पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर भाग 7.djvu/१२९

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यतिया ३३६८ यस्थ बतिया'-संज्ञा पु० [सं० वर्तिका, प्रा० वत्तिया (= बत्ती)] थोड़े दिनों पत्तिस-वि० [हिं० ] दे० 'यत्तीस' । का लगा हुप्रा कच्चा छोटा फल । छोटा, कोमल और कच्चा वत्ती-संशा सी० [सं० वर्षि वर्तिका, प्रा० पत्ति] १. सूत, रुई, कपड़े फल । उ०-इहाँ कुहंड़ बतिया कोउ नाही । जो तनि देखत प्रादि की पतली छड़ । सलाई या चौड़े फीते के पाकार का मरि जाही।-तुलसी (शब्द०)। टुकहा जो बट या बुनकर बनाया जाता है और जिसे तेल में बतिया २-सज्ञा स्त्री॰ [हिं० बात+इया] दे० 'बात' । उ०-कहो डालकर दीप जलाते हैं। चिराग जलाने के लिये रूई या सुन उस देश की बतिया जहाँ नहिं होत दिन रतिया ।-फवीर० का बटा हुप्रा लच्छा। श०, भा० ३, पृ०७। यौ०-अगरबत्ती। धूपवती । मोमबत्ती । वतियाना-क्रि० प्र० [हिं० बात से नामिक धातु] बातचीत करना । मुहा०-यत्ती लगाना = जलती हुई वत्ती ठुला देना । जलाना । बतियार-संज्ञा स्त्री [हिं० बात+यार (स्वा०) ] बातचीत । उ०- प्राग लगाना । भस्म करना। संझावत्ती= संध्या के समय सतसंगन की वतियारा । सो करत फिरत हुसियारा । दीपक जलाना। -विश्राम (शब्द०)। २. मोमवती। बतीसा-संज्ञा पुं० [हिं० ] दे० 'बचोसा'। मुहा०-बच्ची चढ़ाना = शमादान मे मोमबत्ती लगाना। बतीसी -संज्ञा स्त्री॰ [हिं०] दे० 'बच्चीसी'। उ०-तोरे दंतवा के बति ३. दीपक । चिराग । रोशनी। प्रकाश । सिया जियरा मार गोदना । -प्रमघन॰, भा॰ २, पृ० ३५६ । मुहा०-यत्तो दिसाना = उजाला करना । समने प्रकाश दिसाना । बतू-सज्ञा पु० [हिं०] दे० 'कलावत्त । उ०-चोली सुनावट चिन्ह यौ०-दियायत्ती। चुभ चपि होत उजागर चिन्ह वतू के । –घनानद ( शब्द०)। ४. लपेटा हुप्रा चीथडा जो किसी वस्तु में प्राग लगाने के लिये बतोला-संज्ञा पुं० [सं० वार्तालु, हिं० वातुल अथवा वात+ काम में लाया जाय । फलोता । पलीता। ५. पलती छड़ या ओला ] बतंगड । बकवास । उ०-कब नही वूझ से गए सलाई के आकार में लाई हुई कोई वस्तु । बत्ती की शकल तोले । हैं बतोले बहुत बुरे लगते । -चोखे०, पृ० ५८ । की कोई चीज । जैसे, लाह की बत्ती, मुलेठी के सत की बतोलिया-वि० [हिं० बात + औलिया ] पात बनानेवाला । वची, लपेटे हुए कागज की वत्ती। ६. फूस का पूला जिसे बातूनी । उ०-फंसाऊ पौर बतोलिये उपदेशक की भोर । मोटो .बत्ती के आकार में बांधकर छाजन में लगाते हैं । प्रेमघन० भा॰ २, पृ० २७५ । मूठा । उ०-अचरज बंगला एक बनाया। ऊपर नीव, तले बतौत कुंती-संज्ञा स्त्री० [हिं० वात ] कान में बातचीत करने की घर छाया । बाँस न वत्ती बंधन घने । कहो सखो! घर कैसे नकल जो बंदर करते हैं । ( कलंदर )। बने ।-(शब्द०)। ७. कपड़े की वह लवी धज्जी जो घाव बतौर -क्रि० वि० [ अ० ] १. तरह पर। रीति से। तरीके पर । मे मवाद साफ करने के लिये भरते हैं। जैसे,—वतौर सलाह के यह बात मैने कही थी । २ सदृश्य । क्रि०प्र०-देना। समान । मानिंद। ८. पगड़ी या चीरे का ऐंठा हुआ कपड़ा। ६. कपड़े के किनारे बतौर-तज्ञा पु० [ हिं० बात, पुं० हिं० चतउर ] बातचीत उ०- का वह भाग जो सीने के लिये मरोड़कर पकड़ा जाता है। जामैं सुख रंच है विसाल जाल दुख ही की लुटि ज्यों बतौरन वत्ती-राशा स्त्री॰ [ सं० यार्ता, प्रा० बत्त दे० 'वात'। उ०- की वरछी की हूल है ।-दीन० ग्र०, पृ० १४० । सुनि वत्ती नृप भर किलकान । राका चद उदधि परमानं।- बतौरी-संज्ञा स्त्री॰ [ स० वात + हिं० औरो (प्रत्य०) ] एक प्रकार पु० रा०, १८॥३३ । का रोग। वत्तोस'-वि० [सं० द्वात्रिंशत्. प्रा० यत्तीसा] तीस से दो अधिक । विशेष—इसमें शरीर के ऊपर गोलाकार उभार हो पाता है। जो गिनती मे तीस से दो ज्यादा हो। इस रोग में प्राय: चमड़े के नीचे एक गांठ सी हो पाती है पत्तीस-सज्ञा पु० १. तीस से दो अधिक की सरया। २. उक्त जिसमे प्राय. मज्जा भरी रहती है। यह गाँठ बढ़ती रहती संख्या का मंक जो इस प्रकार लिखा जाता है-३२ । है, पर इसमे पीड़ा नहीं होती। बत्तीसा-संशा पु० [हिं० यत्तीस ] एक प्रकार का लड्डु, जिसमें बत्त--सज्ञा स्त्री० [स० वार्ता, प्रा० पत्त ] दे० 'बात' । उ०- पुष्टई के बत्तीस मसाले पड़ते हैं। यह लड्डु, विशेषतः नव- ( क ) रज्जि मत्ति नादान कन्ह उच्चरिय वत्त इह । -पृ० प्रसूता को खिलाया जाता है । रा०, ४।२। (ख) उच्चरिय बत्त इमि मचि करि । वत्तोसी-सशास्त्री० [हिं० पत्तीस ] १. बत्तीस का समूह । २. -पृ० रा०,४।१। मनुष्य के नीचे ऊपर के दांतों की पक्ति ( जिनकी पूरी संख्या बत्तड़ो-सञ्चा स्रो॰ [ प्रा० ] वार्ता । उ०-डेरा डेरी बत्तड़ी, बत्तीस होती है। डेरा डेरी जोस । -रा०६०, पृ०७४ । मुहा०-बत्तोसी खिलना= प्रसन्नता से हंस पड़ना । बत्तीसी झड़ बत्तरी-संज्ञा स्त्री॰ [ प्रा० पचड़ी ] वार्ता । वात । उ०-रही जुगें पड़ना =दौत गिर पडना। बत्तीसी दिखाना = दात जुग बत्तरिय । -पृ० रा०, ११६८८ । दिखाना। हंसना । बत्तीसी बजना जाहे के कारण दाढो बत्तक-सञ्चाा पु० [हिं० यतक ] दे॰ 'वतख' । का कंपना । गहरा जाड़ा लगना । . पचर-वि० [हिं॰] दे० 'बदतर'। पत्थ-संझा पु० [स० वृक्ष या वस्ति ] दे॰ 'नाथ' । - देह