पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर भाग 10.djvu/८७

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। वाला। सँझत्राती' ४६०३ समार मॅझवाती धनसार नीर चदन मो वारि लीजियत न अनल सँदेसा-मज्ञा पुं० [स० सन्देश] किसी के द्वारा जदानी कहलाया चहियतु है। हृदयराम (शब्द०)। २ वह गीत जो सध्या हुअा ममाचार प्रादि । खवर । हालचाल । समय गाया जाता है । प्राय यह विवाह के अवसर पर होता है । कि० प्र०-याना -जाना।-पाना।-मेजना ।-निलना। झवाती-वि० सध्या सवत्री। मध्या का। संदसी-पमा पु० [हिं० सदेमा+ई (प्रत्य॰)] वह जो सदेसा ले झिया, संझेया-सहा पुं० [म० सन्ध्या] वह भोजन जो सध्या के जाता हो। सदेशवाहक । बसी।-उ०-राजा जाइ नहाँ समय किया जाता है । रात्रि का भोजन । वहि लागा । जहाँ न कोड संदेसी कागा।-जायसी (शब्द०)। पॅझोखा-पक्षा पु० [स० मन्ध्यादे० 'समोखे'। सँदेहिल पु-वि० [म० सदेह + हिं०, इल (प्रत्य॰)] मदेहास्पद । सॅझोखे -पना स्त्री० [म० सन्ध्या सध्या का समय । शाम का वक्त । सदेहयुक्त । उ०--नाम धर्यो सदिग्ध पद सब्द सदेहिल जासु। उ.--गोप अथाइनि ते उठे गोरज छाई गैल । चलि बलि अलि --भिखारी० ग्र०, भा० २, पृ० २२२ । अभिसारिके भती सझोखे सैल ।-विहारी (शब्द०)। संपुटोल -सहा स्त्री॰ [स० सम्पुट] कटोरी । प्याली। संझौती -पहा ना, वि० [हिं० सझा + प्रीती (प्रत्य॰) दे० 'सझवाती। संपूरन--वि० [स० सम्पूर्ण] १ पूर्ण। उ०प्रप्टम मास संपूरन सँटिया--मका स्त्री॰ [देश०] वॉस की लबी पतली छडी। साँटी। होई । —सूर०, ३।१३ । २ सफल । सिद्ध । ३ समाप्त [को०] । पतला वेत या छही। उ०-~सँटिया लिए हाथ नंदरानी सँपेरा-मझा ५० [हिं० साँप + एरा (प्रत्य॰)] [सी० सँपेरिन} साँप थरथरात रिस गात ।-सूर०, १०।३४१ । पालनेवाला आदमी। मदारी। साँप का तमाशा दिखलाने- सँठ'-पज्ञा पुं० [स० शान्त शाति । निस्तब्धता । खामोशी । मुहा० --सँठ मारना = चुपकी साधना । चुप रहना। कुछ न संपोला-मज्ञा पु० [हिं० सॉप+ ओला (अल्पा० प्रत्य॰)] साप का बोलना । न बोलना। बच्चा। संठ-गज्ञा पुं॰ [स० शठj । शठ । धूर्त । २ नोच । वाहियात । मुहा०--सँपोला पालना = ऐसे व्यक्ति को प्रश्रय देना जो ग्रागे सँड़सा-सचा पु० स० सन्दश] [ी अल्पा० सडसी) लोहे का एक चलकर उसी पर वार करे। नितराम् प्रविश्वसनीय व्यक्ति को श्रीजार जो दो छडो से बनता है । गहुआ । जवूरा। प्रश्रय देना। विशेष-इसके एक सिरे पर थोडा सा छोडकर दोनो छडो को संपोलिया--सञ्ज्ञा पु० [हिं० साँप + वाला] १ साँप पकडनेवाला । आपस मे कील से जड़ देते है। प्राय इसे लोहार गरम लोहा सँपेरा २ दे० 'संपोली'-२। आदि पकडने के लिय रखते है । सँपोली-सञ्ज्ञा स्त्री० [हिं० माप+अोली (प्रत्य॰)] १ वह पिटारी सँड़सी-मक्षा ली० [स० सन्दश] पतले छडो का एक प्रकार का सँउसा । जंबूरी। जिसमे सँपेरे सांप रखते है। २ वाँस के पोर पर से सूखकर विशेप -इसके दोनो छडो का अगला भाग अर्घ वृत्ताकार मुडा अलग हो जानेवाली सूप के आकार की खोल । सुपेली। हुआ होता है। इसमे पकडकर प्राय चूल्हे पर से गरम बटुली सँभरना --कि० अ० [हिं० संभलना] दे० 'संभलना'। आदि गोल मुंहवाले बरतन उतारते है । संभलना--क्रि० अ० [हिं० संभालना] १ किसी वोझ प्रादि का ऊपर सँडाई-सज्ञा ली० [हिं० सॉड] दे० 'सडाई' । लदा रह सकना । पकड मे रह्ना । यामा जा सकना। जैसे,- मंडास 9'-पशा खी० [हिं० ) दे० 'सँडासी' । यह वोम तुमसे नही सभलेगा। २ किमी सहारे पर रका रह संडासा-मञ्जा पी० [हिं०] संडी हुई वस्तु को Tध । सँडाँध । सकना । आधार पर ठहरा रहना। जैसे,—इस सने पर यह पत्थर नहीं संभलेगा। ३ होशियार होना। सचेत होना । सँड़ासी -सपा खी० [म० सन्दशिका दे० 'सँडसी'। उ०—खिन सावधान होना। जैसे,--इन ठगो के बीच संभल कर रहना । खिन जोव सँडासिन्ह ाँका । पावहि डाव छुवावहिं वाँका । ४ चोट या हानि से बचाव करना। गिरने पड़ने से एकना। -पदमावत, पृ०७०३ । जैसे,—वह गिरते गिरते संभल गया। संतरज-मा पु० [अ० शतरज, तुल० स० चतुरङ्ग ३० 'शतरज'। ५ बुरी दशा को फिर सुधार लेना । जैसे,—इस रोजगार मे इतना घाटा उठानागे कि उ.-मया सूर परसन मा राजा। साहि खेल सँतरेंज कर संभलना कठिन होगा। ६ कार्य का भार उठाया जाना । निर्वाह साधा।-पदमावत, पृ० ६१२ । सभव होना। जैमे,-हमने इतना खर्च नहीं मिलेगा। ७. मदेस-लज्ञा पुं० [स० सन्देश] दे० 'संदेसा' । उ०-पितु संदेस स्वस्थता प्राप्त करना । प्रारोग्य लाभ करना । चगा होना। सुनि कृपानिधाना ।-मानस, २०६७ । जैसे, बीमारी तो बहुत कडी पाई, पर अब संभल रहे है। सँदेसड़ा-सा पुं० [हिं० सदेस +डा (प्रत्य॰)] दे० 'सँदेसा'। उ०-पिउ सी कहेहुँ सँदेसडा, ह भौरा । हे काग ।-जायसी संभला-सशा पुं[हिं० संभलना एक वार विगउफर फिर सुधरी T०, पृ० १५४ ॥ हुई फसल। सँदेसरान-परा पु० [हिं० सदेन + रा (प्रत्य॰)] दे० 'संदेसा'। संभार-पशा पुं० [हिं० संभालना, स० नम्भार] १ देखरेख । उ.---जब लगि कह न संदेसरा ना मोहि भूख न प्यास । खवरदारी । निगरानी। २ पालन पोपण। उ०--करिय --पदमावत, १० ३६५। संमार कोसल राइ -तुलसी (शब्द०)। .