पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर भाग 11.djvu/२१४

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HO ५५२६ हीनरस विशेप-स्मृतियो मे पांच प्रकार के होन साक्षी कहे गए हैं, हीनपक्ष'-सज्ञा पुं० [सं०] १ गिरा हुअा पक्ष। तर्क मे किसी की अन्यवादी, क्रियापी, नोपस्थायी, निरुत्तर और ग्राहूतप्रपलायी। ऐसी वात जो प्रमाण द्वारा सिद्ध न हो सके । ऐमी वात जो २ न होने की स्थिति । अभाव। कमी (को०) । ३ घटाना। दलीलो से सावित न हो सके । २ कमजोर मुकदमा । वाकी । व्यवकलन (को०) । ४ अधम नायक । (साहित्य) । हीनपक्ष'--नि० अरक्षित । पक्ष या सहायहीन [को॰] । यौ०-हीनकुष्ठ । हीनकोश । हीनऋतु । हीनज । हीनजाति । हीनप्रतिज्ञ---वि० [स०] जो अपनी प्रतिज्ञा से हीन हो । वचन का हीननायक (नाटक)। हीनसेवा । पालन न करनेवाला (को०] । हीन-सञ्ज्ञा पुं० [अ] काल । ससय । हीनवल-वि० [स०] बलरहित या जिमका वल घट गया । शक्ति- हीनक-वि० [ ] रहित । हीन [को०] । रहित । कमजोर । हीनकर्मा-वि० म० हीनकर्मन् ] १ यज्ञादि विधेय कर्म से रहित। हीनवाहु-सज्ञा पुं॰ [स०] शिव के एक गण का नाम । अपना निर्दिष्ट कर्म या आचार न करनेगला । जैसे,- हीनवुद्धि-वि० [स०] वृद्धिशून्य । दुर्वद्धि । जड। मूर्ख । हीनकर्मा ब्राह्मण । २ निकृष्ट कर्म करनेवाला । बुरा काम हीनमति-वि० [स०] वुद्धिशून्य । जट। मूर्ख । उ०-~इक हौं दीन करनेवाला । मलीन हीनमति विपति जाल अति घेरो। तापर सहि न जात हीनकुल-वि० [सं०] वुरे या नीच कुल का । बुरे खानदान का । करुनानिधि मन को दुसह दरेरो। तुलसी ग्र०, पृ० ५३१ । हीनकुष्ठ-सधा पुं० [स० ] एक प्रकार का कुष्ठ रोग । हीनमूल्य'-सज्ञा पुं० [स०] याज्ञवल्क्य स्मृति के अनुसार कम दाम । हीनकोश-वि० [सं०] जिसका कोश रिक्त हो । जिसके खजाने किसी वस्तु का कम मूल्य । मे धन सपत्ति न हो। हीनमूल्य-वि० जिसका दाम या मूल्य कम हो । कम दाम का। हीनऋतु- संज्ञा पु० यज्ञविरहित । यागादि से रहित । हीनयान-सञ्ज्ञा पुं० [स०] वौद्ध सिद्धात की आदि और प्राचीन शाखा हीनक्रम--सशा पु० [ स० ] काव्य मे एक दोप जो क्रमभग होने जिसके ग्रथ पाली भाषा मे हैं । पर माना जाता है। विशेष--इस शाखा का प्रचार एशिया के दक्षिण भागो मे, विशेप-काव्य मे हीनक्रम दोप उस स्थान पर माना जाता है सिंहल, बरमा, और स्याम आदि देशो मे है, इसी से यह जहाँ जिस क्रम से गुण गिनाए गए हो, उसी क्रम से गुणी 'दक्षिण शाखा' के नाम से भी प्रसिद्ध है । 'यान' का अर्थ है न गिनाए जायें । जैसे,—जग की रचना कहि कौन करी । निर्वाण या मोक्ष की ओर ले जानेवाला रथ । हीनयान के केइ राखन कीजिय पंजधरी । अति कोपि के कौन संहार करै। सिद्धात सीधे सादे रूप मे अर्थात् उसी रूप मे है जिस रूप मे हरिजू, हर जू, विधि बुद्धि रर । यहाँ प्रश्नो के क्रम से उत्तर गौतम बुद्ध ने उनका उपदेश किया था। पीछे 'महायान' इस प्रकार होना चाहिए था-विधि जू, हरि जू, हर वुद्धि शाखा मे न्याय, योग, तन आदि बहुत से विपयो के समिलित र। पर वैसा न होकर क्रम का भग कर दिया गया है । होने से जटिलता आ गई । वैदिक धर्मानुयायी नैयायिको हीनक्रिय-वि० [स०] दे० 'हीनकर्मा' । के साथ खडन मडन मे प्रवृत्त होनेवाले बौद्ध महायान शाखा के थे, जो क्षणिकवाद आदि सिद्धातो पर बहुत जोर देते थे । हीनचरित-वि० [सं० ] जिसका आचरण वुरा हो। हीनयान आराधना और उपासना का तत्व न रहने से जन- हीनच्छिदिक-सञ्ज्ञा पुं॰ [ स० हीनच्छिन्दिक ] कौटिल्य द्वारा वर्णित साधारण के लिये रूखा था क्योकि इस शाखा के अनुयायी वह सध या श्रेणी जो कुल, मान मर्यादा, शक्ति आदि मे बहुत बुद्धवचन को प्रमाण मानते हैं । इससे 'महायान शाखा' के घटकर हो। वहुत अनुयायी हुए जो बुद्ध, बोधिसत्वो, वुद्ध की शक्तियो हीनज-वि० [स०] जो निम्न कुल मे उत्पन्न हो [को०] । (जो तानिको की महाविद्याएँ हैं) आदि के अनुग्रह के लिये हीनजाति-वि० [सं०] १ जो जातिच्युत हो । २ जो निम्न जाति या पूजा और उपासना मे प्रवृत्त रहने लगे । इससे 'हीनयान' वर्ण का हो [को०] । का यह अर्थ लिया गया कि उसमे बहुत कम लोगो के लिये हीनता-संज्ञा स्त्री० [सं०] १ अभाव । राहित्य । कमी । २ दोप या जगह है। त्रुटियुक्त होना । सदोपता । उ०-गीध सिला सबरी की हीनयोग'-वि० [सं०] योगभ्रष्ट । सुधि सब दिन किए होडगी न साई सो सनेह हित हीनता। हीनयोग'-सज्ञा पुं० आयुर्वेद के अनुसार उचित परिमाण से कम -तुलसी ग्र०, पृ० ५८६ । ३ क्षुद्रता । तुच्छता । ४ अछिापन। ओषधि मिलाना । ५ वृराई । निकृष्टता। हीनयोनि-वि० [सं०] निम्न जाति का । जिसकी उत्पत्ति अच्छे कुल हीनत्व-सधा पु० [स०] दे॰ 'हीनता'। होननायक-वि० [म०] जिस काव्य या नाटक का नायक निकृष्ट या हीनरस--सञ्ज्ञा पुं० [स०] काव्य मे एक दोष जो किसी रस का अधम हो (को०] । वर्णन करते समय उस रस के विरुद्ध प्रसग लाने से होता है। मे न हो।