पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर भाग 11.djvu/९१

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स्वविपय ५४०३ स्वस्तिक बचन बोली गरव बढाई -विश्राम (शब्द०)। २ तेजवल । तेजफल । तेजोवती। ३ अगुली । उंगली (को०) । स्वसू-~-यज्ञा स्त्री॰ [ स० ] पृथ्वी । धरती (को०] । स्वसुर-मचा पुं० [ म० स्वशुर, हिं० ससुर ] दे० 'ससुर' । स्वसुराल-सज्ञा स्त्री० [हिं० ससुराल ] २० 'ससुराल' । स्वस्ताg ---सपा स्त्री० [स० स्वस्थता] सुस्थिरता । स्वस्थता । उ०--स्वस्ता मन मे आई जगत की भ्रमना भागी।-पलटू०, प०७४। स्वविषय--सज्ञा पुं० [स०] १ अपना विषय । अपना क्षेत्र । २ अपना देश । स्वदेश [को०] । स्ववीज-वि० [स०] जो अपना वीज या कारण आप ही हो । स्ववीज-सज्ञा पुं० प्रात्मा। स्ववृत्त-सशा पु० स०] व्यक्ति का अपना निजी कार्य, व्यापार या प्रयोजन (को०] । स्ववृत्ति-वि० [स०] अपने प्रयत्न से जीवनयापन करनेवाला । स्वाव- लबी । आत्मनिर्भर [को०] । म्ववृत्ति --सज्ञा स्त्री०१ स्वकीय जीवनयापन करने का ढग या पद्धति। २ आत्मनिर्भर होना । आत्मनिर्भरता । स्वव्याज-वि० [स०] जो छल कपट से रहित हो। निश्छल । ईमान- दार । सच्चा (को०] 1 स्वशुर-सञ्ज्ञा पुं॰ [स०] दे० 'श्वसुर। स्वश्लाघा-~-सशा स्त्री० [स०] अपनी बडाई । प्रात्मप्रशसा । स्वसभव--वि० [स० स्वसम्भव] जो प्रात्मा से उत्पन्न हो । अात्मसभव । स्वसभूत--वि० [स० स्वसम्भूत] जो पापसे पाप उत्पन्न हो। स्वत समुत्पन्न । स्वसवृत--वि० [सं०] अात्मरक्षण मे शक्त । स्वय रक्षित [को०] । स्वसविद्'--वि० [सं०] जिसका ज्ञान इद्रियो से न हो सके । अगोचर। स्वसविद्-मज्ञा स्त्री० आत्मज्ञान । शुद्ध ज्ञान (को०] । स्वसंवेदन-सज्ञा पुं० [स०] स्वय प्राप्त या अनुभूत ज्ञान (को०] । स्वसवेद्य-वि० [म०] (ऐसी वात) जिसका अनुभव वही कर सकता हो जिमपर वह बीती हो। केवल अपने ही अनुभव होने योग्य । स्वसस्था-सन्ना स्त्री० [सं०] १ अपने निश्चय या विचार पर स्थिर रहना। २ स्वय स्थिर होने का भाव। आत्मस्थिरता। ३ यात्मलीनता [को०] । स्वसन-सज्ञा पु० [ स० श्वसन ] वायु । दे० 'श्वसन' । उ०-स्वसन सदागति मरुत हरि मारुत जगत परान ।-अनेकार्य०, पृ० ५४ । स्वसना-क्रि० अ० [स० श्वसन, हिं० स्वरन] सांस लेना। उ०-- खात पियत अरु स्वसत स्वान मडुक अरि भायी। -भारतेंदु ग्र०, भा० १, पृ० ६६७ । स्वसमुत्य-वि० [ ] १ जो स्वय उठा हुआ हो। अपने पाप उत्थित या उठा हुा । २ जो स्वय उद्भूत हो। प्राकृतिक । नमगिक । ३ अपने ही देश मे उत्पन्न, स्थित या एकत्र होनेवाला । जैसे,-म्वसमुत्थ कोश । स्वसमुत्थ बल या दड । स्वसर-सज्ञा पु० [सं०] १ घर । मकान २ दिन । दिवस । ३ नीड । पोमला (को०)। स्वसर्व--सज्ञा पुं० [सं० ] अपनी समग्र सपदा । अपना सब कुछ । स्वसा-सहा स्त्री० [स० स्वस ] भगिनी। बहिन । उ०--तेहि अवसर रावण स्वसा सूपनखा तहँ आई। रामस्वरूप मोहित हिं० श०११-१० स्वस्ति'--अव्य० [सं०] १ कल्याण हो । मगल हो । (आशीर्वाद) । २ दान-स्वीकृति-परक वाक्य । विशेष-प्राय दान लेने पर ब्राह्मण लोग 'स्वस्ति' कहते हैं, जिराका अभिप्राय होता है-दाता का कल्याण हो। स्वस्ति-सक्षा खो० १ कल्याण । मगल। २ पुराणानुसार ब्रह्मा की तीन स्त्रियो मे से एक स्त्री का नाम । उ०-- ब्रह्मा कह जानत ससारा। जिन सिरज्यो जग कर विस्तारा । तिनके भवन तीनि रह इस्त्री। सध्या स्वस्ति और सावित्री। -विश्राम (शब्द०)। ३ सुख । स्वस्तिक--सज्ञा पुं० [सं०] १ घर जिसमे पश्चिम ओर एक दालान और पूर्व अोर दो दालान हो । विशेष--कहते हैं, ऐसे घर मे रहने से गृहस्थ की स्वस्ति अर्थात् कल्याण होता है, इसी लिये इसे स्वस्तिक कहते हैं। २ शिरियारी । सुसना नाम का साग । ३ लहसुन । ४ रताल् । रक्तालु । ५ मूली । ६ हठयोग मे एक प्रकार का प्रासन । ७ एक प्रकार का मगल द्रव्य । विशेष-विवाह आदि के समय चावल को पीसकर और पानी मे मिलाकर यह मगल द्रव्य तैयार किया जाता है और इसमे देवताओं का निवास माना जाता है । ८ प्राचीन काल का एक का यत्र । विशेप---यह यत्न शरीर मे गडे हुए शल्य आदि को बाहर निका- लने के काम मे आता था। यह अठारह अगुल तक लवा होता था और सिंह, शृगाल, मृग आदि के प्राकार के अनुसार १८ प्रकार का होता था । ६ वैद्यक मे फोडे आदि पर बांधा जानेवाला वधन या पट्टी जिसका आकार तिकोना होता था। १० चौराहा । चौमुहानी ११ सांप के फन पर की नीली रेखा। १२ प्राचीन काल का एक प्रकार का मगल चिह्न जो शुभ अवसरो पर मागलिक द्रव्यो से अकित किया जाता था और जो कई आकार तथा प्रकार का होता था । अाजकल इसका मुख्य प्राकार यह प्रचलित है। प्राय किसी मगल कार्य के समय गणेशपूजन करने से पहले यह चिह्न बनाया जाता है। आजकल लोग इसे भ्रम मे गणेश ही कहा करते है। SO