पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर भाग 11.djvu/६८

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सस्तनेत्र ५३८० स्रुतिकीरति, स्रुतिकीर्ति स्रस्तनेत्र-वि० [म.] धंसी हुई आँखोवाला। स्रावणी -सज्ञा स्त्री० [म० श्रावणी] दे० 'श्रावणी' । संस्तमुष्क-वि० [स०] जिसका अटकोश लटका हुआ हिल रहा स्त्रावनी----सला सो० [सं० श्रावणी] २० 'श्रावणी । हो (को०)। स्रावित-वि० [पुं०] बहा, ग्मा या चुग्राकर निकाना हुया । जिसका स्रस्तस्कध-वि० [4० स्रस्तस्कन्ध] १ जिसके कधे नम्र या झुक गए स्राव कराया गया हो। हो। नम्रीभूत । २ शरमिंदा । लज्जित । स्रावी- वि० [स० नाविन्] बहानेपाना । चुभानेवाला । रमानेवाला । स्रस्तर-सज्ञा पु० [स०] वैठने का आसन । स्राव करानेवाला । क्षरगण कागनेवाला। स्रस्तहस्त-वि० [स०] जिसके हाथो की पकड ढीली पड गई हो [को०] । स्राव्य-वि० [०] बहाने योग्य । क्षरण के याग्य । स्रस्ताग-वि० स० स्रस्ताङ्ग] दे० 'स्रम्त गान' (को०] । निगरा -मसा पुं० [म० शृन] २० 'शृग' । उ०---सन मत मारे दस स्रस्ति--सज्ञा स्त्री० [म०] १ गिरना । पतन । २ लटकना या हिलना। भाला । गिरि निगन्ह जनु प्रतिमहिं व्याना ।-तुलसी (शब्द०)। ३ स्रस्त होना या ढीला पडना [को०] । बिजन-मज्ञा पुं॰ [म० नृजन] दे० 'सृजन' । उ०--विम्ब विजन स्राक्-अव्य० [म०] तुरत । शीघ्रता से (को०] । अादिक तुम करहू । माहि जन जानि दुनह दुप हरहू । नाकिशमिशी-सज्ञा स्त्री॰ [फा०] हलके वैगनी रग का एक प्रकार का - रामाश्वमेव (शब्द०)। छोटा अगूर जो क्वेटा जिले मे होता है और जिसको सुनाकर स्रिया-- 2--ममा प्री० [सं० श्री] दे॰ 'श्रिय' । उ०-मुख मारद किशमिश बनाते हैं। भरे स्रिय मूला। निरन राम मन भंवर न भूला |--तुलमी स्राद्ध-सज्ञा पुं० [सं० श्रद्धा] दे० 'श्राद'। उ०-किय स्राद्ध नदि (शन्द०)। मुख बेदि वृद्धि । सब जात जर्म किन्नौसु सुद्धि । - ह० रासो, स्रीय@-मया पुं० [सं० श्रीगण्ड] दे० 'श्रीखह' । उ०--त्रीखड मंद पृ०३२। वेमर उमीर । तिहि परमि ता मिट्टत सरीर ।-ह० रासो, साप-- सज्ञा पु० [स० शाप] दे० 'शाप' । उ०-विप्र स्राप से दूनउँ पृ० १६। भाई । तामस असुर देह तिन्ह पाई। - तुलसी (शब्द॰) । नुक्-समा सी० [म०] यदिर या पनाम की लकडी की छोटी करछी स्रापित- वि० [स० शापित] दे० 'शापित' । उ० (क) नृप जिससे हरनादि मे घी की प्राहुति देते हैं । त्रुवा । त्रिशकु गुरु स्रापित ये है । कहहु जाइ किमि स्वर्ग सदेह । - स्रुक्प्रणालिका--सा सी० [स०] सुवा की नाली जिसमे घृताहुति पद्माकर (शब्द॰) । (ख) तू सारे ढोर और वन के पशु से भी दी जाती है। को०)। अधिक स्रापित होगा।-सत्यार्थ० (शब्द॰) । झुग्जि ह्व-सग पुं० [सं०] अग्नि [को०] । स्राम--वि० [स०] जिसको नाक या आँखो से बरावर पानी गिरता हो । सुग्दार-सं० पुं० [सं०] कटाई। विककन वृक्ष । बीमार । रण (को०] । स्रुघ्न--सपा पुं० [स०] एक प्राचीन नगर का नाम जो वृहत्सहिता के साम्य-सञ्ज्ञा पुं० [स०] १ बीमारी। रुग्णता । दौर्बल्य । २ खजता । अनुमार हस्तिनापुर के उत्तर मे स्थित था। गति या चलने मे विकलता । लँगडापन (को०] । निका-सज्ञा मी० [स०] सज्जी (को०] । स्राव-सझा पुं० [स०] १ (खून, मवाद आदि का) वहना । भरना। क्षग्ण । २ कच्चे गर्भ का गिरना । गर्भपात । गर्भस्राव । ३ वह स्रुघ्नी--सज्ञा स्त्री० [सं०] मज्जी मिट्टी । मजिका क्षार। जो वहकर, रसकर या चूकर निकला हो । ४ निर्यास । रस । त्रुच्-सज्ञा ली [सं०] दे० 'क्'। स्रावक'- वि० [स०] [वि० सी० स्राविका] यहाने, चुयाने या टपकाने- सुत'--वि० [सं०] १ वहा हुा । चुना हुआ । क्षरित । २ गत । वाला । स्राव करानेवाला। सुत'---वि० [स० श्रुत] दे० 'श्रुत' । उ०--तदपि जथा लुत कहउ स्रावक-सज्ञा पु० काली मिर्च । गोल मिर्च । वखानी । सुमिरि गिरापति प्रभु धनुपानी ।--तुलसी ,शब्द०)। स्रावक@१-सञ्ज्ञा पु० [स० श्रावक] दे० 'श्रावक' । उ०--राम है सुतजल--वि० [म०] जिसमे से जन रसकर वह गया हो । दसास्यवस कान्ह है सँहारयो कस बोध है के कोनो निज सुता-सहा स्त्री० [स०] हिंगपत्री । हिंगुपत्री। स्रावक प्रकास है।-भिखारी० न० भा० १, पृ० ८६ । त्रुति--सश सी० [स०] १ वहाव । क्षरण । २ निर्यास 'को' । स्रावकत्व -सज्ञा पुं० [स०] पदार्थो का वह धर्म जिसके कारण कोई ३ स्रोत । प्रवाह (को०)! ४ वेदो के चारो ओर खीची जाने- अन्य पदाथ उनमे से होकर निकल या रस जाता है। जैसे, वाली रेखा (को०)। ५ पय । राह । मार्ग । सडक (को॰) । वलुए पत्थर मे से पानी जो रस रसकर निकल जाता है, वह त्रुति'- सना खी० [सं० श्रुति] दे० 'श्रति' । उ०—एहि मह रघुपति उसके स्रावकत्व गुण के कारण ही। नाम उदारा । अति पावन पुरान स्रुति सारा । -तुलसी स्रावण-वि० [स०] दे० 'स्रावक' । (शब्द०)। स्रावणी- सना खी० [म०] १ ऋद्धि नामक अष्टवर्गीय श्रीपध । स्रुतिकीरति, सुतिकीति--सञ्ज्ञा स्त्री० [म० श्रुतिकोति] दे॰ 'श्रुति- - 1 TY -