पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर भाग 11.djvu/१४६

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

न हो। हरितोपल ५४५८ हरिन हरितोपल-सज्ञा पुं० [सं०] दे० 'हरिताश्म' । हरिद्रागणपति-सज्ञा पुं० [सं०] गणपति या गणेश जी की एक मूर्ति हरितोपलेपन-ज्ञा पुं० [स०] १ हरे वर्ण का लेपन, रेखाकन जिनपर मन पटकर हलदी चढाई जाती है। या आवरण (को०] । हरिद्रागणेश-सज्ञा पु० [स०] दे० 'हरिद्रागणपति' (को०] । हरित्पति -सञ्ज्ञा पुं० [म०] दिशामो के पति । दिग्पति । दिगीश [को०]। हरिद्राद्वय-सज्ञा पु० [स०] हलदी और दारु हलदी। हरित्पर्ण -सज्ञा पुं० [म० ] मुरई । मूली (को०] । हरिद्राप्रमेह--सञ्ज्ञा पु० [स०] प्रमेह का एक भेद जिसमे पेशाव हलदी हरिदत-सज्ञा पु० [स० हरिदन्त ] दिगत । दिशामो का प्रत [को०] । के समान पीला पाता है और जलन होती है। हरिदतर-समा पुं० [सं० हरिदन्तर ] विभिन्न दिशाएँ । दिशातर । हरिद्राभ'--वि० [सं०] पीतवर्ण का। पीला । दिगतर (को०] । हरिद्राभ-सज्ञा पु० १ पीला रग । पीत वर्ण । २ प्रामा हलदी। हरिदवर-वि० [सं० हरिदम्बर] हरा या पीत वस्त्र पहननेवाला [को॰] । कचूर । कर्नूर को०)। हरिदर्भ -सचा पुं० [सं०] १ सब्जा घोडा। २ सूर्य जिनका घोडा हरिद्रामह-सञ्ज्ञा पु० [सं०] दे० 'हरिद्राप्रमेह । हरित् माना गया है। हरिद्राराग-सञ्ज्ञा पुं० [सं०] साहित्य मे पूर्व राग का एक भेद । वह हरिदश्व--सज्ञा पुं० [०] मूर्य का एक नाम [को०] । प्रेम जो हलदी के रग के समान कच्चा हो, स्थायी या पक्का हरिदास-सझा पुं० [ स०] भगवान् का सेवक या भक्त । हरिदिक्-सझा सी० [स० हरिदिश् ] इद्र की दिशा । पूर्व दिशा विशेष--पूर्व राग के कुसुभ राग, मजिष्ठा राग प्रादि कई भेद जिसका अधिपति इद्र है [को०। किए गए हैं। हलायुध मे 'क्षणमानानुरागश्च हरिद्वाराग हरिदिन, हरिदिवस-महा पुं० [सं० ] एकादशी। उच्यते' अर्थात् क्षणिक अनुराग को हरिद्रा राग कहा है । हरिदिशा-सज्ञा मो० [स०] पूर्व दिशा, जिसके लोकपाल या हरिद्रव-सज्ञा पुं॰ [स०] १ हरा द्रव या रस। २ नागकेसर के पुष्पो का अधिष्ठाता इद्र है। चूर्ण (को०]। हरिदेव--सधा को॰ [ सं०] १ विष्णु । २ श्रवण नामक नक्षत्र हरिद्रु-सञ्ज्ञा पुं० [स०] १ वृक्ष । पेड । २ दारुहल्दी [को॰] । जिसके अधिष्ठाता इद्र हैं । हरिद्वार-सञ्ज्ञा पुं० [सं०] एक अत्यत पवित्र पुरी जो प्रसिद्ध तीर्थ- हरिद्गर्भ -सज्ञा पुं० [ स०] १ दे० 'हरिदर्भ।' २ हरा या पीताभ स्थान है। कुश जिसकी पत्तियाँ चौडी हो (को०) । विशेष-यहां से गगा पहाडो को छोडकर मैदान मे आती हैं। इसी हरिद्दतावल-तज्ञा पुं० [स० हरिद्दन्नावल] हरदी। हरिद्रा [को०) । से इसे 'गगाद्वार' भी कहते हैं । 'हरिद्वार' इसलिये कहते हैं कि हरिद्रजनी- इस तीर्थ के सेवन से विष्णुलोक का द्वार खुल जाता है । --सचा सो० [सं० हरिद्रजनी ] हरिद्रा । हरदी (को०] । हरिद्विष्--सज्ञा पुं० [स०] विष्णु का द्रोही, असुर (को०] । हरिद्र-सचा पुं० [सं०] पीला चदन । हरिद्वेषी-सज्ञा पुं० [सं० हरिद्वेपिन्] १ वह जो विष्णु का द्वेषी हो। हरिद्रक-सया पुं० [सं०] १ पीला चदन । २ एक नाग का नाम । वह जो विष्णु के प्रति द्रोहभावना से युक्त हो । २ असुर । हरिद्रखड- सज्ञा पुं० [स० हरिद्रखण्ड] एक औषध जिसके सेवन से दाद, हरिधनु, हरिधनुष-सधा पु० [सं०] १ इंद्रधनुष । उ०-वकराजि खुजली, फोडा फुसी और कुष्ट रोग दूर होता है । राजति गगन हरिधन तडित दिसि दिसि सोहई। नभनगर विशेष-सोठ, काली मिर्च, पिप्पली, तज, पन्नज, वायविडग, की सोभा अतुल अवलोकि मुनि मन मोहई ।--तुलसी ग्र०, पृ० नागकेसर, निमाथ, त्रिफला, केसर और नागरमोथा मव टके टके ४१८ । २ विष्णु का धनुष जो समुद्रमथन से उत्पन्न हुमा भर लेकर चूर्ण करे और गाय के घी मे मान डाले तथा ४ टके था और जिसका नाम शाङ्ग है। भर हरदी का चूर्ण ४ सेर दूध में मिलार खोया बना ले। हरिधाम-सञ्ज्ञा पुं॰ [सं० हरिधामन्] विष्णुलोक । वैकुठ। फिर मित्री की चाशनी में सबको मिलाकर टके टके भर की हरिन--सञ्ज्ञा पुं० [स० हरिण] [स्त्री॰ हरिणी] बुर और सीगवाला गोलियां वांध ले। एक चौपाया जो प्राय सुनसान मैदानो, जगलो और पहाडो हरिद्राग-सहा पु० [सं० हरिद्राङ्ग] एक प्रकार का कबूतर । मे रहता है। मृग। हरिद्रा-सज्ञा सो [स०] १ हनदी । २ एक नदी का नाम । ३ वन । विशेष-हरिन की बहुत जातियां होती हैं, जैसे--कृष्णसार, एण, जगल ।-प्रनेकार्य (शब्द०)। ४ मगल ।-अनेकार्थ कस्तूरी मृग, वारहसिंगा, मांभर इत्यादि । यह जतु अपनी (शब्द०)। ५ मीमा धातु ।-अनेकार्य (शब्द०)। ६ निशा। तेज चाल, कुदान और चचलता के लिये प्रसिद्ध है। यह झुड उ.--कहत हरिद्रा वनयली, निशा हरिद्रा होइ । बहुरि हरिद्रा बांधकर रहता है और स्वभावत डरपोक होता है। मादा हरिन मगली, हरद हरिद्रा सोड। -अनेकार्थ०, पृ० १६१ । के सीग नही वढते, अकुर मात्र रह जाते है, इसी से पालने- हरिद्राक्त--वि० [स०] हन्द्रिा से लिप्त या पुता हुमा [को०] । वाले अधिकतर मादा हरिन पालते हैं । इसकी नाँखे बहुत ।