पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर भाग 10.djvu/३२०

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६०४० । भिगोना । सी धन सीकाकाई रहते हैं। तोमडी। उ०-सीगी भाकुर विनि सब धरी । 'सी' करनवारी मेद मीकरन वारी रति सी करन कारी सो जायसी (शब्द०)। वसीकरनवारी है।-पद्माकर (शब्द०)। सी धन-सञ्ज्ञा पु० [देश॰] घोडो के माथे पर दो या अधिक भौंरीवाला सी'--मज्ञा मी० [स० सीत] वीज की वोग्राई । टीका। सी-सज्ञा पु० [म० शीत] शीत । दे० 'भीउ' । उ०-माह माम सी सीच-सज्ञा स्त्री० [हिं० सीचना] १ सोचने की क्रिया या भाव । पड्यो अतिमार।-बी० रामो, पृ. ६७ । सिंचाई । छिडगव। सी-मशा स्त्री० [स० मीता] उ०-अपने अपने को सब चाहत नीको मूल दुहं को दयाल दलह सी को।-तुलसी ग्र०, सी चना-त्रि० स० [स० सिञ्चन] १ पानी देना । पानी से भरना । पृ०५४६ । आवपाशी करना। पटाना। जैसे,- खेत सोचना, वगीचा सी० आई० डी०-सा पु० [३० क्रिमिनल इनवेस्टिगेगन डिपार्टमेट का सीचना। उ०-अति अनुराग सुधाकर सोचत दाडिम बीज सक्षिप्त रूप] २० 'क्रिमिनल इनवेस्टिगेशन डिपाटमेट' । युपिया समान ।-सूर (शब्द०)। २ पानी छिडककर तर करना। विभाग। जैसे,—सी पाई०टी० ने मदेह पर एक आदमी को ३ छिडकना। (पानी आदि) डालना या गिरफ्तार किया। २ भेदिया। गुप्तचर । छितराना। उ०—(क) मार सुमार करी खरी अरी भरी सीअg+-सञ्ज्ञा स्त्री॰ [म० सीना] दे० 'सीता' । उ० भयउ मोहु हित मारि। सीच गुलाव घरी घरी अरी बरोहि न वारि। सिव कहा न कीन्हा। भ्रम बस वेप सीन कर लीन्हा । बिहारी (शब्द॰) । (ख) आँच पय उफनात सीचत सलिल -मानस, पृ०५५ ज्यो सकुचाड। -तुलसी (शब्द॰) । सीउ-तश पु० [सं० शीत] शीन। ठढ। उ०—(क) कीन्हेसि स"ची--सज्ञा स्त्री० [हिं० सीचना] का समय। धूप सोउ श्री छाहाँ ।--जायमी (शब्द॰) । (ख) जहाँ भानु सीव, सीवg- राज्ञा पु० [सं० मीमा] सीमा। हद । मर्यादा । तह रहा न सोउ ।-जायसी (शब्द०)। उ०--(क) सुख की सी अवधि आनंद की अवध विलोकिही सीकचा --मश पुं० [फा० मीखचह] लोहे की छड । सीखचा। जाइही । —तुलसी (शब्द०)। (ख) मुखनि की सीव सोहै सीकर-सज्ञा पुं० [स०] १ जलकण। पानी की वूद । छीटा। सुजस समूह फैलो मानो अमरावती को देखि के हँसतु है। उ.--(क) श्रम स्वेद सीकर गुड मटित स्प अवुज कोर।- -गुमान (शब्द०)। सूर (शब्द॰) । (ख) राम नाम रति स्वाति मुधा सुभ सीकर मुहा०-सीव चरना या कोडना = अधिकार दिखाना । दवाना। प्रेम पियामा।-तुलसी (शब्द )। २ पसीना। स्वेदकण । जबरदस्ती करना। उ०- है काके द्वै सीस ईस के जो हठि जन उ०--ग्रानन मीकर मी काहेए धक सोवत ते अकुलाय उठी की सीव चरै ।- तुलसी (शब्द॰) । क्यो। केशब (गब्द०)। सीवनि-सज्ञा स्रो० [हिं० सोना] जोड या सधि का स्थान । जोड सीकर-नरा पु० [म० शृगाल] स्यार । गीदड । ली रेखा या चिह्न । उ०-येडी वाम पांव की लगावै सीवनि सीकर--मज्ञा स्त्री० [१० शृदखता] जजीर । मिकडी। उ०-भट के बीचि, वाही जोनि ठोर ताहि नोक करि जानिए ।- सुदर भट धरे असी कर मे चटे मीकर सुडन मैं लमत ।-गि० दास ग्र०, भा०१,पृ०४२ । (शब्द०)। सी वा सज्ञा स्त्री० [म० सीमा] दे० 'सीमा' । उ०- निरखि सखि सीकरा-सज्ञा पु० [फा० शिकरह,] वाज । श्येन। एक शिकारी सुदरता की मीवा । अधर अनूप मुरलिका राजति, लटकि पक्षी। उ.-सीकरा सो काल है कलमरी सी लपेट लेहै, रहति अध ग्रीवा --सूर०, १०।१८०८ । चगुल के तले दबे दवे चिचयायगे।-मलक० बानी, पृ० ३१ । सी-वि० सी० [सं० सम, हिं० सा] सम । समान। तुल्य सदृश । सीकला--मज्ञा पुं॰ [देश॰] डाल का पका हुअा अाम । जैसे,- - वह स्त्री बावली सी है। उ०—(क) मूरति की सूरति सीकल'-सज्ञा झी० [अ० संकल] हथियारो का मोरचा छुडाने की कही न परै तुलसी पै जानै मोई जाके उर कमक करक सी। किया। हथियार की मफाई। तुलसी (शब्द०)। (ख) दुरै न निवरघटी दिए ए गवरी सीकस--मशा पु० [देश॰] ऊसर । उ०--सिंह शार्दुल यक हर जोतिनि कुचाल। विप सी लागति है बुरी हँसी सिसी की लाल । मीकम वोइनि धाना।--कबीर (शब्द०)। -बिहारी (शब्द० । (ग) सरद चद की चादनी मद सीका-पञ्ज्ञा पुं० [म० शोर्पक] १ सोने का एक प्राभूपण जो सिर परति सी जाति ।-पद्माकर (शब्द०)। पर पहना जाता है। २ मिक्का । सीका--सज्ञा पुं० [म० शिक्या] ऊपर टाँगने की सुतरी आदि की मुहा०-अपनी सी = अपने भरसक । जहाँ तक अपने मे हो सके, वहाँ तक । उ.-मैं अपनी सी बहुत करी री। -सूर जाली जिसपर दूध, दही आदि का वरतन रखते हैं। छीका । मिकहर। (शब्द॰) । सीकाकाई-सज्ञा सी० [१] एक प्रकार का वृक्ष जिमकी फलियाँ रीठे की सी-सञ्ज्ञा स्त्री॰ [अनु॰] वह शब्द जो अत्यत पीडा या ग्रानद रसास्वाद भांति सिर के बाल आदि मलने के काम मे ग्राती है । कुछ लोग के समय मुंह से निकलता है । शीत्कार । सिसकारी। उ०- इसे सातला भी मानते है। 1