पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर भाग 11.djvu/८२

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स्वरसदर्भ ५३६४ स्वराष्ट्र स्वरसदर्भ--सज्ञा पुं० [म० म्यग्मन्दर्भ] दे० 'म्बरसम' । स्वरा--सज्ञा डी० [सं.] ब्रह्मा की उठी पत्नी का नाम जो गायबी की स्वरसदेहविवाद-सज्ञा पुं० [सं० स्वरसन्देहविवाद] एक प्रकार को मपत्नी वही गई है। वृत्ताकार कीडा (को०। स्वराघात-संशा पुं० [म० र + ग्रापान] गोलने में स्वरविणेप पर स्वरसधि-समा स्त्री० [म० स्वरसन्धि] दो स्वरो मे होनेवाली राधि या वक्ता द्वारा डाला जानेवाला बना उन्चारण प्रयत्न । ३०-जब सयोग । स्वर वणा मे अथवा स्वरात और स्वारादि पदा मे होन इस वग की अन्य भाषाएं अम्तिव मे पाने लगी तो बर के वाली सधि [को०] 1 साथ साथ म्वरोधात का प्रायत्य होने लगा।--भाज०मा० मा०, स्वरसपद्---सज्ञा स्त्री० [सं० स्वरसम्पत्] स्वरो का मेल या सयोजन । पृ०११। स्वरस पन्न--वि० [सं० स्वरसम्पन्न] सुरीला । स्वरयुक्त थिो०] । यो०-वगघात चिह्न - ये चिता निशान जिनो द्वारा बरावान स्वरसयोग--सया पुं० [सं०] स्वरो वा मेल । ध्वनियो का मेल (फो०] । का वोधन कराया जाय। स्वरस ----सज्ञा पुं० [२०] १ वैद्यक के अनुसार पत्ती आदि को भिगोकर स्वराज--सरा पुं० [सं०] » 'गट्' । और अच्छी तरह कूट, पीस और छानकर निकाला हुअा शुद्ध रस । स्वराज- पुं० [सं० स्वराट्, स्वराज्] ३० वगम। २ सहज रसात्मकता । स्वाभाविक स्वाद (को०) । ३ रचना मे स्वराजी-समा पुं० [हिं० म्यगज+: (प्रत्य०)] स्वराज्य शासन सहज अानद या रसमयता (को०)। ४ एक विशेप प्रकार का प्रणाली के लिये ग्रादानन पग्नेवाला व्यक्ति। तीक्ष्ण रस या कपाय (को०)। ५ किसी तैलीय पदार्थ को सिल पर पीसने मे उसपर पड़ी हुई चिकनाई (को०)। ६ स्वजनो स्वराज्य--मसा पुं० [सं०] वह गज्य जिमगे रोई राष्ट्र या पिसी देन के प्रति उत्पन्न भाव । वह भावना जो अपनो के प्रति हो (को॰) । के नियामी व्यय ही अपना शामन और अपने देग मानव प्राध ७ एक पर्वत का नाम (को०)। ८ अनुत्पता। समानता । करते हो। अपना गग्य । तुल्यता (को०) । ६ स्व अर्थात प्रात्मरम या ग्रानद । यो०--पराज्य भोगो = स्वराज्य शासन प्रणाली का भोग फाग्ने- स्वरस-वि० जो अपनी रुचि के अनुकूल हो [को॰] । वाना। प्रात्मणागनप्राप्त। स्वरसप्तक--सज्ञा पुं० [सं०] सगीत मे सात स्वरो का समूह । विशेष स्वराट् --सशा पुं० [०] १ ब्रह्मा । २ ईश्वर । ३ एक प्रकार या दे० 'स्वर' । उ०-~-इसी अशब्द सगीत से स्वरसप्तको की भी वैदिक छद । ४ यह वैदिक घद जिमके सर पादो मे मिलक सृष्टि हुई।-गीतिका (भू०), पृ० १। नियमित वरणों में दो वरण कम हा । ५ सूर्य की मान किरणो स्वरसमुद्र--सञ्ज्ञा पु० [स.] प्राचीन काल का एक प्रकार का वाजा में से एक का नाम (फो०) । विष्ण का एक नाम (फो०)। जिसमे वजाने के लिये तार लगे होते थे। ७ शुधनीति के अनुगार वह गजा जिमया वापिस राजस्व स्वरसा--सशा स्त्री॰ [स०] १ कपित्य पत्रक नाम की प्रोपधि । २ ५० लाय मे १ करोड वर्ष तक हो (को०)। यह गग जो लाख । लाह। किमी ऐसे गज्य का स्वामी हो, जिममे स्वराय नामन स्वरसाद--सज्ञा पु० [सं०] गला बैठ जाना । स्वरभग । प्रणाली प्रचलित हो। उ०--जो पिता के मानब प्रकार स्वरसादि--सझा पु० [१०] प्रोपधियो को पानी मे प्रौटाकर तैयार मे हमारा पालन करनेवाला स्वगट् ।-~दयानद (ब्द०)। किया हुग्रा काढा । कपाय । स्वराट्' --वि० जो स्वय प्रकाशमान हो यो दूसरों को प्रकाशित करता स्वरसाधन-सज्ञा पुं० [म.] सप्तक के स्वरो की साधना जिससे हो । उ०--जो सर्वत्र व्याप्त, अविनाशी (स्वरा), स्वय-प्रकाश- उनका शुद्ध उच्चारण किया जा सके । ठीक ठीक स्वर निकालने स्प और (कालाग्नि) प्रलय मे नत्र का पाल और काल का का अभ्यास [को०] । भी काल है, इसलिये परमेश्वर का नाम पालाग्नि है।- स्वरसाम-सन्ना पुं० [स० स्वरमामन] एक साम का नाम । मत्वाथ (शब्द०)। स्वरहा-सशा पुं० [स० स्वरहन्] गले का एक रोग । विशेप दे० स्वरापगा--मज्ञा स्त्री० [सं०] ग्राकाशगगा । मदाकिनी । 'स्वरघ्न' किो०)। स्वरामक--सक्षा पुं० [40] अवरोट का वृक्ष । स्वराक-सज्ञा पुं॰ [स० स्वराद] एक प्रकार की मगीतरचना [को०] । स्वरान्ढ--वि० [सं० म्बगस्ट स्वर्ग लोक गया हुप्रा । स्वर्गान्ड (को०] । स्वरात-वि० [स० स्वरान्त] (श द) जिसके अत मे कोई स्वर हो । स्वरालु-मक्षा पुं० [सं०] वचा या वच नाम की प्रोपधि । जैसे,--माला, टोपी। स्वराष्टक - सशा पुं० [स०] सगीत मे एक प्रकार का सफर गग जो स्वरातर--सज्ञा पुं० [सं० स्वरान्नर] दो स्वरो के उच्चारण का मध्य वगाती, भैरव, गाधार, पचम और गुर्जरी के मेल से बनता है। वर्ती विराम, अवकाश या अतर [को० । स्वराष्ट्र--सधा पुं० [सं०] १ अपना राष्ट्र या राज्य । स्वराश-सज्ञा पुं० [सं०] १ सगीत मे स्वर का आधा या चौथाई यौ०-- स्वराष्ट्रप्रेम = अपने राष्ट्र या राज्य के प्रति प्रेम एव उत्सर्ग स्वर । २ सप्तमाश [को०) । की भावना ।