पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर भाग 7.djvu/१००

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धकेध्यानी ३३३६ धकरा प्र० जो देखने में तो बहुत साधु और उत्तम जान पडे, पर जिसका बकम-संज्ञा पुं० [ ] दे॰ 'बक्कम'। वास्तविक उद्देश्य बहुत ही दुष्ट और अनुचित हो। उस षकमौन - संज्ञा पु० [सं० वक+मौन ] अपना दुष्ट उद्देश्य सिद्ध बगले की सी मुद्रा जो मछली पकड़ने के लिये बहुत ही सीधा करने के लिये बगले की तरह सीधे बनकर चुपचाप रहने की सादा बनकर ताल के किनारे खड़ा रहता है। पाखंडपूर्ण क्रिया या भाव। मुद्रा । बनावटी साधुभाव । उ०-रण ते भागि निलज गृह बकमौन -वि० चुपचाप अपना काम साधनेवाला । उ०-मुख मे, पावा । इहाँ प्राइ वकध्यान लगावा ।—तुलसी (शब्द॰) । कर में काख में हिय में चोर बकमौन । कहै कबीर पुकारि क्रि० प्र०-लगना ।—लगाना । के पंडित चीन्हो कौन । -कवीर (शब्द०)। विशेष-इस शब्द का प्रयोग ऐसे समय होता है जब कोई व्यक्ति बकयंत्र-संज्ञा पुं० [सं० वकयन्त्र ] वैद्यक में एक यत्र का नाम । अपना बुरा उद्देश्य सिद्ध करने के लिये अथवा झूठ मुठ विशेप-यह कांच की एक शीशी होती है जिसका गला लवा लोगों पर अपनी साधुता प्रकट करने के लिये बहुत सीधा होता है और सामने बगले के गले की तरह झुका होता है । सादा बन जाता है। इस यत्र से काम लेने के समय शीशी को प्राग पर रख देते हैं बकध्यानी--वि० [स० बक+ध्यानिन् ] बगले की तरह बनावटी और झुके हुए गले के सिरे पर दूसरी शीशी अलग लगा देते ध्यान करनेवाला । जो देखने में सीधा सादा पर वास्तव हैं जिसमें तेल या परक प्रादि जाकर गिरता है। दुष्ट और कपटी हो । वंचक भक्त । बगला भगत । बकरी-मज्ञा पुं० [अ० ] गाय या वैल को । बकनख-सझ पुं० [सं० बकनख ] महाभारत के अनुसार विश्वा- यौ-यकर ईद = मुसलमानों का एक त्योहार जिसे बकरीद मित्र के एक पुत्र का नाम । कहते हैं। बकना-क्रि० स० [सं० वचन ] १. ऊटपटाँग बात कहना । बकर२-सञ्ज्ञा पु० [हिं० ] समस्त शब्दों मे बफरा का रूप । जैसे, प्रयुक्त बात बोलना। व्यर्थ बहुत बोलना। उ०—(क) जेहि बकरकसाई, बकरकसाव । धरि सखी उठावहिं सीस विकल नहिं डोल । घर कोइ जीव न बकरकसाई -संज्ञा पु० [हिं० ] दे० 'बकरकसाव ।' जाना मुखरे वकत कुबोल ।-जायसी (शब्द०)। (ख) बाद ही बाढ़ नदी के बकै मति बोर दे वज विषय विप ही को। वकरकसाव-संज्ञा पुं० [हिं० बकरी+प्रा० कस्साब (= कसाई) [स्त्री० बकरकसाविन ] बकरों का मांस बेचनेवाला -पद्माकर (पशब्द०)। २. प्रलाप करना। बड़बड़ाना । पुरुष । चिक। उ०—(क) काजी तुम कौन किताव वखाना । झंखत बकत रह्यो निशि बासर मत एको नहिं जाना।-कबीर (शब्द०)। बकरदाढ़ी-सज्ञा स्त्री॰ [हिं० बकर + दाढ़ी ] बकरे की तरह दाढ़ी । केवल ठुड्डी पर उगी दाढ़ी । उ०-अपनी बकरदाढ़ी को (ख) नाहिन केशव साख जिन्हें वकि के तिनसो दुखवै मुख थामे दरोगा साहब 'प्रकट में ध्यान से मेरी बात सुन रहे कोरो। केशव (शब्द०)। थे।-अभिशप्त, पृ० १०३ । सयो० कि०-चलना-जाना।-डालना । बकरना-क्रि० स० [हिं० वकार अथवा बकना ] १. प्रापसे पाप मुहा०-बकना झकना=बड़बढ़ाना । बिगड़कर व्यथ की बकना । बड़बड़ाना । उ०-दही मथत मुख ते कछु बकरति बातें करना। गारी दे दे नाम । घर घर टोलत माखन चोरत पटरस मेरे ३ि. कहना । वर्णन करना । उ०-व. जिका ज्यारी विगत, धाम |- सूर (शब्द०)। २. अपना दोष या करतूत प्रापसे प्रवर न कोय उपाय । -रघु० रू०, पृ०१३ । धाप कहना । कबूल करना । जैसे,-जन मत्र पढ़ा जायगा वकनिपूदन-संज्ञा पुं॰ [ सं०] १. कृष्ण । २. भीष्म (को॰) । तब जो चोर होगा वह आपसे आप बकरेगा। धकनी-संज्ञा स्त्री० [हिं० वकना] बकवास । उ०- सूरत मिली पकर घर-वि० [ अनुध्व.] आपपर्यचकित । उ०-ऐसे अवसरों जाय ब्रह्म सो, दे मन बुध को पूठ। जन दरिया जहाँ देखिए पर पडिताइन गम खा जातीं, वकर बकर ताकती रह जाती कथनी बकनी झूठ ।-दरिया० वानी, पृ० २० । अपने पतिपरमेश्वर की ओर।-नई०, पृ० ५। बकपंचक-संज्ञा पुं० [सं० बकपञ्चक ] कार्तिक महीने के शुक्ल घकरा-संज्ञा पु० [स० बर्कर] [स्त्री० बकरी ] एक प्रसिद्ध चतु- पक्ष की एकादशी से पूर्णमासी तक का समय जिसमे भात, पाद पशु । उ०-बकरी खाती घास है ताकी काढ़ी खाल । मछली श्रादि खाना बिल्कुल मना है। जो नर बकरी खात हैं तिनको फवन हवाल 1-कबीर बकबक-संज्ञा स्त्री० [हिं० वकना ] बकने की क्रिया या भाव (शब्द०)। व्यर्थ को बहुत अधिक दाते । जैसे,—तुम जहाँ वैठते हो वहीं पर्या-अज । छाग । बकर । बकबक करते हो। मुहा०-बकरे की माँ कब तक खैर मनाएगी = दोषी या अप. मुहा०-बकबक झकमक बफवाद । प्रलाप । उ०-इस खुशगपी राधी फब तक छिपा रह पाएगा। उ०-बस धागे यह डोगा ने पाज़ सितम, ढाया, लेक्चर सुनने में न प्राया, मुफ्त की चलना नजर नहीं पाता। बकरे की मां कब तक खैर वकवक झकझक ।—फिसाना०, भा० १, पृ०७॥ मनाएगी।-मान०, था० १, पृ०६।