पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर भाग 11.djvu/६६

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स्यो ५३७८ सजना 1 स्रग्ण- 1 स्यो'–अव्य० [म० सह] १ सह । सहित । उ०--(क) मुनि शिष ३ एक वृत्त का नाम जिमके प्रत्येक चरण में चार नगण और कत दत तृन धरिक स्यो परिवार सिधारो ।--सूर (शब्द०) । एक सगरण होता है तथा ६ और पर यति होती है। उ०- (ख) राम कहयो उठि वावगराई । राजसिरी सखि स्यो तिय नचहु सुखद शमति मुन महिना । लहहु जनम दह गखि सुन्न पाई।--केशव (शब्द॰) । विशेष दे० 'मौ' । २ पास । समीप । अमिता ।-- दप्रभाकर (गन्द०) । ४ एक प्रकार का उ०-विनती करै आइ ही दिल्ली। चितवर के माहि स्या है वृक्ष । ५ ज्योतिष में एक पकार का पोर। किल्ली।--जायसी (शब्द०)। सक-मदा नी०, प्र० [म० मन्] फूलों की माला । दे० 'स्त्रा'-१ । स्यो-मज्ञा पुं० [सं० शिव] गिव । उ०--यो सकती दोउ मुख उ०--(क) क चदन वनितादिक मोगा। देखि हाल जीवत ।--रामानद०। विसमय बरा लोगा।--तुलसी (गन्द०)। (ग) बक बदन स्योत-सज्ञा पु० म०] मोटे कपडे का थैला । यैली । वनिता विनोद सुब यह जर जग्न वितायो।--भूर (शद०)। स्योती--संज्ञा स्त्री॰ [स० शतपत्नी, मेमन्नी, सेवती] दे० 'सेवतो' । सक्ति-ज्ञा स्त्री॰ [म०] कोण । कोटि [को०] । स्योन ---सज्ञा पुं० [स] १ किरण । रश्मि । २ सूर्य । ३ थैला लगg-सज्ञा स्त्री०, पुं० [सं० नज>ग्] दे० 'न्त्र--१ । उ०-- ४ सुख । नानद । ५ मुखप्रद आसन (को०) । अंचइ पान सब काह पाये । तग चदन भूपित छपि छाये।- स्योन'-वि०१ सुदर । उत्फुल्ल । सुखद । ३ शुभद । मगलदायक (को०] । तुलसी (शब्द॰) । स्योनाक--सज्ञा पु० [म.] सोनापाढा । श्योनाक वृक्ष । स्रगाल-सा पुं० [स० शृगाल] मियार । गीदड । (डि०) । स्योनाग-सञ्ज्ञा पु० [स० स्योनाक] मोनापाठा । श्योनाक वृक्ष । स्रगजी ह्र--सरा पु० [स०] अग्नि । स्योहार--सरा पुं० [देश॰] वैग्यो की एक जाति ।

-शा पु० [सं०] बक्के म्प मे निवित मव । मालाकार

स्यौ--सया पु० [म० शिव] दे० 'शिव' । उ०-न तहां ब्रह्मा स्यो लिखा हुग्रा मव [को॰] । विसन । --रामानद०, पृ० ८ । स्रग्दाम-सा पुं० [स० सरदामन्] माला का भूत (को०] । स्रग-सशा पु० [स० शृङ्ग] दे० 'शृग' । उ०-अंगिया भुनकारी स्रग्धर-वि० [स०] हार धारण करनेवाला । मालाधारी [को॰] । खरी मित जारी की सेद कनी कुच दूपर ली। मनो मिधु मये सुधा फेन वढयो सो चढयो गिरि मगनि ऊपर ली।-सु दरी स्रग्धरा-सज्ञा स्त्री॰ [म.] १ एक वृत्त का नाम जिमके प्रत्येक चरण सर्वम्व (शब्द०)। मे (म र म न य य य) sss sis sir miss Iss 1s होता है और ७, ७, ७, पर यति होती है। उ०—मोरे भीने स्त्रस--सज्ञा पु० म०] १ पात । भ्रण । पतन । २ मोना। शयन [को॰] । ययू यो कहहु मुत कहाँ ते लिये पावते हो । स्रसन'-वि० [स०] १ मल भेदक । दम्त लानेवाला । दस्तावर । अानद आजी तुम फिरि फिरि के माथ जो नावते हो। विरेचक । २ शिथिल, त्रस्त या टीला करनेवाला। वोले माता | विलोक्यो पिन्न सह चमू बाग मे व घरे ज्यो। स्त्रसन--सज्ञा पु० १ वह औषध जो कोके वात ग्रादि दोप तथा मल काटी माला सुमारे विपुल रिपुब्ली अवलो जीति केल्यो । को नियत समय के पहले ही बलात् गुदा माग से निकाल दे । -छदप्रभाकर (शब्द॰) । २ एक वौद्ध देवी का नाम । मनभेदक औपध । दस्त लानेवाली दवा । विरेचन । २ अध - स्त्रग्वान्-वि० [सं० वग्वत] माला से युक्त । मालाधारी। पतन । ब्रश । ३ कच्चे गर्म का गिरना । गर्भपात । गर्भस्राव । ४ शिथिल या दोन्ना करना (को०) । लग्विणी-ज्ञा स्त्री० [म.] १ एक वृत्त का नाम बिमके प्रत्येक चण मे चार रगण होते है। उ०--रासरी राधिका स्याम स्रसित-वि० [म०] १ गिगया हुआ । २ लस्त या ढीला किया हुआ। सो क्यो करै। मीष मो मान ले मान काहे धरै । वित्त मे त्रसिनी--सञ्ज्ञा सी० [स०] भावप्रनाग के अनुसार एक प्रकार का नुदरी बोध मत प्रानिये। बग्विणी मूक्ति को कृष्ण की धारिये।- योनिरोग जिसमे प्रसग के समय रगड लगने पर योनि बाहर छद प्रभाकर (गन्द०)। २ एक देवी का नाम । निक्ल याती ह पार गम नही ठहता। प्रथामिनी । लॅसिनीफल-सज्ञा पु० [म०] मिरस । शिरीप वृक्ष । स्रग्वी-वि० [म० नाग्विन] [ली लग्विणी] माला से युक्त । मालाधारी। स्रसी-नशा पुं० [स० मसिन्] १ पीलू वृक्ष । २ मुपागे का पेड । स्रज्-तज्ञा स्त्री॰ [स०] दे० 'स'। पूग वृक्ष। स्रज-सज्ञा पु० [मं०] एक विश्वदेवा का नाम । स्रसी-वि०१ गिरनेवाला । पतनशील । २ असमय मे गिरनेवाला स्रज' २-मज्ञा सी० [म० लज्] माला। उ०-व्यरथ सुमन स्रज पहिरी (गर्भ) । ३ इधर उधर हिनने या लटकनेवाला (को०) । जैसे । ममरथ राज रहित नृप तैमै ।--पद्माकर (शब्द०)। ४ शिथिल या ढीला पडनेवाला (को॰) । स्रजन--सञ्ज्ञा पु० [स० सृजन] दे० 'सृजन'। स्रक्--मज्ञा स्त्री॰, पु० [म० स्रज्] १ फूलो की माला। पुष्पहार । स्त्रजना-कि० म० [म० सृजन] दे० 'सृजना'। उ०--(क) विस्व २ मिर पर लपेटी या धारण की जानेवाली माला (को०) । स्रजहु पालहु पुनि हरहू । त्रिकालज्ञ सतत सुख करहू ।-- रामा- भा का