पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर भाग 11.djvu/९३

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स्वस्थचित्त ५४०५ स्वाँति, स्वाती महीनो से वे बीमार थे, पर अव विलकुल स्वस्थ हो गए हैं । स्वात'--शा पुं० [सं० स्वान्त] १ मत करण । मन । २ अपना प्रत २ जिसका चित्त ठिकाने हो। जो स्वाभाविक स्थिति मे हो। या मृत्यु । ३ अपना राज्य या प्रदेश । ४. गुफा । गुहा । सावधान । जैसे,-याप तो घबरा गए, जरा स्वस्थ होकर स्वात'--वि० शन्दित । ध्वनित [को०] । पहले सब बातें सुन तो लोजिए । ३ स्व मे स्थित । अपने मे स्वातक--सज्ञा पुं० [म० स्वान्तज] १ प्रेम । २ मनोज । कामदेव । स्थित (को०) ४ स्वाचित । स्वावलवी (को०)। ५ स्वतन्त्र । स्वा- स्वातवत्---वि० [स० स्वान्तवत्] [वि० सी० स्वातवतो] हृदयवाला। धीन (को०) ६ सतुष्ट । प्रसन्न (को०) । सहृदय [को०)। यौ०-स्वस्थमुख = प्रसन्नवदन । स्वातस्थ--वि० [स० स्वान्तस्य] १ हृदयस्थ । २ सावधान (को०] । स्वस्थचित्त--वि० [म०] जिसका चित्त ठिकाने हो। शातचित्त । स्वातसुख-सञ्ज्ञा पुं॰ [सं० स्वान्त सुख प्रात्मसुख । प्रात्मसतुष्टि । स्वस्थता-मचा स्त्री॰ [म०] स्वस्थ का भाव या धर्म। नीरोगता। स्वॉग-सज्ञा पुं॰ [स० सु + अङ्ग अथवा स्व + अङ्ग] १ कृत्रिम या तदुश्स्ती। २ सावधानता। बनावटी वेश जो अपना रूप छिपाने अथवा दूसरे का रूप बनाने स्वस्थवृत्त--मज्ञा पु० [सं०] १ अायुर्वेद शास्त्र की एक अगभूत शाखा । के लिये धारण किया जाय। भेस । रूप । उ०--(क) अब स्वस्थ रहने का उपचार। स्वास्थ्यरक्षा की विधि या नियम [को०] । चलो अपने अपने स्वांग सजे ।-हरिश्चद्र (शब्द॰) । (ख) स्वस्थान--मशा पुं० [स०] अपना निवासस्यान । अपना घर । अपना के इक स्वांग बनाइ के नाच बहु विधि नाच। रीझत नहिं आवास अथवा क्षेत्र । रिझवार वह विना हिये के साँच ।-रसनिधि (शब्द०) । स्वस्थित-वि॰ [स०] जो स्व मे स्थित हो । आत्मस्थित । स्वाधीन को०] । क्रि० प्र०-भरना ।-बनना।--बनाना ।--मजना। स्वस्रीय--मचा पु० [मं०] (स्वसृ) बहिन का लडका । भानजा । २ मजाक का खेल या तमाशा । नकल । उ०---(क) बहु बासना स्वस्रीया--सञ्ज्ञा स्त्री० [सं०] वहिन की लडकी । भानजी (को०] । विविध कचुकि भूषण लोभादि भरयो। चर अरु अचर गगन जल थल मे कौन स्वांग न करयो।--तुलसी (शब्द॰) । (ख) स्वस्रेय-सज्ञा पुं० [सं०] मानजा। भगिना [को०] 4 बहु विस्तृत ठाठ बाट निसि नाच स्वांग सब । धन अधिकाई स्वोयी-सञ्ज्ञा स्त्री० [स०] भानजी [को०] के अरु लपटता करतब के ।-श्रीधर (शब्द०)। ३ धोखा देने स्वस्वरूप-सज्ञा पुं० [स०] व्यक्ति का अपना सच्वा रूप [को०] को बनाया हुआ कोई रूप । जैसे,--वह बीमार नही है, उसने स्वहता-सशा पु० [स० स्वहन्त ] १ आत्महत्या। अात्महनन । २ बीमारी का स्वांग रचा है । ४ वह जुलूस जो होली पर निकलता अात्महत्या करनेवाला व्यक्ति [को०] । है और जिसमे हास्यजनक वेशभूपा धारण की जासी है। स्वहरण-सज्ञा पुं० [१०] सर्वस्वहरण । समग्र सपत्ति का हरण [को०] । कि० प्र०-रचना। स्वहस्त--सञ्ज्ञा पुं० [सं०] व्यक्ति का अपना हाथ या हस्तलिपि । हस्त- मुहा०-स्वांग लाना = धोखा देने या कोई कपटपूर्ण व्यवहार करने के लिये कोई रूप धारण करना । लेख । हस्ताक्षर (को०] । यो०-स्वहस्तगत = अपने हाथ मे पाया हुया । अपने अधिकार स्वाँगना@-क्रि० स० [हिं० स्वाँग + ई (प्रत्य)] स्वांग बनाना । वानवटी वेश या रूप धारण करना। उ०-मीम अर्जुन सहित मे पाया हुया । स्वहस्तलिखित - अपने हाथ से लिखा हुआ। विप्र को रूप धरि हरि जरासंध सो युद्ध माग्यो। दिया उनप स्वहस्तिका -सज्ञा स्त्री० [स०] कुल्हाडी (को०] । कह्यो तुम कोऊ क्षत्रिया कपट करि विप्र को स्वांग स्वांग्यो। स्वहाना--क्रि० अ० [हिं० सोहाना] शोभित होना । दे० 'सोहाना' । सूर (शब्द०)। उ.-सब प्राचार्यन के मधि माही। रामानुज मुनि सरिस स्वॉगी'-सज्ञा पु० [हिं० स्वांग ] १ वह जो स्वांग सजकर जीविका स्वहाही ।--रघुराज (शब्द॰) । उपार्जन करता है। नकल करनेवाला । नक्काल । उ०--(क) स्वहित १--पझा पुं० [स०] अपना कल्याण । अपना हित [को०] । जैसे कि डोम, भांड, नट, वेश्या, स्वागी, बहुरूपी या प्रशसक स्वहित'--वि० जो अपने लिये हितकर हो [को०] । को देना ।--श्रद्धाराम (शब्द०) । (ख) जिन प्रथम पारि पाछे स्वाकिक-- नवा पुं० [म० स्वातिक] डोन, पटह या मृदग प्रादि वाद्य छांडा। तिन्हें जानिए स्वांगी भांडा । -विश्राम (शब्द०)। बजानेवाला व्यक्ति। २ अनेक रूप धारण करनेवाला । बहुरूपिया। उ०-स्वांगी से ए भए रहत है छिन ही छिन ए और ।-सूर (शब्द०)। स्वाग'--पक्षा पुं० [० स्वाङ्ग] अपना शरीर । अपना अग। स्वॉगी२--वि० रूप धारण करनेवाला । उ०-माची सी यह दार यौ०-स्वागभग =अपनी देह मे चोट लगना या अपना अगभग है सुनियो सज्जन सत । स्वागी तो वह एक है वा के स्वांग होना । स्वागशीत = जिसके अग ठढे हो। अनत ।-रसनिधि (शब्द॰) । स्वागः-शा पुं० [५० सु या स्व + अङ्ग] दे० 'स्वांग'। स्वॉति, स्वाती-शा ली० [म० स्वाति] एक नक्षत्र का नाम । स्वाजल्यक--अधा पु० [४० स्वाजल्यक] प्रार्थना के लिये हाय दे० 'स्वाति'। उ०--जैसे चानिक रहै स्वाति को मलिता निकट जोड़ना । सविनय प्रार्थना (को०] । न भाव। -कवीर श२, भा० ३, पृ० १६ ।