पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर भाग 7.djvu/१२७

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बढ़ावना बतख अन्न की राशि पर रखी जानेवाली गोमय की पिंडिका जो वणिक, वणिग्-संज्ञा पुं० [सं०] १. वाणिज्य करनेवाला । वृद्घिजनक मानी जाती है। व्यापार व्यवसाय करनेवाला। बनियो । मौदागर । २. बढ़ावना-क्रि० स० [ हि० बड़ाव ] दे॰ 'बढ़ाना' । उ०-मल बेचनेवाला। विक्रेता । ३. ज्योतिष में छठा करण । मूत्र भरे लहू मांस भरै प्राप.अपना पंस बढावता है। यो०-घणिककटक व्यापारियो का. दन्न । कारखा। वणि- कबीर० रे०, पृ० ३६ । ग्राम= व्यापारियो का समूह या मदल | दणिपथ । बढ़ावा-सज्ञा पु० [हिं० बढ़ाव ] १. किसी काम को प्रोर मन वणिवीथी । परिणम्वृत्ति = व्यापार । वणिक् का काम । बढ़ानेवाली बात । हौसला पैदा करनेवाली बात जिसे सुनकर चणिक् सार्थ = बाणकटका । किसी को काम करने की प्रबल इच्छा हो। प्रोत्साहन । वणिकपथ-पञ्चा पु० [ मे० ] वाणिज्य । व्यापार की चीजों को उत् जना । जैसे.-पहले तो लोगों ने बढाया देकर उन्हें प्रामदनी रफ्तनी। २. रागर्ग। सौदागर । ३. दूकान इस काम में आगे कर दिया, पर पीछे सब किनारे हो गए। ( । ४. तुलागशि (को०)। क्रि० प्र०-देना। वणिग्बंधु - पु० [ म० यणिग्यन्यु] नीन का पौधा । मुहा०- बढ़ावे में थाना = उत्साह देने से किसी टेढे काम में वणिग्वह-सझा पुं० [सं०] ऊँट । प्रवृत्त हो जाना। वणिग्याथी -सा स्त्री॰ [म० ] बाजार । हाट (को०] । २. साहस या हिम्मत दिलानेवाली बात । ऐसे शब्द जिनसे फोई वणिज्-शा पु० [म० ] ३० वणिक् । कठिन काम करने में प्रवृत्त हो । जैसे,-तुम उनके बढावे में वत'-प्रपा म०] शब्दो पर, विचारों पर जोर देने के लिये मत पाना। प्रयुक्त शब्द। वढ़िया'-वि० [हिं० बढ़ना या देश०] उत्तम । अच्छा । उम्दा । विशेप-स्कृत मे इसका प्रयोग दु.ख, पीडा, दया, कृपा, बढ़िया -सज्ञा पु० १. एक प्रकार का कोल्हू । २. एफ तौल जो पाह्वान, प्रानंद, प्राश्वर्य, प्रतिवध पोर सत्यार्थप्रतिपादन मे डेढ़ सेर की होती है । ३. गन्ने, अनाज मादि की फसल का होता है। हिंदी में इसका प्रयोग नहीं मिलता। हिंदी का एक रोग जिससे कनखे नही निकलते और दाब वद हो 'तो' अव्यय इसके स्थान पर कही कहीं दो एक मयों में जाती है। प्रयुक्त मिलता है। बढ़िया-सज्ञा स्त्री० एक प्रकार की दाल ! बत-प्रव्य० [हिं० ] कि । पर । वढिया-संज्ञा स्त्री० [हिं० वाढ़+इया (प्रत्य॰) ] दे० 'बाढ़' । वत-सका सी[हिं० 'बात' का संक्षिप्त रूप ] वात । वार्ता । बढ़ेल -मज्ञा जी० [देश॰] हिमालय पर की एक भेड़ जिससे ऊन विशेष-इस शब्द का प्रयोग यौगिक शन्दो में ही होता है। निकलता है। जंसे, बतकही, वतवढाव, वतरस । चढ़ेना-सज्ञा पु० [सं० वराह ] वनेला सूपर । जंगली सूअर । वत-सज्ञा स्त्री० [अ० ] बतख । बढ़ेया-वि० [हिं० बढ़ाना, बढ़ना ] १. वढ़ानेवाला । उन्नति बतक-संज्ञा स्त्री० [अ० बतख ] दे० 'बतस'। करानेवाला। २. वढनेवाला। बतकहा-वि० [हिं० यात +कहना ] [ वि० सी० यतकहो ] वातें करनेवाला। बड़बड़िया। उ०-रूपवादी बहुत कुछ उस बढ़ेया --संज्ञा पु० [हिं० ] दे० 'बढ़ई' । उ०—प्रति सुंदर पालनो बतर हे की तरह हैं । -इति०, पृ० १८ । गड़ि ल्याव, रे वढया।-सूर (शब्द॰) । वतकहाव-संज्ञा पुं० [हिं० चात+कहाव ] १. बातचीत। २. बढ़ोतरी -~-पज्ञा स्त्री० [हिं० बाद+उतर ] १. उत्तरोत्तर वृद्धि कहासुनी । विवाद । बातो का झगड़ा । बढती । २. उन्नति । ३. बढाया हुप्रा भंश या भाग। बतकही-सज्ञा स्त्री॰ [हिं० वात+कही बातचीत । वार्तालाप । बढ़ढाली पु-वि० [ देश० ] दे० 'बढाली' । उ०-उन्मार विम्भार उ०-(क) करत बतकही अनुज सन मन सिय रूप लुभान । बीर बाहै बढाली ।-पृ० रा०, ७।१४२ । मुखसंरोज मकरंद छवि करत मधुर इव पान । -तुलसी बणजा-संज्ञा पुं० [ स० वाणिज्य ] दे० 'बनिज' । उ०-(क) प्रव (शब्द०)। (ख) मनह हर उर युगल मारध्वज के मकर लागि के चिट्ठी प्राई कि तू घबरा मत मैं जरूर आऊँगा और स्रवननि करत मेरु की बतकही। -तुलसी प्र०, पृ० ४०८ । लाहौर में बरणज करूंगा।-पिंजरे०, पृ० ६३ । (ख) तहें बतख-सज्ञा सी० [अ० घत ] हंस की जाति की पानी की एक पोथी पाठ न पूजा अरचा । तंह खेती बाजु नही को चिड़िया । परचार-प्राण, पृ० १८६ । विशेष-इसका रंग सफेद, पजे झिल्लीदार मौर चोंच मागे की वणि-सञ्ज्ञा स्त्री० [?] रुई का झाड़ । कपास का पेड़ । भोर चिपटी होती है। चोच और पजे का रंग पीलापन लिए बणिक-मज्ञा पुं० [सं० बणिक् ] दे० 'बरिणक'-२ । उ० हुए लाल होता है। यह चिड़िया पानी में तैरती है मौर शाकबणिक मणिगुण गण जैसे। -तुलसी (शब्द०)। जमीन पर भी अच्छी तरह चलती है। इसका डीलडोल भारी 1