विहारा सिस्क। -ब्रज० ग्र०, पृ० ४७ । (शब्द०)। सिस्टि--संज्ञा स्त्री० [सं० सृष्टि] दे॰ 'सृष्टि' । सिहाना'-क्रि० स०१ ईर्ष्या को दृष्टि से देखना। २ अभिलाप की सिस्न-सज्ञा पुं० [म. शिश्न] दे० 'शिश्न' । दृष्टि से देखना । ललचना। उ०-समउ समाज राज दशरथ सिस्य--सच्चा पु० [स० शिष्य] दे० 'शिष्य' । को लोकप सकल सिहाही। -तुलसी (शब्द॰) । ३ अमिलापुक सिह-वि० [फा०] तीन । नय [को०] । अथवा मुग्ध होकर प्रशसा करना। उ०-देव मकन सुरपतिहि सिहद्दा--सज्ञा पु० [फा० सिह या सेह + अ० हद] वह स्थान जहाँ तीन सिहाही । आज पुरदर सम कोउ नाहो ।-मानस १।३१७ । हदे मिलती हो। सिहारनाg-क्रि० स० [देश॰] तलाश करना। टूढना। २ सिहपर्ण--सञ्ज्ञा पु० [स०] अड सा । वासक वृक्ष । जुटाना । उ०-हम कन्यन को व्याह विचारौ। इनहि जोग बर सिहद-संज्ञा स्त्री॰ [स० शोतल] उ० -सिहरने को क्रिया या भाव । तुमहु सिहारौ।-पद्माकर (शब्द०)। सिहरन । उ०—सिकता को रेखाएँ उभारभर जाती अपनी सिहिकना-क्रि० अ० [स० शुष्क] सूखना । (फसल का)। तरल सिहर ।-लहर, पू०२। सिहिटिल-[सं० सूष्टि] दे० 'सृष्टि' ।