पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर भाग 11.djvu/८४

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स्वरूपी ५३६६ स्वर्गगामी उ०-नमो नमो गुरुदेव जू, साध स्वरूपी देव । प्रादि अत गुण जाती। यहाँ अच्छे अच्छे फलोवाले वृक्षो, मनोहर वाटिकायो काल के, जाननहारे भेव ।-कबीर (शब्द०)।२ जो किसी के और अप्सरायो आदि का निवास माना जाता है। स्वर्ग की स्वरूप के अनुसार हो, अथवा जिसने किसी का स्वरूप धारण कल्पना नरक की कल्पना के विलकुल विरुद्ध है। प्राय किया हो।-उ०-ज्योति स्वरूपी हाकिमा जिन अमल पसारा सभी धर्मों, देशो और जातियो मे स्वर्ग और नरक की कल्पना हो।-कवीर (शब्द०)। की गई है । ईमाइयो के अनुसार स्वर्ग ईश्वर का निवासस्थान है। स्वरूपी@'-सज्ञा पुं॰ [स० सारूप्य] दे० 'सारूप्य' । और वहाँ फरिश्ते तथा धर्मात्मा लोग अनत सुख का भोग करते स्वरूपोपनिषद्-सज्ञा स्त्री० [सं० ] एक उपनिषद् का नाम । हैं। मुमलमानो का स्वर्ग विहित कहनाता । मुसनमान लोग स्वरेण--सज्ञा स्त्री० [सं०] सूर्ग की पत्नी सज्ञा का एक नाम । भी विहिश्त को खुदा और फरिश्तो के रहने की जगह मानते हैं और कहते है कि दीनदार लोग मरने पर वही जायेंगे । उनका स्वरोचि--सहा स्त्री० [सं० ] अपना प्रकाश या दीप्ति । विहित इद्रियसुख की सब पकार की सामग्री मे परिपूर्ण स्वरोचिस्--सज्ञा पुं० [स०] स्वारोचिप् मनु के पिता का नाम । कहा गया है । वहाँ व और शहद की नदियां तथा समुद्र विशेष-पुराणानुसार ये कलि नामक गधर्व के पुत्र थे और है, अगूरो के वृक्ष है और कभी वृद्ध न होनेवाली अप्सराएं वरथिनी नाम की अप्सरा के गर्भ से उत्पन्न हुए थे । है। यहूदियो के यहाँ तीन स्वगा की कल्पना की गई है। स्वरोद- सज्ञा पुं० [स० स्वरोदय ] एक प्रकार का वाजा जिसमे पर्या ----स्वर् । नाक । त्रिदिव। त्रिदशालय । सुरलोक । द्यौ। वजाने के लिये तार लगे होते हैं। मदर। देवलोक । अवंलोक । शनाभवन । स्वरोदय-सज्ञा पुं० [सं०] वह शास्त्र जिसके द्वारा इडा, पिंगला और मुहा०-स्वर्ग के पथ पर पैर देना = (१) मरना । (२) जान सुपुम्ना आदि नाडियो के श्वासो के द्वारा सब प्रकार के शुभ जोखिम मे डालना। उ०—कही सो तोहि मिहलगढ है, खड सात और अशुभ फल जाने जाते हैं । दाहिने और वाएं नथने चढाव । फेरि न कोई जीति जय, स्वर्ग पथ दे पाव ।- से निकलते हुए श्वासो को देखकर शुभ और अशुभ फल कहने जायसी (शब्द॰) । स्वर्ग जाना या सिधारना = मरना । देहात की विद्या । होना । जैसे,--ये तीस ही वर्ष की अवस्था मे स्वर्ग सिधारे स्वरोपघात-सज्ञा पुं० [सं०] स्वर का उपघात । स्वर बीच मे किसी की मृत्यु पर उसके समानार्थ उसका स्वर्ग जाना या का भग होना [को०] । सिधारना कहा जाता है। ) उ०--बहुते भंवर ववडर भये । स्वर्ग गा-सञ्चा सी० [सं० स्वर्गङ्गा ] स्वर्ग की नदी, मदाकिनी । पहुँच न सके स्वर्ग कह गये ।-जायसी (शब्द०)। स्वर्ग-सज्ञा पुं० [सं०] १ हिदुओ के सात लोको मे से तीसरा लोक यौ०--स्वर्गसुख = बहुत अधिक और उच्च कोटि का सुख । वैसा जो ऊपर आकाश मे सूर्य लोक से लेकर ध्रुव लोक तक माना सुख जैसा स्वर्ग मे मिलता है। जैसे, मुझे तो केवल अच्छी जाता है। उ०—(क) असन बसन पसु वस्तु विविध विधि अच्छी पुस्तकें पढने मे ही स्वर्गसुख मिलता है। स्वर्ग की सव मनि महँ रह जैसे । स्वर्ग नरक चर अचर लोक बहु वसत धार= आकाशगगा। उ०-नासिक खीन स्वर्ग की धारा। मध्य मन से ।--तुलसी (शब्द॰) । (ख) स्वर्ग, भूमि, खीन लक जनु केहर हारा । - जायसी (शब्द०)। पाताल के, भोगहि सर्व समाज । शुभ सतति निज तेजवल, २ ईश्वर । उ०-न जनो स्वर्ग बात धौ काहा। कहूँ न प्राय कही करत राज के काज ।-निश्चल (शब्द॰) । (ग) देवकी के फिर चाहा।---जायमी (शब्द०)। ३ सुख ।। वह स्थान जहाँ पाठवें गर्भ मे लडका होगा, सो न हो लडकी हुई, वह भी हाथ स्वर्ग का सुख मिले। बहुत अधिक आनद का स्थान । ५ से छूट स्वर्ग को गई। लल्लू (शब्द०)। आकाश । उ०-(क) हौ तेहि दीप पतंग होइ परा । जिव जिमि विशेप-किसी किसी पुराण के अनुसार यह सुमेरु पर्वत पर है। काढ स्वर्ग ले धरा ।-जायसी (शब्द॰) । (ख) लाक्षागृह देवताओ का निवासस्थान यही स्वर्गलोक माना गया है और पावक तब जारा । लागी जाय स्वर्ग सो धारा । सबल कहा गया है कि जो लोग अनेक प्रकार के पुण्य और सत्कर्म (शब्द०) । ६ प्रलय (क्व ०) । उ०-भा परले अस करके मरते हैं, उनकी आत्माएं इसी लोक मे जाकर निवास सवही जाना। काढा खड्ग स्वर्ग नियराना ।—जायसी करती हैं । यज्ञ, दान आदि जितने पुण्य कार्य किये जाते है, (शब्द०)। वे सब स्वर्ग की प्राप्ति के उद्देश्य से ही किए जाते हैं। कहते स्वर्गकाम-सञ्ज्ञा पुं० [स०] वह जो स्वर्ग की कामना रखता हो। है, इस लोक मे केवल सुख ही सुख है, दुख, शोक, रोग, स्वर्गप्राप्ति की इच्छा रखनेवाला। मृत्यु आदि का नाम भी नही है। जो प्राणी जितने स्वर्गगगा-सपा सी० [स० स्वर्गगङ्गा] मदाकिनी [को॰] । ही अधिक सत्कर्म करता है, वह उतने ही अधिक समय तक इस लोक मे निवास करने का अधिकारी होता है। परंतु स्वर्गगत-वि० [सं०] मृत । मरा हुआ [को०] । पुण्यो का क्षय हो जाने अथवा अवधि पूरी हो जाने पर जीव स्वर्गगति-सञ्ज्ञा स्त्री० [स०] स्वर्ग जाना । मरना । को फिर कर्मानुसार शरीर धारण करना पडता है, और यह स्वर्गगमन-सञ्ज्ञा पु० [स०] स्वर्ग सिधारना । मरना । क्रम तब तक चलता रहता है, जब तक उसकी मुक्ति नही हो स्वर्गगामी-वि० [स० स्वर्गगामिन्] १ स्वर्ग की ओर गमन करने-