पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर भाग 10.djvu/४९०

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पृ० २४३। सोषण, सोषन ८०१० सौहड सोषण, सोषन-सज्ञा पुं॰ [स० शोपण] दे॰ 'शोषण' । उ० पृ० १२६ । (प) अग अनग की रोमनी मैं सुभ सोसनी चीर मोहन बसीकरन उच्चाटन । सोषन दीपन थभन घातन। चुभ्यो चित चाइन । जाति चली वृज ठाकुर मैं ठमका ठमका गोपाल (शब्द०)। ठुमकी ठकुराइन । -पदमाकर ग्र० १३० । सोषना-कि० अ० [स० शोषण] दे० 'सोखना'। उ०-पुनि अत सोसाइटी, सोसायटी-सा पी० [अ०] १ ममाज । गोष्ठी। जैसे- हकोप निर्मल चोप नाही धोष गुन सोष । --सुदर० ग्र०, भा० १, हिंदू मोसायटी। बगाली सोसाइटी। २ सगत । सोहवत । जैसे-उसकी सोसायटी अच्छी नहीं है। सोपु, सोसु-वि० [हिं० सोखना] सोखनेवाला । उ०-दभ हू कलि सोसिg--पद [सं० स + असि] सो हो। वह हो। उ०—जोसि नाम कुभज सोच सागर सोषु ।-तुलसी (शब्द॰) । सोसि तन चरन नमामी।-मानस, ११६१ । सोष्णीष' - सशा पुं० [स०] बृहत्सहिता मे उल्लिखित वास्तु विद्या के सोस्मि पु-पद [म० स + अस्मि] दे० 'सोऽहमस्मि' । ३०--निंग अनुसार एक प्रकार का भवन जिसके पूर्व भाग मे वीथिका हो। शरीर नाम तब पावै । जब नर अजपा मे मन लावं। अजपा सोष्णीष-वि० उष्णीपयुक्त । पाग धारण करनेवाला [को०] । किं जो सोम्मि उमामा। सुमिरै नाम महित विश्वासा ।- सोम-वि० [सं० सोष्मन्] १ ऊष्मा से युक्त । ऊष्म (वर्ण अक्षर)। विश्राम (शब्द०)। २ ऊष्ण । गरम । तप्त (को०] । सोह -पद [म० सोऽहम्] दे० 'सोऽहम्' । उ०--मानन लगे ब्रह्म जिय सोम--सज्ञा पु० उष्म वर्ण । काही । सोह रटन मची चहुँ घाही।-रघुराज (गन्द०)। सोष्यती--सञ्चा स्त्री० [सं० सोष्यन्ती] वह स्त्री जो प्रसव करनेवाली सोहगः-पद [सं० सोऽहम + हिं० ग (प्रत्य॰)] दे० 'सोऽहम्' । उ०--- हो । अासन्नप्रसवा। साधु सजे मिलि बैठे पाई। वह विधि भक्ति करो चित सोष्यती कर्म--सघा पुं० [सं० सोष्यन्ती कर्मन्] प्रासन्नप्रसवा (प्रसूता) लाई। कहें कबीर नुनो भइ साधो। योहग सोहग शब्द स्त्री के सबध मे किया जानेवाला कृत्य या सस्कार । अराधो।-कवीर (शब्द॰) । सोष्यती सवन-सज्ञा पुं० [सं० सोष्यन्तो सवन] एक प्रकार का सोहंगम-पद [हिं० सोहग+ म] दे० 'सोऽहम्' । उ०-सुरति सोहगम सस्कार। डेरि है, अग्न सोहगम नाम । सार शब्द टकसार है, कोइ विरले सोष्यती होम--सज्ञा पुं० [सं० सोयन्ती होम] एक प्रकार का होम पावै नाम । -कवीर (शब्द०)। जो आसन्नप्रसवा स्त्री की ओर से किया जाता है। सोह जि-सशा पुं० [सं० सोहजि] भागवत वणित कुतिभोज के एक सोसल-साझा पु० [स० शोच] दे० 'सोच'। उ०-चार वार यातें पुत्र का नाम। कहत यह मेरे जिय सोस । क्यो है सुकुमार वह तुमरी प्रातप सोहँ-क्रि० वि० [हिं०] दे० 'सौ है। उ०-सोहहु भौहन ऐंठति रोस 1--स० सप्तक, पृ० ३६७ । (ख) जफा इस अंदेशे का ना सोस कर, कहे मन मे यू अाह अफसोस कर।--दक्खिनी०, है कैसो तुम हिरदय । सुकवि लखी नहिं सुनी बात ऐसी कहे निरदय । -व्यास (शब्द०)। पृ० १३६। सोसन-मज्ञा पुं० [फा० सोसन] फारस की ओर का एक प्रसिद फूल सोहंग:-पद [हिं० सोहग] b• 'सोऽहम्' । उ०-जब नहिं पार का पौधा जो भारतवर्ष मे हिमालय के पश्चिमोत्तर भाग अर्थात् सोहँगी-समा स्त्री० [हिं० सोहाग] १ तिलक पढ़ने के बाद की एक प्रमी निर्माया, नहिं सोहेंग विस्तारा।-कवीर म०.१० १६४ । काश्मीर आदि प्रदेशो मे भी पाया जाता है । रस्म जिसमे लडकेवाले के यहां से लडकी के लिये कपडे, गहने, विशेष--इसकी जड मे से एक साथ ही कई डठल निकलते हैं। मिठाई, मेवे, फल, खिलोने, भादि सजाकर भेजे जाते हैं । पत्ते कोमल, रेशेदार, हाथ भर के लवे, पाघ अगुल चौडे और उ०-प्रति उत्तम विचारि के जोरी। भए मुदित सवधहि नोकदार होते हैं। फूलो के दल नीलापन लिए लाल, छोर पर जोरी । भेज्यो तिलक दाम भरि बहंगी। तुमहु सुता हित साजह नुकीले और आध अगुल चौडे होते हैं। बीजकोश ५ या ६ सोहंगी।-(शब्द०)। अगुल लबे, छहपहले और चोचदार होते हैं। हकीमो मे इसके फूल और पत्ते औषध के काम मे पाते हैं और गरम, रूखे तथा सोहगी--सक्षा स्त्री० [हिं० सोहाग] १ दे० 'सोहँगी'। उ०—कदाचित् कफ और वातनाशक माने जाते हैं। इसके पत्तो का रस सिर वारात वा सोहगी निकलने का समय है। -प्रेमघन॰, भा॰ २, दर्द और आंख के रोगो में दिया जाता है। इसे शोभा के लिये पृ० ११६ । २ सिंदूर, मेहदी प्रादि सुहाग की वस्तुएँ । बगीचे मे लगाते है। फारसी के शायर जीभ की उपमा इसके सोहगेला -सग पुं० [हिं० सुहाग या सोहाग + ऐला (प्रत्य॰)] दल से दिया करते हैं। [बी० सोहगली] लकडी की कगूरेदार डिविया जिसमें विवाह सोसनी--वि० [फा० सीसन] सोसन के फूल के रग का। लाली लिए के दिन सिंदूर भरकर देते हैं । सिंदूरा। नीला। उ०—(क) सोसनी दुकूलनि दुराए रूप रोसनी है, सोहडा सज्ञा, पुं० [सं० सुभट, प्रा० सुहड, राज० सोहड] दे० बूटेदार घांघरी की घूमनि घुमाइक। कहै पदमाकर त्यो उन्नत 'सुभट' । उ०—पिंगल बोलावा दिया, सोहड सो प्रसवार।- उरोजन पै तग अगिया है तनी तननि तनाइक ।--पद्माकर ग्र०, ढोला०, दू० ५६७।