पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर भाग 11.djvu/८६

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स्वर्गार्गल स्वर्णग्रीव स्वर्गार्गल--सज्ञा पु० [स०] स्वर्ग की अर्गला (को०] स्वजित्-नशा पु० [स०] १ वह जिससे मर्ग पर विजय प्राप्त कर ली हो। स्वगजेता । २ एक प्रकार का यज्ञ । स्वर्गावास--सञ्ज्ञा पु० [स०] स्वर्ग मे निवास करना । स्वर्गवास । स्वगिक-वि० [स० स्वर्ग + इक (प्रत्य॰)] स्वर्ग मे सबद्ध । न्वर्गतुल्य । स्वजित-मचा पु० मि० स्वजित] एक प्रकार का यन । स्वर्ग जैमा । उ०---प्राया वसत, भर पृथ्वी पर, स्वगिक, स्वर्जी-सज्ञा पुं० [म० स्वज्जिन्] मज्जी मिट्टी। सुदरता का प्रवाह ।-युगात, पृ० ७ । स्वर्ण - सज्ञा पु० [सं०] १ सुवर्ण या सोना नामक बहुमूल्य धातु । स्वगिगिरि--सज्ञा पु० [स०] मुमेरपर्वत, जिमके शृग पर स्वर्ग की २ पीत वण का ( स्वण के रग का) वतूरा । ३ गौर सुवर्ण नाम स्थिति मानी जाती है । का माग । ४ नागकेमर । ५ पुगणानुसार एक नदी का नाम । ६ कामरूप दश की एक नदी का नाम । ७ स्वरणमुद्रा । स्वगिरि-मचा पु० [म.] सुमेरु पर्वत कि०] | सोने का सिक्का (को०)। ८ हरिवश के अनुसार एक प्रकार स्वर्गिवधू, स्वर्गिस्त्री-सज्ञा स्त्री॰ [स० ] अप्सरा । की अग्नि (को०)। गेरु । गैरिक (के । स्वर्गी-वि॰ [ स० स्वगिन् ] १ स्वर्ग का निवासी । स्वर्गवासी। २ स्वर्णकडु -सशा पु० [स० स्वर्णकण्डु] धूना । राल । स्वर्गगामी। ३ स्वर्ग सबधी। स्वर्गीय । स्वर्णका-वि० [सं०] १ स्वर्ण का । २ दे० 'स्वणिम' । स्वर्गी-सा १ देवता । २ मृत व्यक्ति (को०) । स्वर्णक -सञ्ज्ञा पुं० एक वृक्ष । स्वर्गीय-वि[म०] [ वि० स्त्री० स्वर्गीया ] १ स्वर्ग सबधी । स्वर्ग स्वर्णकरण-सज्ञा पुं० [ स०] १ कर्णगुग्गुल । कणगुग्गुल । २ का। जैसे,--मुझे एकातवाम मे स्वर्गीय सुख प्राप्त होता है। सोने का बारीक कण या रवा (को॰) । २ जिसका स्वर्गवास हो गया हो । जो मर गया हो । जैसे,- स्वर्गीय भारतेदु जी। उ०-श्रीमान् स्मृतिमदिर बनवाकर स्वर्णकरिणका-सञ्ज्ञा स्त्री॰ [स०] सोने का कण या दाना (को०] । स्वर्गीया महारानी विक्टोरिया का ऐसा स्मारक बनवा देगे। स्वर्णकदली-सञ्ज्ञा स्त्री॰ [ स० ] सोनकेला । सुवर्णकदली । -शिवशभु (शब्द॰) । ३ अलौकिक (को०) । स्वर्णकमल -शा पु० [सं०] लाल कमल | स्वर्गोपम-वि० [स०] स्वर्गतुल्य । उ०-स्वर्गोपम हो ये गाम यहा । स्वरणकाय'-मा पु० [स०] गरुड । -ग्रामिका, पृ० १२४ । स्वर्णकाय'--वि० जिसका शरीर सोने का अथवा सोने का सा हो । स्वर्गीका-सज्ञा पुं० [स० स्वर्गी कस् ] देवता । सुर [को०] । स्वर्णकार-तज्ञा पु० [ ] एक प्रकार की जाति जो सोने स्वर्ग्य-वि० [स०] १ जिससे स्वर्ग प्राप्त हो । स्वर्ग दिलानेवाला। चांदी के आभूपण आदि बनाती है । मुनार । २. अलौकिक । स्वर्गीय [को०] । स्वर्णकूट-सहा पु० [म०] हिमालय की एक चोटी का नाम । स्वर्चन-सञ्ज्ञा पुं० [ स०] वह अग्नि जिसमे से सु दर ज्वाला स्वर्णकृत्-सञ्ज्ञा पु० [स०] दे० 'स्वर्णकार' । निकलती हो। स्वर्णकेतकी-सहा स्त्री॰ [स०] पीली केतकी जिससे इन और तेल स्वर्जक्षार-सञ्ज्ञा पु० [ स० सजिक्षार । सज्जीखार । सज्जी मिट्टी । आदि बनाया जाता है। स्वर्जारिघृत-सज्ञा पु० [स०] वैद्यक मे एक प्रकार का घृत । स्वर्णसीरिका, स्वर्णसीरिणिका [-सज्ञा स्पी० [स०] भरभाँड । विशेप- यह घृत गौ के घी मे मज्जी, जवाखार, कमीला, मेहदी, हेमपुप्पा । सत्यानाशी। सुहागा और सफेद कत्थे के चूर्ण को खरल करने से बनता है । स्वर्णसीरी-सज्ञा स्त्री० [स०] हेमपुष्पा । सत्यानाशी । भरभाँड । कहते हैं, इसे घाव पर लगाने से उममे के कीडे मर जाते है, स्वर्णक्रोश-मज्ञा पु० [स०] पुराणानुमार पूर्व वश के एक नद सूजन कम हो जाती है और वह जल्दी भर जाता है । स्वजि-सज्ञा स्त्री॰ [स०] १ सज्जी मिट्टी । २ शोरा । स्वर्णखचित-वि० [स० स्वर्ण + खचिन] जिसपर सोने का काम स्वजिक-सञ्ज्ञा पु० [स०] १ सज्जी मिट्टी। २ शोरा । किया गया हो। स्वर्णमडित । उ०-स्वर्णखचित यह शिर- स्वर्जिका-सज्ञा स्त्री॰ [स०] दे० 'स्वजिक' [को०] । स्त्रारण है कह रहा, वर्म बना बहुमूल्य बताता विभव को।- स्वर्जिकाक्षार-सझा पु० [ स०] सज्जी मिट्टी । सज्जीखार । करुणालय, पृ० ११ स्वजिकाद्य तैल-सज्ञा पु० [ स०] वैद्यक मे एक प्रकार का तेल जो स्वर्णगणपति-- त--सज्ञा पुं॰ [स.] गणपति का एक विशिष्ट रूप (को०] । कणरोग मे उपगोगी है। स्वर्णगर्भ-वि० [स०] जिमके भीतर स्वर्ण हो । विशेष—यह तेल तिल के तेल में सज्जी, मूली, हीग, पीपल और स्वर्णगर्भाचल-सचा पुं० [स०] हिमालय की एक चोटी का नाम । सोठ आदि प्रौटाकर बनाया जाता है । यह तेल कान के दर्द स्वर्णगिरि-सञ्ज्ञा पुं॰ [स०] सुमेरु पर्वत । और बहरेपन आदि के लिये उपयोगी माना जाता है। स्वर्णगैरिक-सज्ञा पु० [स०] सोना गेरू। स्वर्जिकापाक्य-सज्ञा पु० [सं०] मज्जी मिट्टी। स्वर्णग्रीव--सज्ञा पु० [स०] कार्तिकेय के एक अनुचर का नाम । GO का नाम।