पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर भाग 10.djvu/४७६

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पृ०११॥ सौन ७०६६ सोनहा सोन'-वि० [सं० शोण] लाल । अरुण। रक्त । उ०--सुभग सोन लपटनि पट सेत हूँ करति वनौटी रग ।--विहारी (शब्द०) सरसीरुह लोचन। बदन मयक तापत्नय मोचन ।--तुलसी (ख) ही रीझी लखि रीभिही छविहि छबीले लाल। सोनजुही (शब्द०)। सी होति दुति मिलत मालती माल ।-विहारी (शब्द०)। सोन' ---संज्ञा स्त्री० [हिं० सोना] एक प्रकार की बेल जो बारहो महीने सोनजूही--सज्ञा स्री० [हि० सोना + जूही] एक प्रकार की जूही वरावर हरी रहती है । इसके फूल पीले रंग के होते है । जिसके फूल पीले रंग के होते है पर जिसमे सफेद जूही से मुगधि सोन --सज्ञा पुं० [स० रसोनक या सोनह] लहसुन । (डिं०) । अधिक होती है। पीली जूही। स्वर्णयूयिका। उ०-सोनजूही सोनकिरवाई--सज्ञा पुं० [हिं० सोना + किरवा ( = कोडा)] १ एक की पंखुरियो से गुंथे ये दो मदन के वान, मेरी गोद मे। हो प्रकार का कीडा जिसके पर पन्ने के रग के चमकीले होते है । गए बेहाश दो नाजुक, मृदुल तूफान, मेरी गोद मे |-ठडा०, २ खद्योत । जुगनूं। सोनकीकर-सज्ञा पुं० [हिं० सोना+कीकर] एक प्रकार का बहुत सोनपटीला@--नि० [हि० सोना+ सं० पत्र या पत्रिल] सोने के वडा पेड। पत्न (वर्क) के समान चमकनेवाला । उ०--वारह माम दामिनी दमक । सोनपटीला जुगनू झमक ।-चरण ० वानी, पृ० ७६ । विशेष - यह वृक्ष उत्तर बगाल, दक्षिण भारत तथा मध्यभारत मे बहुत होता है। इसके हीर की लकडी मूसली सी, पर बहुत ही सोनपेडुकी-सञ्ज्ञा स्त्री० [हि० सोना + पेटकी] एक प्रकार का पक्षी कडी और मजबूत होती है। यह इमारत और खेती के औजार जो सुनहलापन लिए हरे रंग का होता है। इसकी चोच सफेद वनाने के काम मे आती है। इसका गोद कीकर के गोद के तथा पैर लाल होते है। समान ही होता है और प्राय औषध आदि मे काम आता है। सोनभद्र--सज्ञा पुं० [स० शोणभद्र] दे० 'सोन' । उ०-सोनभद्र तट सोनकेला-सञ्ज्ञा पु० [हि. सोना + केला] चपा केला । सुवर्ण देश नवेला । तहाँ बस बहु अबुध बघेला।-रघुराज (शब्द०)। कदली। पीला केला। सोनवाना -वि० [स० स्वर्णवर्णक ? अथवा हि. सोना+वाना विशेष-वैद्यक मे यह शीतल, मधुर, अग्निदीपक, बलकारक, (प्रत्य०)] [वि॰ स्त्री० सोनवानी] सोने का । सुनहला । वीर्यवर्धक, भारी तथा तृषा, दाह, वात, पित्त और कफ का उ०-राखा आनि पाट सोनवानी। विरह वियोगिनी बैठी नाशक माना गया है। रानी। —जायसी (शब्द॰) । सोनगढी-सज्ञा पु० [सोनगढ (स्थान)] एक प्रकार का गन्ना । सोनह--सज्ञा पु० [सं०] लशुन । लहसुन [को०] । सोनगहरा-सज्ञा पु० [हिं० सोना + गहरा] गहरा सुनहरा रग । सोनहटा -सज्ञा पुं० [सं० स्वर्ण, हिं० सोन + हाट] सोनारो का सोनगेरू-सञ्ज्ञा पुं० [हिं० सोना+ गेरू] दे० 'सोनागेरू'। बाजार । स्वर्ण हाट । सराफा । उ०-प्रचूर पौर जनपद सम्हार सोनचपा-सच्चा पु० [हिं० सोना+ चपा] पीला चपा। सुवर्ण सम्हीन, धनहटा, सोनहटा, पनहटा, पक्वानहटा, मछहटा करेगा चपक । स्वर्ण चपक। सुखरव कथा कहते । -कोति०, पृ० ३० । विशेष-वैद्यक के अनुसार यह चरपरा, कड वा, कसैला, मधुर, सोनहटिया--सञ्ज्ञा स्त्री॰ [म० श्वान या शुन+ हाट ( = हटिया)] शीतल तथा विष, कृमि, मूत्रकृच्छ्र, कफ, वात और रक्तपित्त वह वस्ती जहाँ श्वान हो। चर्मकार, मेहतर, डोम आदि का को दूर करनेवाला है। मुहल्ला या निवास । (बोल०)। सोनचिरई --सञ्ज्ञा स्त्री० [हिं० सोना + चिरई) दे० 'सोनचिरी'। सोनहला--सञ्ज्ञा पुं० [हिं० सोना + हला (प्रत्य॰)] भटकटया का सोनचिरी-सञ्ज्ञा स्त्री० [सोना+ चिरी (=चिडिया)] नटी। कांटा। (कहार)। उ.--पातरे अग उड बिनु पाँखरी कोमल भापनि प्रेम झिरी विशेष—पालकी देशति है। मय जब कही रास्ते मे भटकटैया के की। जोवन रूप अनूप निहारि के लाज मरै निविराज सिरी काँटे पडते हैं, तव ने के लिये आगे के कहार 'सोनहुला' 'सोदर की। कौल से नैन कलानिधि सो मुख को गर्न कोटि कला या 'सोनहला है' छ के कहारो को सचेत करते है । गहिरी की। बाँस के सीस अकास मे नाचत को न छक छवि ये काँटे पीले होते है । पाम से सोनचिरी की।देव (शब्द०)। सोनहला-वि० [वि० स्त्री० स. । दे० सुनहला' । उ०-उसपर सोनजरद-सञ्ज्ञा स्त्री० [हिं० सोना+ फा० जुर्द] दे० 'सोनजर्द' । उ०- वहाँ के राजा के पैर को जो हली छाप थी।--भारतेदु ग्र०, कोइ गुलाल मुदरसन कूजा। कोइ सोनजरद पाव भल पूजा।- भा० ३, पृ० २८३। (सह। जायसी (शब्द०)। सोनहा-सञ्ज्ञा पुं० [स० शुन ( = कुगर १ कुत्ते की जाति का एक सोनजर्द - सज्ञा स्त्री० [हिं० सोना + फा० जर्द] पीली जूही। स्वर्ण छोटा जगली जानवर । यूयिका । विशेप-यह जानवर झुड मे रहता है और बडा हिंसक होता सोनजुही-सज्ञा स्त्री॰ [स० स्वर्ण + हि० जूही] दे॰ 'सोनजही' । है। यह शेर को भी मार डालता है। कहते हैं, जहाँ उ०-क) देखी सोनजुही फिरनि सोनजुही से अग। दुति यह रहता है, वहाँ शेर नही रहते। इसे 'कोगी' भी कहते