पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर भाग 11.djvu/७३

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स्वतंत्रता ५३८५ स्वधर्म भिन्न । ३ अलग । जुदा। पृथक् । जैसे,—(क) आदोलन कर रहे है । २ 'स्व' का भाव । अपना होने का भाव । राजनीति का विषय ही स्वतत्र है। (ख) इसपर उ०-तृतीय यह कि जो स्वत्व, परत्व, नीच, ऊँच का विचार एक स्वतन लेख होना चाहिए । ४ किसी प्रकार के बधन या त्याग कर समस्त जीवो पर समान द्रवीभत हो।-श्रद्धाराम नियम आदि से रहित अथवा मुक्त । जैसे,-वे स्वतत्र (शब्द०) ३ स्वतन्त्रता । स्वाधीनता (को॰) । विचार के मनुष्य हैं। ५ वयस्क । स्याना। वालिग । स्वत्वज्ञान--सज्ञा पुं० [स०] अपनेपन का ज्ञान । मैं का ज्ञान । अह स्वतन्त्रता-सज्ञा स्त्री० [ त० स्वतन्त्रता] १ स्वतत्र होने का भाव । का वोध। स्वाधीनता । आजादी। उ०-हिमाद्रि तु ग ग से प्रवुद्ध स्वत्वनिवृत्ति-सज्ञा स्त्री० [सं०] स्वमित्व का न रहना । अधिकार की शुद्ध भारती, स्वयप्रभा समुज्ज्वला स्वतत्रता पुकारती।-- समाप्नि (फो। झरना, पृ० १ । २ मौलिकता। निजता (को०) । ३ कामाचार । स्वत्वबोधन-- सग्मा पु० [म०] म्वत्व को सावित करनेवाला, प्रमाण । स्वेच्छाचारिता । स्वच्छदता (को०)। अविकार या हक को पुष्ट करनेवाला सबूत [को॰] । स्वतत्रता सग्राम--मज्ञा पुं० [स० स्वतन्त्रता संग्राम ] वह लडाई या स्वत्वरक्षा--सला पु० [स०] १ स्वामित्व की रक्षा । अधिकार को कायम रखना। २ अपनी स्वतन्त्रता या स्वाधीनता को बनाए सघर्ष जो देश से किसी अन्य देश के अधिकार या शासन को हटाने के लिये किया जाय। रखना (को०] । स्वत्वहानि--सञ्चा स्त्री० [स०] दे० 'स्वत्वनिवत्ति' । स्वतनद्वैधीभाव-सज्ञा पु० [स० स्वतन्त्र द्वैधीभाव ] वह जो स्वतन्त्र स्वत्व हेतु--सज्ञा पुं० स०] स्वामित्व का कारण । स्वत्व या अधिकार रूप से अपना हित समझकर दो शत्रुग्रो से मेलजोल का अाधारको रखता हो। स्वत्वाधिकारी-सञ्ज्ञा पुं० [स० स्वत्वाधिकारिन्] १ वह जिसके हाथ स्वतत्री-वि० [स० स्वतन्त्रिन् ] स्वाधीन । मुक्त । प्राजाद । मे किसी विषय का पूरा स्वत्व हो । २ स्वामी। मालिक । दे. 'स्वतन'। स्वदन--सज्ञा पु० [स०] १ स्वाद लेना । प्रास्वादन । खाना । भक्षण स्वत--अव्य० [स० स्वतस् ] अपने अाप । अाप हो। जैसे,--(क) २ लोहा । लौह धातु । उसने मुझसे कुछ मांगा नही, मैंने स्वत उसे दस रुपए दे स्वदित-वि॰ [स०] आस्वादित । भक्षणीकृत । चखा हुआ (को० । दिए । (ख) वेद ईश्वर से उत्पन्न हए, इससे वे स्वत स्वदेश--सञ्ज्ञा सज्ञा [स०] वह देश जिममे किसी का जन्म और पालन- नित्य स्वरूप हे । (ग) वेद ईश्वरकृत होने के कारण स्वत पोषण हुआ हो । अपना और अपने पूर्वजो का देश। मातृभूमि । प्रमाण हैं । (घ) पक्षी का उडना स्वत सिद्ध है। वतन । यौ ०---स्वत प्रमाण = जो अपना प्रमाण या सबूत खुद हो । यौल-स्वदेशज = अपने देश या वतन का। अपनी मातृभूमि का व्यक्ति । स्वत सिद = जो स्वय सिद्ध हो। जिसे सिद्ध करने के लिये स्वदेशप्रेम = दे० 'स्वदेशभक्ति' । स्वदेशवध = दे० 'स्वदेशज' । साध्य की जरूरत न हो। स्वत स्फूर्त = जो स्वय स्फूर्त या स्वदेशभक्ति = अपनी मातृभूमि के प्रति प्रगाढ निष्ठा। स्वदेश- स्मारी अपने देश का स्मरण करनेवाला । स्वदेशस्मृति स्फुरणशील हो। अपने देश या वतन की याद । स्वता--सज्ञा स्त्री॰ [४०] स्वामित्व । अधिकार । हक (को०] । स्वदेशाभिष्यदव--सञ्ज्ञा पु० [स० स्वदेशाभिप्यन्दव] कौटिल्य के अनुसार स्वतोविरोध-सज्ञा पु० [सं० स्वत + विरोध ] आप ही अपना स्वराष्ट्र मे जहां पावादी बहुत गधिक हो गई हो, वहाँ से कुछ विरोध या खडन करना। जनता को दूसरे प्रदेश मे बसाना । स्वतोविरोधी-सञ्ज्ञा पु० [स० स्वत + विरोधिन्] अपना ही विरोध स्वदेशी-वि० [स० स्वदेशीय] १ अपने देश का। अपने देश सबधी। या खडन करनेवाला । उ०--नास्तिको के विपय मे ऐसा नियम जैसे,-स्वदेशी भाई । स्वदेशी उद्योग ध्धा । स्वदेशी रीति । बनाना स्वतोविरोधी है, वह खुद ही अपना खडन करता है । २ अपने देश मे उत्पन्न या बना हुआ । जैसे,—स्वदेशी वस्त्र । --द्विवेदी (शब्द॰) । स्वदेशी औपध। स्वदेशीय-वि० [स०] दे० 'स्वदेशी' । स्वत्र -वि० [२०] अपना नारा करनेवाला । अात्मरक्षक [को०] । स्वधर्म-सञ्ज्ञा पुं॰ [स०] १ अपना धर्म । अपना कर्तव्य । कर्म । २ स्वत:--सज्ञा पु० नेत्रहीन व्यक्ति । अधा व्यक्ति [को॰] । अपनी निजता या रिशेपता। स्वत्व-सज्ञा पु० [स०] १ किसी वस्तु को पाने, पास रखने या व्यवहार यौ०-स्वधर्मच्युत=अपने धर्म, कर्तव्य या विशेपता से रहित । मे लाने की योग्यता जो न्याय और लोकरीति के अनुसार किसी स्वधर्म से गिरा हुया । स्वधर्मत्याग = अपने कर्म का परित्याग को प्राप्त हो । किसी वस्तु को अपने अधिकार मे रखने, काम करना। स्वधर्मत्यागी= स्वधर्म का परित्याग कर अन्य धर्म मे लाने या लेने का अधिकार । अधिकार । हक । जैसे,—(क) स्वीकार करनेवाला । स्वधर्मवर्ती-अपने कर्तव्य पा कर्म मे लगा इस सपत्ति पर हमारा स्वत्व है । (ख) उन्होने अपनी पुस्तक रहनेवाला। स्वधर्मम्खलन = कर्तव्य कर्म की उपेक्षा करना। का स्वत्व वेच दिया । (ग) भारतवासी अपने स्वत्वो के लिये स्वधर्मस्थ = अपने कर्म मे लगा हुआ।