पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर भाग 10.djvu/५०१

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सौदायिक ८०२१ सौन विशेष-दायभाग के अनुसार इस प्रकार मिला हुआ धन स्त्री का सौवशिखर--सज्ञा पुं० [म०] दे० 'सौधमौलि' [को० । हो जाता है। उसपर उसी का सोलहो आने अधिकार होता सौषाकार--वि० [स०] सुधाकर या चद्रमा सबधी। चद्रमा का। है, और किसी का कोई अधिकार नहीं होता। सौवात--सज्ञा पुं० [स०] ब्राह्मण और भृज्जकठी से उत्पन्न सतान । २ दहेज । दायज । दाइज । विशेष--भृज्जकठ एक वरणसकर जाति थी जो व्रात्य ब्राह्मण सौदायिक'--वि० दाय सबधी । दाय का । और ब्राह्मणी से उत्पन्न थी। सौदावी-वि० [अ०] वात के कारण उत्पन्न । वातजन्य । सौदा या सौधातकि--सज्ञा पुं० [स०] सुधाता के अपत्य । उन्मादजन्य [को०] । सौधार-सज्ञा पु० [स०] नाट्य शास्त्र के अनुसार नाटक के चौदह सौदास-मझा पुं० [म०] इक्ष्वाकु वशी एक राजा का नाम । ये राजा भागो मे से एक का नाम । सुदास के पुत्र और ऋतुपर्ण के पौत्र थे। इन्हें मित्रसह और सौधाल-सज्ञा पु० [सं०] शिव का मदिर । शिवालय । कल्मपपाद भी कहते है। सौधावति-सञ्ज्ञा पुं० [सं०] सुधावति के अपत्य । सौदासि-सज्ञा पु० [स०] १ एक गोनप्रवर्तक ऋषि का नाम । २ इन ऋषि के गोत्र का नाम । सौधृतेय-मज्ञा पुं० [स०] सुधृति के अपत्य या यशज । सौदेव-सज्ञा पुं० म० । मुदेव के पुत्र, दिवोदास ।, सौवोतकि-संज्ञा पु० (स०] दे० 'सौधातकि' । सौनद-सञ्ज्ञा पुं० [स० सौनन्द वलराम के मूषल का नाम । सौद्युमिन-मज्ञा पुं॰ [स०] सुद्युम्न के अपत्य या वशज । सौनदा-सक्षा स्त्री० [स० सोनन्दा] मार्कंडेय पुराण के अनुसार वत्सप्री सौधर-सञ्ज्ञा पुं० [सं०] १ भवन । प्रासाद । अट्टालिका। महल । की पत्नी का नाम। उ०-जहाँ विमान वनितान के श्रमजल हरत अनूप । सौध सौनदो-सञ्ज्ञा पु० [सं० सौनन्दिन्] बलराम का एक नाम जो अपने पताकनि के वसन होइ विजन अनुरूप । -मतिराम (शब्द०)। २ चाँदी। रजत । ३ दुधिया पत्थर । दुग्धपाषाण । ४ एक पास सौनद नामक मूसल रखते थे। प्रकार का रत्न (को०)। ५ चूना (को०)। ६ चूने से धवलित सौन@र-क्रि० वि० [स० सम्मुख) सामने। प्रत्यक्ष। उ०—व्याह गृह (को०)। कियो कुल इष्ट वसिष्ट अरिष्ट टरे घर को नृप धाए। ल सुत चार विवाहत ही घरी जानकी तात सबै समुदाए। सौन भए सौधर-वि० १ सफेदी, पलस्तर या अस्तरकारी किया हुमा। २ सुधा अपसौन सर्व पथ कांप उठे जिय मे दुख पाए।--हनुमन्नाटक से युक्त (को०) । ३ सुधा सवधी (को०)। (शब्द०)। सोधक-सज्ञा पु० [सं०] परावसु गधर्व के नौ पुत्रो मे से एक । उ०- सौन--सञ्चा पु० [स०] १ कसाई । बूचड । २ वह ताजा मांस जो ब्रह्म कल्प महँ हो गधर्वा । नाम परावसु तेहि सुत सर्वा । मदर विक्री के लिये रखा हो। मवर मदी सोधक । सुधन सुदेव महाबलि नामक ।-गोपाल यौ-सौनधर्म्य = कसाई और पणु की सी शत्रुता । प्राणघातक (शब्द०)। दुश्मनी। सोनपातक = वह व्यक्ति जिसके यहाँ रक्षा के काम सौधकार-सञ्ज्ञा पुं० [स०] सौध बनानेवाला । प्रासाद या भवन बनाने- मे कसाई नियुक्त किए गए हो । वाला। राज । मेमार। सौन--वि० पशुबधशाला या कसाईखाने का । पशुवधशाला सवधी। सौधतल-सञ्चा [स०] महल या प्रासाद का निचला हिस्सा [को॰] । सौन-सज्ञा पुं० [स० श्रवण] दे० 'स्रोन'। उ०-भर्म भूत सबही सौधना-क्रि० स० [स० शोधन, हिं० सोधना] दे॰ 'सोधना' । उ०--ताते लेनौ सौधौ या कौ। तव उपाय करिही मैं ताको। छुटेरी हेली सीन नछतर नाल ।-चरण० बानी०, भा० २, पृ० १४५॥ ---सूदन (शब्द०)। सौनक'--सज्ञा पु० [म० शौनक दे० 'शौनक' । उ०-सौनक मुनि सौवन्य--वि० [म०] सुधन से उत्पन्न । 'आसीन तह अति उदार तप रासि । मगन राम सिय ध्यान सौवन्वन-सञ्ज्ञा पु० [स०] दे० 'सौधन्वा' । महँ, वेद रूप आभासि । -रामाश्वमेध (शब्द०)। सौधन्वा-सशा पु० [स० सौधन्वन्] १ सुधन्वा के पुत्र, ऋभु । २ सौनकर-सहा पु० [स० सीन या सौनिक कसाई । वधिक । उ०- एक वर्णसकर जाति। जिहि विस्वास सुसा के तात । सौनक ज्यो मैं कीनी घात । सौधमौलि-सज्ञा पु० [म.] सौध का सिरा या सबसे ऊंचा भाग (को०] । -नद० ग्र०, पृ० २३२ । सौचम-सञ्ज्ञा पुं० [स०] जैनियो के देवताओ का निवासस्थान । सौनना-सञ्ज्ञा स्त्री० [हिं० सौंदना] कपडो को धोने से पहले उनमे रेह कल्पभवन । आदि लगाना। रेह की नांद मे कपडे भिगोना। सौदना । सौवर्मज-सज्ञा पुं० [स०] सौधर्म अर्थात् कल्पभवन मे उत्पन्न एक (धोबी)। उ०--तन मन लाय के सोनन कीन्हा धोअन जाय प्रकार के देवता। -(जैन)। साधु की नगरी। कहहिं कबीर सुनो भाइ साधू, विन सतसँग सौधर्म्य-सञ्ज्ञा पुं० [स०] १ सुधर्म का भाव । २ साधुता । भलमनसत । कबहूँ नहिं सुधरी।--कवीर (शब्द०)।