पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर भाग 11.djvu/१४७

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हरिनक्षत्र ५४५६ हरिप्रिय 1 वडी और काली होती है, इसी से कवि लोग बहुत दिनो से हरिनी-सशा स्त्री० [हिं० हरिन] १ मादा हिरन । स्त्री जाति का मृग। स्त्रियो के सदर नेत्रो की उपमा इसकी आँखो से देते आए है। मृगी। उ०--(क) यह तन हरियर खेत, तरुनो हरिनी चरि शिकार भी जितन। इस जतु का ससार मे हुमा और होता है, गई। अजहूँ चेत, अचेत, यह अघचरा वचाइ ले ।--सम्मन उतना शायद ही और किसी पशु का होता हो। 'मृगया' जिस (शब्द०)। (ख) हरिनी के नैनान सो हरि नीके नैनान । प्रकार यहाँ राजापो का एक साधारण व्यसन रहा है, उसी -विहारी (शब्द०)। २ जूही का फूल। यूथिका ।-अनेकार्य प्रकार और देशो मे भी । हिदुओ के यहाँ इसका चमडा बहुत (शब्द०)। ३ वाज पक्षी की मादा। - अनेकाथ (शब्द०)। पवित्र माना जाता है, यहां तक कि उपनयन संस्कार मे भी ४ स्वर्णप्रतिमा। सोने की मूर्ति । उ०-हरिनी प्रतिमा हेम इमका व्यवहार होता है। प्राचीन ऋषिमुनि भी मृगचर्म धारण की, हरिनी मृग की तीय हरिनी जूथी जासु की फूल माल हरि करते थे और आजकल के साधु सन्यासी भी। हीय ।-अनेकार्थ०, पृ० १६१। ५ सोनजुही । स्वर्णयूथिका । हरिनक्षत्र-सञ्ज्ञा पुं० [स०] श्रवण नक्षत्र, जिसके अधिष्ठाता देवता ६ गणिका । वेश्या । उ०-हरिनी गनिका जूथिका हेमपुप्पिका विष्ण है। जाय।-अनेकार्थ०, पृ० १०५ । हरिनख-सज्ञा पुं० [सं०] १ सिंह या वाघ का नाखून । २ वह तावीज हरिनेत्र'--वि० [स०] कपिश या भूरी और हरी आँखोवाला [को०] । जिसमे वाघ के नाखून लगाए गए हो । हरिनेत्र--सञ्ज्ञा पुं० १ विष्णु का नेत्र । २ वह आँख जो हरे या विशेष--स्त्रियां यह ताबीज बच्चे को नजर आदि से बचाने के भूरे वर्ण की हो। ३ कुमुद । श्वेत कमल । ४ उलूक । खयाल से पहनाती हैं। इसे वधनहाँ भी कहते है। सूरदास ने उल्लू (को०। केहरिनख शब्द का इस अर्थ मे प्रयोग किया है। हरिन्मरिण-सचा पुं० [स०] पन्ना । मरकतमणि [को॰] । हरिनगर-सञ्ज्ञा पुं० [०] सर्प का मणि । हरिन्मुद्ग--सञ्ज्ञा पुं० [स०] हरित वर्ण की मूंग। शारद [को०] । हरिननैनी@-वि० स्त्री० [सं० हरिणनयनी] मृग के सदृश नेत्रवाली । हरिपद-सञ्ज्ञा पुं० [सं०] १ त्रिष्ण लोक । वैकुठ । उ०--जो यह मगल मृगननी । उ०--हाहा के निहोरे हूँ न हेरति हरिननैनी। गावहिं हरिपद पावहिं हो । -तुलसी (शब्द॰) । २ विष्ण के -मति० ग्र०, पृ० ३२२ । चरण। उ०-धरनि धरहि मन धीर कह विरचि हरिपद हरिनवारि-सञ्ज्ञा स्त्री० [स० हरिन + वारि] मृगजल । मृगतृष्णा । सुमिरु ।-मानस, ११८४ । ३ गया जिले में पड़नेवाला उ०--पायो केहि घृत विचारु हरिनवारि महत। तुलसी तक फल्गु नदी का तटवर्ती एक तीर्थ जिसे विष्णुपद कहते है। ४ मेष की सक्राति। वासतिक विषुव । दे० 'महाविषुव' । ५ तासु सरन जाते सव लहत । -तुलसी ग्र०, पृ० ५२२ । एक छद का नाम जिसके चारो पदो मे मिलकर कुल ५४ हरिनहर्रा--सज्ञा पुं॰ [देश०] सोहाग नामक वडा सदाबहार वृक्ष जिसके मात्राएँ होती हैं। वीजो से जलाने का तेल निकलता है। विशेष दे० 'सोहाग' । विशेष-हरिपद छद के विपम (पहले और तीसरे) चरणो मे हरिनाg -सञ्ज्ञा पुं० [स० हरिणक] दे० 'हरिन' । उ०---कहाँ दीन १६ तथा सम (दूसरे और चौथे) चरणो मे ११ मात्राएँ होती हरिनान के प्रति ही कोमल प्रान । ये तेरे तीखे कहाँ सायक वज्र हैं और अत मे गुरु लघु होता है--विषम हरिपद कीजिय समान ।--शकुतला, पृ०६। सोरह सम शिव (११) दै सानद ।' जैसे,-रघुपति प्रभु तुम हरिनाकुस -सज्ञा पु० [स० हिरण्यकशिप] विष्णु का प्रवल विरोधी हो मे नित, पालो करके दास । परम धरम ज्ञाता पर- दैत्यराज जो प्रह्लाद का पिता था। विशेष दे० 'हिरण्यकशिपु'। मानहु येही मन की आस ।-छद ०, पृ० ८२ । उ० -हरिनाकुस औ कस को गयो दुहुन को राज ।-गिरिधर हरिपर्ण [-सञ्ज्ञा पुं० [स०] १ वह जिसके पत्ते हरे हो। हरे पतोवाला। (शब्द०)। २ मूलक । मुरई । विशेष दे० 'मूली' । हरिनाक्ष-सज्ञा पुं० [स० हिरण्याक्ष] एक दैत्यराज जो हिरण्य- हरिपर्वत-सशा पुं० [सं०] एक पर्वत का नाम [को०] । कशिपु का भाई था। विशेष दे० 'हिरण्याक्ष । हरिपिंडा-सशा स्त्री० [सं० हरिपिण्डा] स्कद की एक मातृका का हरिनाच्छ-सज्ञा पुं॰ [सं० हिरण्याक्ष] दे० 'हिरण्याक्ष' । उ०- नाम [को०] । मारि हरिनाच्छ उर फार कर नखन सो, भार हर भूमि अति हरिपुर-संशा पुं० [स०] विष्णुलोक । वैकुठ। उ०-हरिपुर गएउ शोक टारयो। भारतेंदु ग्र०, भा॰ २, पृ० ४३८ । परम वडभागी।-मानस, ४।२७ । हरिनाथ-सा पुं० [स०] (बदरो मे श्रेष्ठ) हनुमान् । हरिपैडी 1-समा स्त्री० [हिं० हरि + पैडी (= सीढी)] हरिद्वार तीर्थ हरिनाम-मज्ञा पुं० [स० हरिनामन्] भगवान् का नाम । मे गगा का एक विशेष घाट जहाँ के स्नान का बहुत माहात्म्य है। भजता क्यो नाही हरिनाम । तेरी कौडी लगे न दाम । हरिप्रस्थ सज्ञा पुं० [सं०] इद्रप्रस्थ । -(शब्द॰) । हरिप्रिय-सज्ञा पुं० [सं०] १ कदव । २ वधूक । गुलदुपहरिया । हरिनामा-सज्ञा पुं० [स० हरिनामन्] मूंग । मुद्ग (को०] । ३ शिव (को०)। ४ शख । ५ मूर्ख आदमी। ६ पागल । हिं० श० ११-१७ उ०-