पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर भाग 6.djvu/३०६

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रिसानी पीजण पिसानीg+-सञ्ज्ञा स्त्री० [हिं०] दे० 'पैशानी'। उ०-चढे ते काकडासींगी के समान एक प्रकार की लाही सी जमती है कुमति चकताहू की पिसानी मैं ।-भूषण न०, पृ० १०३ । जो विशेषत रेशम की रंगाई में काम घाती है । पिस्ते के पिसावनि-सञ्ज्ञा स्त्रो० [हिं० पीसना] पीसने का काम । बीज से तेल भी बहुत सा निकलता है जो दवा के काम में पीसने की क्रिया । उ०-सती पिसावनि ना कर पीसि खाय प्राता है। सो राह। सावू जन मांगे नही मांगि खाय सो साँह। पिस्तौल-सञ्ज्ञा स्त्री॰ [म. पिस्टल ] तमचा । छोटो वदूक स० दरिया, पृ०१८३ । पिस्त्र-सञ्चा पु० [फा० पिस्रसर ] बटा'। पुत्र।' उ०-हक ने अपना पिसिया-सञ्ज्ञा पुं० [हिं० पिसना ] १. एक प्रकार का छोटा और फजल जब उस पर किया। यक पिस्र मकवूल तव उसकू मुलायम लाल गेहूँ। १२ वह जो पीसने का काम करता हो। दिया।-दक्खिनी०, पृ० ३६३ | . ३ पीसने का काम । पिस्सो-सञ्ज्ञा स्त्री० [हिं० पिसना ] एक प्रकार का गेहूँ। पिसी-सञ्ज्ञा स्त्री॰ [हिं० पिसना ] गेहूँ। पिस्स् -सञ्ज्ञा पुं॰ [ फा० पश्शह ] एक छोटा उडनेवाला फीडा जो पिसो-सञ्ज्ञा स्त्री० [सं० पितृस्वसृ] पिता की वहन । फूमा ( बग मच्छडो की तरह काटता और रक्त पीता है । कुटकी । भाषा में प्रयुक्त )। पिहक-सज्ञा स्त्री॰ [ अनु० ] दे० 'पिहानी' । पिसुन-शा पुं० [ स० पिशुन ] ३० पिशुन' । उ०—गात सरो- पिहफना-क्रि० प्र० [ अनु० ] कोयल, पपीहे, मोर प्रादि सु दर वर पच वग प्रान हस उहि वारि । पिसुन वचन किए • कठवाले पक्षियो का बोलना । व्याधि विधि दीनो सकल विडारि । -माघणनल०, पिहकनि-सञ्ज्ञा स्त्री० [ अनु० ] पिहकने की क्रिया या भाव। पृ० २१४ । पिहरा-सज्ञा पुं० [हिं० पिहान ] पत्ती जो, पास के ऊपर विछाई पिसुराई -सशा स्त्री० [ देश० ] सरकडे का एक छोटा टुकडा जिसपर जाती है । ( कुम्हार )। रुई लपेटकर पूनी बनाते हैं। पिहाना-सशा पुं० [सं० पिधाम, प्रा० पिहाण ] बरतन का ढक्कन । पिसेरा-सञ्ज्ञा पुं॰ [देश॰] एक प्रकार का हिरन । ढकना । ढकने की वस्तु । आच्छादन । विशेष-इसके ऊपर का हिस्सा भुरा और नीचे का काला पिहानी--सज्ञा स्त्री० [सं० पिधानिका ] दे० 'पिहान'। उ०- होता है। इसकी ऊंचाइ एक फुट और लवाई दो फुट होती पालस, अनख न पाचरज, प्रेम पिहानी जानु । -तुलसी० है। यह दक्षिण भारत में पाया जाता है। यह बडा डरपोक ग्र०, पृ० १३९ । होता है और सुगमता से पाला जा सकता है। यह पत्थरो की आड मे रहता है और दिन को बाहर कही नही पिहिकना -क्रि० स० [हिं० अनु.] दे० 'पिहकना'। उ०- निकलता। गिरिवर पिहिकत मोर झीगुर झनकारेव । -स० दरिया, पृ० ८८। पिसौनी-सक्षा श्री० [हिं० पीसना] १ पीसने वा याम । चक्की पीसने वा धा। २ पटिन काम । परिश्रम का काम । रिहत'- [म.] छिपाहुना। ३ पीसने की मजुरी । पिसाई। पिहित-सज्ञा पुं० एक पल कार जिसमे किसी के मन का कोई भाव जानकर क्रिया द्वारा अपना भाव प्रकट करना वर्णन पिस्व--सञ्चा पु० [फा० ] सत्तू । मक्तु [को॰] । किया जाय । जैसे,—र मिसिल ठाढ़ी शिवा अतरजामी पिस्तई-वि० [फा० पिस्त ] पिस्ते के रग का। पीलापन नाम । प्रकट करी रिस साह को, सरजा करि न सलाम । लिए हरा। (यहाँ शिवाजी ने औरगजेब का उपेक्षाभाव जानकर उसे पिस्तरना-क्रि० स० [ म० प्ररतारण ] प्रसार करना । फैलाना । सलाम न कर अपना क्रोष प्रकट किया।) उ०-दुज सुमन उत्तिय वुध पक्द रस, वट बिलाम गुन पिहुवा-सज्ञा पुं॰ [ देश० ] एक पक्षी । पिस्तरिय।-पृ० रा०, २४॥ पिरता-सञ्ज्ञा स्त्री॰ [ फा० पिस्तान ] स्तन । कुच । वक्षोज [को०] । पिहोली-१ पुं० [ देश० ] एक पौधा जो मध्यप्रदेश और वरार से लेकर बबई के आसपास तक होता है। यह पान के वीटों पिरता-सञ्चा पुं० [ फा० पिस्तह् ] काकडा की जाति का एक छोटा मे लगाया जाता है। इसकी पत्तियो से बडी अच्छो सुगध पेड और उसका फल जो एक प्रसिद्ध मेवा है। निकलती है। इन पत्तियो से इत्र बनाया जाता है, जो विशेष—इसका पेड शाम, दमिश्क और खुरासान से लेकर पचौली के नाम से प्रसिद्ध है। दे० 'पचौली'। अफगानिस्तान तक थोडा बहुत होता है और इसके फल की गिरी पच्छे मेवो मे है। इसके पत्ते गुलचीनी के पत्तो पोंगा-सञ्ज्ञा स्त्री॰ [हिं० ] दे० 'पेंग' । के से चौडे चौडे होते हैं और एक सीक में तीन तीन लगे पींगाली-गमा पुं० [सं० पिङ्गल ( = छंद ) ? ] भैरव राग के रहते हैं । पत्तो पर नसें बहुत स्पष्ट होती हैं । फल देखने में एक पुत्र का नाम । उ०-पींगाली मधु माधो गाय।- महुवे के से लगते है। रूमी मस्तगी के समान एक प्रकार माधवानल०, पृ० १६३ । का गोद इस पेड से भी निकलता है । पिस्ते के पत्तो पर भी पीजण पु-क्रि० स०, [ स० पिञ्जन ] दे० 'पीजना' । उ०—रूह ---